रोजगार पर सरकारी रिपोर्ट
अदम गोंडवी की चर्चित कविता की दो पंक्तियां हैं- तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है- मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है। ये पंक्तियां हाल ही में भारत सरकार के राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे कार्यालय द्वारा रोजगार से जुड़ी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट पर पूरी तरह लागू होती है। रिपोर्ट में इस बात की पूरी कोशिश की गयी है कि लगे कि भारत में रोजगार की स्थिति लगातार सुधर रही है कि बेरोजगारी घट रही है। जाहिर है मोदी सरकार के काल में आंकड़ों की बाजीगरी से हर रिपोर्ट को इसी रूप में पेश किया जाता रहा है मानो हर मामले में सुधार हो रहा है। बजट से लेकर अर्थव्यवस्था की विकास दर कोई आंकड़ा इस बाजीगरी से अछूता नहीं है।
स्पष्ट है कि इस रिपोर्ट का इस्तेमाल संघ-भाजपा के नेता लाखों-करोड़ों रोजगार पैदा करने के हवाई दावों के लिए करेंगे। इन दावों के जरिये जनमानस को भरमाया जायेगा। पर रोजगार चूंकि हर व्यक्ति के जीवन से जुड़ा मुद्दा है और हर बेरोजगार-अर्द्धबेरोजगार-छंटनी शुदा व्यक्ति इन हवाई दावों की रोशनी में या तो खुद को यह तसल्ली देने की ओर बढ़ेगा कि वही नकारा है और बाकी लोगों का जीवन सुधर रहा है या फिर इन हवाई दावों-झूठे आंकड़ों को मानने से इंकार कर देगा।
उपरोक्त रिपोर्ट दो प्रमुख दावे करती है कि भारत में श्रम बल भागीदारी दर और श्रमिक-जनसंख्या अनुपात में सुधार हुआ है और बेरोजगारी दर में गिरावट आयी है। यानी आबादी के अनुपात में काम को इच्छुक लोगों की आबादी तो बढ़ी ही है साथ ही काम को इच्छुक आबादी में काम हासिल करने वालों का प्रतिशत भी बढ़ा है और इसीलिए बेरोजगारी दर घट गयी है। रिपोर्ट दावा करती है कि बीते 6 वर्ष (2017-18 से 2022-23) में श्रम बल भागीदारी दर 50 प्रतिशत से क्रमशः बढ़कर लगभग 58 प्रतिशत हो गयी है। यानी काम चाहने वालों की संख्या बढ़ गयी है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि इन्हीं 6 वर्षों में आबादी में काम पाने वालों का प्रतिशत 35 से बढ़कर 41 हो गया है। पहले जहां महज 25 प्रतिशत महिलायें काम को इच्छुक थी आज 37 प्रतिशत महिलायें काम को इच्छुक हैं व पहले महज आबादी की 18 प्रतिशत महिलायें कार्यरत थीं जो बढ़कर आज 27 प्रतिशत हो गयी हैं।
समाज में जरा भी सक्रिय व्यक्ति बीते कुछ वर्षों में बेरोजगारी की बढ़ती भयावहता को स्पष्ट रूप से महसूस कर सकता है। अपने अनुभव से समझ सकता है कि आज काम पाना पहले से खासा कठिन हो गया है। मोदी काल की नोटबंदी व बाद में कोविड के नाम पर लगे लॉकडाउन ने रोजगारों पर जो बुरा असर छोड़ा था उसकी भरपायी तो दूर स्थिति साल दर साल और बुरी हो रही है। फिर सरकारी रिपोर्ट ऐसे उलटे दावे पेश कैसे कर दे रही है। इस बात का जवाब दरअसल आंकड़ों को गहराई में उतर कर देखने पर स्पष्ट रूप से मिल जाता है कि बाजीगरी कहां की गयी है।
रिपोर्ट बताती है कि बीते 5 वर्षों में अनियमित मजदूरी में लगे लोगों की संख्या 22 प्रतिशत से 24 प्रतिशत, नियमित मजदूरी में लगे लोगों की संख्या 24 प्रतिशत से 21 प्रतिशत व स्वरोजगार में लगे लोगों की संख्या 52 प्रतिशत से बढ़कर 57 प्रतिशत हो गयी है। यानी मजदूरी पर काम करने वालों की संख्या गिरी है और अपना काम-धंधा करने वालों की संख्या बढ़ी है। महिलाओं की भागीदारी स्वरोजगार में 5 वर्षों में 53 प्रतिशत से बढ़कर 65 प्रतिशत हो गयी। जबकि इसी काल में महिलाओं में नियमित वेतन वाले काम में 22 प्रतिशत से गिरकर 16 प्रतिशत व अनियमित मजदूरी वाले काम में 25 प्रतिशत से गिरकर 19 प्रतिशत रह गयी।
यानी रिपोर्ट के अनुसार सारी रोजगार वृद्धि स्वरोजगार में है। महिलाओं के मामले में जो 65 प्रतिशत महिलायें स्वरोजगार में लगी हैं उनमें 28 प्रतिशत ही अपने मालिकाने के काम में मजदूर की तरह लगी है। शेष 38 प्रतिशत घरेलू उद्योग में सहायक भर हैं। जाहिर है ये सहायक अधिकतर अवैतनिक होते हैं। अतः बाजीगरी स्पष्ट है कि एक बड़ी आबादी जो दरअसल बेरोजगार है उसे स्वरोजगार में मानकर मौसम गुलाबी कर लिया गया है।
हालांकि रिपोर्ट की गहराई में जाने पर यह सच्चाई भी सामने आती है कि बीते 5 वर्षों में महंगाई 30 प्रतिशत बढ़ी है जबकि मजदूरी इसकी तुलना में स्वरोजगार व नियमित वेतन दोनों के मामले में कम बढ़ी है। यानी वास्तविक मजदूरी में गिरावट हुई हैं।
बेरोजगारी दर को रिपोर्ट महज 3.2 प्रतिशत घोषित कर इसमें सुधार दिखाती है। युवा पढ़े-लिखों में भी बेरोजगारी दर 10 प्रतिशत दिखा सुधार बताया गया है।
उक्त रिपोर्ट के आंकड़ों को मुंह चिढ़ाते आंकड़े विश्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों में सामने आये हैं। इसके अनुसार 2022 में भारत में युवा बेरोजगारी दर 23.22 थी जो पाकिस्तान (11.3 प्रतिशत), बांग्लादेश (12.9 प्रतिशत), चीन (13.2 प्रतिशत), भूटान (14.4 प्रतिशत) से काफी अधिक थी।
दरअसल देश में बेरोजगारी के हालात विस्फोटक स्थिति तक खतरनाक हो चुके हैं। बीते 3-4 दशकों की उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां इस भयावह बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार रही हैं। मोदी काल में जिस तरह श्रम कानूनों में पूंजीपरस्त बदलाव हुए हैं उसने बेकारी की समस्या और गम्भीर बनाई है। ऐसे में नौजवान अभी बारम्बार सड़कों पर उतर रोजगार मांग रहे हैं। आने वाले दिनों में रोजगार के लिए वे कहीं बड़े संगठित संघर्ष में उतरेंगे। मोदी सरकार की ये बाजीगरी भरी रिपोर्ट नौजवानों के बढ़ते कदमों को नहीं रोक सकती।