आपात काल और संघ-भाजपा के झूठे दावे

26 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने समस्त जनवादी अधिकारों का अपहरण कर देश पर आपातकाल थोप दिया था। आपातकाल थोपने की वजह अदालत द्वारा इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता रद्द करना थी। जबकि वास्तविक वजह उस समय समाज के विभिन्न मेहनतकश तबकों के खडे़ हो रहे संघर्षों का ज्वार था जिससे इंदिरा को व्यवस्था की रक्षा करनी थी। इसलिए इंदिरा ने आपातकाल थोप इन सभी संघर्षों को पुलिसिया दमन के बल पर शांत करने की कोशिश की, हजारों लोगों को जेल में ठूंस दिया।

इंदिरा के प्रधानमंत्री कार्यालय में विभिन्न नेताओं की एक सूची तैयार की गई जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था। ढेरों गिरफ्तार लोगों को अमानवीय यातनायें दी गयीं। मीडिया को नियंत्रित कर स्वतंत्र अभिव्यक्ति से रोक दिया गया। इंदिरा के पुत्र संजय के नेतृत्व में जबरन नसबंदी व दिल्ली में अवैध बस्तियों को उजाड़ने का अभियान चलाया गया। आपातकाल के 21 माह आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर काले दिनों के रूप में अंकित हैं।

आपातकाल मेें इंदिरा के दमन का शिकार इसका विरोध करने वाले जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी, माकपा, कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व इसके संगठन भी बने। उस समय इंदिरा ने संघ को प्रतिबन्धित कर दिया और वाजपेयी से लेकर संघ के शीर्ष नेता बाला साहब देवरस, जेल में डाल दिये गये।

आज आर.एस.एस. आपातकाल के खिलाफ किये गये संघर्ष में संघ की नेतृत्वकारी भूमिका के एक से बढ़कर एक दावे करता है। उसके अनुसार यह संघर्ष देश में आजादी की दूसरी लड़ाई थी जिसका नेतृत्व संघ ने किया। वास्तविकता यह है कि आपातकाल के खिलाफ संघर्ष में संघ की नेतृत्वकारी तो दूर मामूली सी भूमिका भी नहीं थी। हां, संघ को आपातकाल के दौरान प्रतिबन्धित होने का यह लाभ जरूर मिला कि उसे भारतीय राजनीति में एक मान्यता जरूर मिल गयी। आपातकाल से पूर्व तक संघ व उसकी पार्टी भारतीय जनसंघ से दूरी बनाने वाले दूसरे दल जनता पार्टी में उसे साथ में लेने को तैयार हो गए। संघ व भारतीय जनसंघ (बाद में भाजपा) को भी आपातकाल में अपनी भूमिका बनाने का एक ऐसा मौका मिल गया जिसको लेकर किसी को खास आपत्ति नहीं थी। प्रकारान्तर से उसे आजादी की लड़ाई में अंग्रेजपरस्ती के दाग को पोंछने के लिए, खुद को राष्ट्रभक्त साबित करने के लिए आपातकाल विरोध का एजेण्डा मिल गया। इसके जरिये वह खुद को जनवादी अधिकारों के रक्षक व कांग्रेस को जनवाद विरोधी साबित करने की भी कोशिश कर सकता था।

आपातकाल में अपनी भूमिका को संघी-भाजपा नेता वक्त बीतने के साथ क्रमशः महिमामण्डित करते चले गये और आज वे ये दावे करने लगे कि वे ही दरअसल आपातकाल विरोधी संघर्ष के नेतृत्वकारी थे। जाहिर है आपातकाल के तुरंत बाद इतना बड़ा झूठ न तो जनता हजम कर सकती थी और न ही आपातकाल संघर्ष के वास्तविक नेता उसे ऐसा करने देते। पर 43 सालों में जनता की यादें धुंधली पड़ती गयीं और तब के संघर्ष के तमाम वास्तविक नेता परिदृश्य से ओझल हो गये (हालांकि सोशलिस्ट पार्टी से निकले कई आज भी जातीय पार्टियों के रूप में मौजूद हैं) तब संघ-भाजपा को अपने झूठे दावे को सच के रूप में पेश करने में सहूलियत हो गयी।

