जहां एक तरफ सीरिया में बशर अल-असद की सेनायें रूस, ईरान और हिजबुल्ला की मदद से देश के अधिकांश हिस्सों को आतंकवादी समूहों के चंगुल से मुक्त कराती जा रही हैं, वहीं अब युद्ध सीरिया के उत्तर-पूर्व स्थित इदलीब प्रांत में सिमट कर रह गया है। कहा जाता है कि दुनियाभर के आतंकवादी इदलीब में हैं। इनकी संख्या 50 हजार से ऊपर है। इदलीब में इनका कब्जा है। इन आतंकवादी समूहों को अमरीकी साम्राज्यवादियों का तथा उनके सहयोगी पश्चिमी साम्राज्यवादियों का समर्थन प्राप्त है।
सीरिया की सेना इदलीब पर आतंकवादियों के कब्जे में आखिरी बड़े इलाके पर हमले की तैयारी कर रही है। उसके इस जमीनी हमले पर हवाई संरक्षण रूसी सेना से मिल रहा है। अपने आतंकवादी समूहों के आखिरी इलाके को हाथ से निकलते देख अमरीकी साम्राज्यवादी बौखलाते जा रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सीरिया की हुकूमत को चेतावनी दी है कि यदि वह अदलीब में रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल करेगी तो अमरीका इसका माकूल जवाब देगा। इसी प्रकार इदलीब पर हमले को रोकने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादियों ने रूस और ईरान को चेतावनी दी है।
पिछले सात वर्षों से अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया की मौजूदा हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए विभिन्न तरह के आतंकवादी समूहों को धन और हथियार मुहैय्या कराते रहे हैं। उनके इन घृणित कदमों का साऊदी अरब, मिस्र और इजरायल के शासक समर्थन और सहयोग करते रहे हैं। यूरोप के नाटो सदस्य देश इन आतंकवादी समूहों का समर्थन करने में अमरीकी साम्राज्यवादियों के मूलतया पक्ष में रहे हैं।
तुर्की नाटो का सदस्य देश रहा है तथा सीरिया में वह आतंकवादी समूहों का समर्थन, प्रशिक्षण और हथियार पहुंचाने वाले देश के बतौर अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ खड़ा रहा है। पिछले एक साल से ज्यादा समय से वह अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ विवाद में रहा है। इसका एक कारण तुर्की के शासक यह बताते हैं कि राष्ट्रपति एर्डोगन की सत्ता को मिटाने की नाकाम साजिश में अमरीकी साम्राज्यवादियों का हाथ रहा है। इसका दूसरा कारण सीरिया के उत्तर-पूर्व में स्थित कुर्द राष्ट्रीयता के लोगों के होने से तुर्की में कुर्द राष्ट्रीयता के मुक्ति आंदोलन को बल मिल सकता है। इस सिलसिले में अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया स्थित कुर्दों के हथियारबंद समूहों पर निर्भर करने की हिमायत करते रहे हैं और वे कुर्दों का इस्तेमाल सीरिया की मौजूदा हुकूमत के विरुद्ध करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। लेकिन तुर्की की हुकूमत इसे अपने लिए तुर्की के कुर्दों की आजादी की लड़ाई को हवा मिलने के कारण खतरा मानती रही है। इसलिए अलेप्पो और इदलीब में जहां कुर्दों की आबादी रहती है, तुर्की की हुकूमत इन कुर्दों को हथियारबंद करने की अमरीकी साम्राज्यवादियों की कोशिश के विरुद्ध रही है।
लेकिन तुर्की और अमरीकी साम्राज्यवादियों के बीच यह विरोध और ज्यादा गहरा तब हो गया जब अमरीकी हुकूमत ने तुर्की से स्टील और एल्युमिनियम के आयात पर आयात शुल्क बढ़ा दिया। इस दौरान अमरीकी मौद्रिक नीति के चलते भी डॉलर की तुलना में तुर्की मुद्रा की कीमत में भारी गिरावट दर्ज की गयी। नाटो का सदस्य होने के बावजूद तुर्की और अमरीकी साम्राज्यवादियों के बीच की दूरी और बढ़ती चली गयी।
इस बढ़ती दूरी और रूसी साम्राज्यवादियों के सीरिया में भू-राजनीतिक हित के कारण तुर्की और रूसी साम्राज्यवादी हितों की एकता बढ़ती गयी। अब सीरिया के मसले में तुर्की, ईरान और रूस के बीच हाल ही में त्रिपक्षीय वार्ता हुई। इस त्रिपक्षीय वार्ता में जहां रूस और ईरान के शासक इदलीब में आतंकवादियों का पूर्ण सफाया करने के लिए सीरिया द्वारा व्यापक पैमाने पर हमला करने के पक्ष में थे, वहीं तुर्की के शासक इसका विरोध कर रहे थे। उनके विरोध का मुख्य कारण यह था कि ये वही आतंकवादी समूह हैं जिनको तुर्की ने अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर तैयार किया था, उन्हें हथियारबंद किया था, प्रशिक्षित किया था और सीरिया में लड़ने के लिए भेजा था। यहां उसका विरोध इसलिए भी है क्योंकि इन इस्लामी जेहादियों के अतिरिक्त अमरीकी साम्राज्यवादियों ने कुर्दों को भी सीरिया की हुकूमत के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया था और अब वे कुर्द अमरीकी साम्राज्यवादियों का साथ छोड़कर सीरिया की हुकूमत के साथ शांति वार्ता करने के लिए तैयार हो गये हैं। इससे भी तुर्की को खतरा दिखाई दे रहा है। क्योंकि वह जहां सीरिया की हुकूमत को तहस-नहस करने में नाकामयाब रहा है, वहीं अब उसके इलाके की कुर्द आबादी की आजादी की मांग बढ़ने का खतरा बढ़ता जा रहा है।