वास्तविकता क्या थी? दरअसल आपातकाल विरोधी संघर्ष का नेतृत्व देश के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों, सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं, माकपा सरीखी संशोधनवादी पार्टी ने किया था। सबसे अधिक दमन भी इन्हीं को झेलना पड़ा था। तब ऐसे में संघ क्या कर रहा था? संघ वही कर रहा था जो इसके नेताओं ने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से सांठ-गांठ कर किया था। दरअसल संघ को इंदिरा के आपातकाल से कोई आपत्ति नहीं थी। वस्तुतः जनवाद विरोधी संघ को कोई आपत्ति हो भी नहीं सकती थी। हां, उसे इस बात से जरूर आपत्ति थी कि इंदिरा गांधी ने संघ को भी प्रतिबन्धित कर दिया और उसके नेताओं को जेल में डाल दिया।

जहां तमाम आपातकाल विरोधी नेता जनसंघर्षों में जनता का नेतृत्व कर लाठी-गोली खा रहे थे, दमन झेल रहे थे वहीं संघी नेता संजय के नसंबदी अभियान के साथ इसलिए खड़े थे कि इसका निशाना ज्यादातर गरीब मुस्लिमों को बनाया गया था, कि इससे मुस्लिम आबादी रोकने में मदद मिलती। आपातकाल के दौरान वाजपेयी बिमारी के नाम पर और इस शर्त पर हस्ताक्षर कर कि वे आपातकाल विरोधी संघर्षं में हिस्सा नहीं लेंगे, ज्यादातर समय पेरोल पर जेल से बाहर अपने घर में रहे। वहीं संघ प्रमुख बाला साहब देवरस इंदिरा गांधी को पत्र पर पत्र लिख कर उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि संघ इंदिरा व उसके आपातकाल का विरोधी नहीं है, कि इंदिरा अगर संघ पर प्रतिबंध हटा ले और संघ के नेताओं-कार्यकर्ताओं को रिहा कर दे तो वे इंदिरा के 20 सूत्रीय कार्यक्रम में हरसंभव मदद करेंगे। अपने कार्यकर्ताओं के द्वारा इंदिरा विरोध के लिए वे माफी की क्षमा याचना कर रहे थे। कोई भी समझ सकता है कि जिस संगठन का नेता ऐसी चिट्ठी लिख रहा हो, उस संगठन के लोगों ने आपातकाल विरोधी संघर्ष में क्या भूमिका निभायी होगी।

2000 में ‘द हिन्दू’ अखबार में इस संदर्भ में लिखे एक लेख में आज भाजपा में शामिल हो चुके सुब्रमण्यम स्वामी ने लिखा कि महाराष्ट्र असेम्बली की कार्यवाही के रिकार्डों से यह स्पष्ट है कि सर्वे सर्वा बालासाहब देवरस ने पुणे की यर्वदा जेल से इंदिरा गांधी को कई माफी पत्र लिखे जिसमें जेपी के नेतृत्व वाले आंदोलन से खुद को अलग करने व इंदिरा के 20 सूत्रीय कार्यक्रम में सहयोग का वायदा किया गया था। इंदिरा गांधी ने इन पत्रों का कोई जवाब नहीं दिया। स्वामी तो तब वाजपेयी के भी माफी पत्र का जिक्र करते हैं पर इसका ऐतिहासिक प्रमाण नहीं देते। स्वामी बताते है कि आपातकाल के ज्यादातर समय वाजपेयी का जेल से बाहर पैरोल पर रहना इस माफी पत्र के बाद ही संभव हुआ।

आज भले ही भाजपा में शामिल होने के बाद सुब्रमण्यम स्वामी इन बातों से मुकर जाएं पर बाला साहब देवरस की लिखी चिट्ठियों के प्रमाण मौजूद हैं। उनकी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को लिखी चिट्ठी का अनुवाद यहां प्रस्तुत किया गया है।

दरअसल संघ व इसकी तत्कालीन पार्टी भारतीय जनसंघ हमेशा से ही भारतीय समाज की सर्वाधिक दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतों में एक रहे हैं। इनका लक्ष्य हमेशा से कम्युनिस्ट, मुस्लिमों व ईसाईयों के खिलाफ प्रचार करने व इनके खिलाफ हिन्दुओं को लामबंद कर हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना रहा है। आजादी की लड़ाई से लेकर आपातकाल विरोधी संघर्ष सरीखी हर जनवाद के विस्तार की लड़ाई के ये विरोधी रहे हैं। अगर ये जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में कुछ समय शामिल हुए तो भी इनका लक्ष्य हिन्दुओं के बीच आधार फैलाना और भारतीय राजनीति में वैधानिकता पाना ही था। आपातकाल का इन्हें इस रूप में लाभ भी मिला कि आपातकाल के बाद साम्प्रदायिक गोलबंदी व इनके संगठन क्रमशः मान्यता व आधार दोनों पाते चले गये। 1983 में इंदिरा विहिप के कार्यक्रम में शामिल हुईं तो राजीव ने राम मंदिर के ताले खुलवाये। क्रमशः इनकी साम्प्रदायिक राजनीति की बढ़त दूसरी पार्टियों को भी दक्षिणपंथ की ओर ढुलकने की तरफ ले गयी। आज हालत यह है कि राहुल गांधी जनेऊ दिखा मंदिरों के चक्कर काट रहे हैं।

संघ-भाजपा हमेशा से जनवाद विरोधी रहे हैं। आपातकाल के बारे में इनके सारे दावे झूठे हैं। इनका लक्ष्य इंदिरा के आपातकाल से ज्यादा खतरनाक फासीवादी हिन्दू राष्ट्र की ओर देश को ले जाना है। मोदी का चार सालों का शासन यह दिखाने को काफी है कि कैसे इन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को एक तानाशाह कार्यालय बना दिया है। जनता को इनके झूठे प्रचार से हमेशा सचेत रहने की जरूरत है।

संघ के बालासाहब देवरस का महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र

मधुकर दत्तारेय 22-7-1975

यर्वदा केन्द्रीय जेल

पूना-6

माननीय शंकर राव जी चव्हाण

मुख्मंत्री, महाराष्ट्र, बंबई

पूरे देश में आर.एस.एस. की गतिविधियां इसे प्रतिबन्धित किये जाने के आदेश के बाद से रुक गयी हैं। मुझे भी कैद कर लिया गया है।

चूंकि आर.एस.एस. पर प्रतिबंध से पूरा देश चिंतित है, इसलिए मैंने दो पत्र प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपके जरिये लिखे। मैं पत्रों को दिल्ली प्रेषित करने के लिए आपका धन्यवाद करता हूं। पत्रों के भेजे जाने के कई दिन बीतने के बाद भी मुझे प्रधानमंत्री से पत्र प्राप्ति की सूचना तक प्राप्त नहीं हुई। यह आर्श्चजनक और दुखद है।

नागपुर में आर.एस.एस की स्थापना हुई और इसका केन्द्रीय ऑफिस भी यहीं स्थित है। संगठन का कार्य कई वर्षों से चल रहा है इसलिए आप इस कार्य से पूर्णतया परिचित होंगे। इसके बावजूद, यदि प्रधानमंत्री के दिमाग में आर.एस.एस. को लेकर कोई गलत समझ है तो यह जरूरी है कि उसे शीघ्र दूर किया जाए।

चूंकि आर.एस.एस. पर 5 या 6 माह पहले प्रतिबंध लगाया गया था, हजारों आर.एस.एस. कार्यकर्ता विभिन्न स्थानों पर जेल में डाले गये हैं। आपके राज्य में ही इनकी संख्या 1200 से अधिक है।

इन कार्यकर्ताओं में जीवन के सभी क्षेत्रों के लोग हैं। इनमें से ढेरों तनावपूर्ण परिस्थितियों में हैं। उनमें कुछ बहुत बूढ़े और कमजोर हैं। उनकी व्यथा को अनिश्चित काल के लिए बढ़ाना पूरी तरह गलत होगा। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि आप पहल लें और प्रधानमंत्री की आर.एस.एस. के बारे में गलत सोच को दूर करें ताकि संगठन अपनी ताकत का इस्तेमाल विभिन्न रचनात्मक कामों में कर सके।

मैं सोचता हूं कि यह बेहतर होता कि मैं आपसे व्यक्तिगत तौर पर मिलकर इस बारे में बात कर सकता।

आपका

हस्ताक्षर

एम.डी. देवरस

(स्रोतः www.dailyo.in, अनुवाद हमारा)

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को