ऐसी स्थिति में तुर्की के शासक सीरिया द्वारा इदलीब में बड़े पैमाने के हमले के विरोध में है। लेकिन तुर्की के शासकों को भी समझ में आता जा रहा है कि सीरिया में उनकी साजिशें नाकामयाब हो चुकी हैं। इसलिए वे रूस और ईरान के साथ सीरिया के मसले का राजनीतिक समाधान निकालने के पक्ष में आ गये हैं। यदि तुर्की के शासक इस दिशा में और आगे बढ़े तो वे नाटो की सदस्यता को छोड़ने तथा तुर्की के भीतर अमरीकी फौजी बेड़े को हटाने की तरफ भी जा सकते हैं। यदि ऐसा हो जाता है तो यह अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए एक बड़ा धक्का होगा। हालांकि फिलहाल तुर्की के शासक इस हद तक जायेंगे इसकी सम्भावना कम है।<img style="border-width: 1px; border-style: solid; margin: 1px; width: 314px; height: 222px; float: right;" src="/newsImages/180916-062732-4 2.bmp" alt="" />
लेकिन अमरीकी साम्राज्यवादी अभी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। वे सीरिया के शासकों को धमकी दे रहे हैं। रूस और ईरान के शासकों को चेतावनी दे रहे हैं। वे सीरिया द्वारा रसायनिक हथियारों के इस्तेमाल करने का झूठा इलजाम लगा रहे हैं। वे अतीत में भी ऐसा कर चुके हैं। वे खुद आतंकवादी समूहों को रसायनिक हथियार देकर उन्हीं से इस्तेमाल कराके सीरिया की हुकूमत पर रसायनिक हथियारों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाकर उस पर हवाई हमले कर चुके हैं। आज यह साफ हो गया है कि सीरिया पर रसायनिक हथियारों का इस्तेमाल अमरीकी और ब्रिटिश समर्थक आतंकवादी समूहों ने किया था जिसमें 34 बच्चों की जानें गयी थीं। हालांकि अमरीकी और ब्रिटिश प्रचार तंत्र ने लगातार झूठ का अम्बार खड़ा करके इसके लिए सीरिया की हुकूमत को दोषी ठहराया था। अब फिर अमरीकी साम्राज्यवादी उसी झूठ का सहारा ले रहे हैं। उनके इस झूठ के प्रचार तंत्र में पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी शासक भी शामिल हैं। अभी हाल ही में जर्मनी के शासकों ने सीरिया को बशर अल-असद की हुकूमत को चेतावनी दी है कि यदि वह रसायनिक हथियारों का इस्तेमाल इदलीब की जनता पर करेगा तो जर्मनी अपनी सेना सीरिया के विरुद्ध लड़ने के लिए भेजेगा। ये सारी कोशिशें इदलीब में मौजूद आतंकवादी समूहों के कब्जे को बचाने के लिए हो रही हैं।
लेकिन सीरिया में हुकूमत परिवर्तन की अमरीकी साम्राज्यवादी साजिश आमतौर पर असफल हो चुकी है। हां, इसने सीरिया में व्यापक तबाही मचायी है। लाखों लोग मारे गये हैं। लाखों-लाख अपना घर छोड़कर शरणार्थी होने को मजबूर हो गये हैं। लेकिन इसके बावजूद अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया के शासकों को न तो झुका सके और न ही वहां हुकूमत परिवर्तन कर सके।
लेकिन हर प्रतिक्रियावादी की तरह अमरीकी शासक भी आचरण कर रहे हैं। वे गड़बड़ी फैलाने की कोशिश को तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक उनका सर्वनाश नहीं हो जायेगा। वे अभी सीरिया में यह सब कर रहे हैं। ईरान को धमकी दे रहे हैं। उस पर प्रतिबंध लगाये हुए है। रूस पर प्रतिबंध लगाये हुए हैं। चीन के साथ व्यापार युद्ध छेड़े हुए हैं। लातिन अमरीकी देशों में गड़बड़ी फैला रहे हैं। वेनेजुएला के राष्ट्रपति मादुरो की ड्रोन हमलों से हत्या कराने की कोशिश कर चुके हैं। वेनेजुएला के सैनिक अधिकारियों से सी.आई.ए. मिल रही है और वहां तख्तापलट कराने की कोशिशें जारी हैं। निकारागुआ के आंदोलन भड़काकर वहां की सरकार को घुटने टेकने को मजबूर करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सारी कोशिशें उनकी बदहवासी की सूचक हैं। ये उनकी कमजोरी की पहचान है।
दुनिया का घटनाक्रम अमरीकी साम्राज्यवादियों के पतन की ओर इंगित कर रहा है। इससे वे बौखलाकर और ज्यादा आक्रामक हो गये हैं।
लेकिन इससे उनका अंतिम पतन और नजदीक आ रहा है। सीरिया में वे असफल हुए हैं। आगे भी वे असफल होंगे। यही इतिहास का दिशा संकेत है।
अमरीकी साम्राज्यवादी सीरिया को तहस-नहस करने की फिराक में
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।