नवउदारवाद और काम के बढ़ते घण्टे

    भारत <span style="font-size: 13px;">में</span> अपने अनुभव से हम जानते हैं कि 80 के दशक के बाद से यहां नवउदारवादी नीतियों के जरिये पूंजी द्वारा श्रम पर हमला बोला गया। मजदूरों द्वारा हासिल किये गये एक-एक अधिकार को कानूनी तौर पर या व्यवहारिक तौर पर छीना जाने लगा। इन्हीं अधिकारों में से एक था- काम के 8 घण्टे। अब काम के घण्टे व्यवहारतः भारत के सभी औद्योगिक क्षेत्रों में बढ़ाने एवं 10 से 12-14 तक पहुंचाने के प्रयास किये जा रहे हैं।<br />
    यह केवल भारत की ही तस्वीर नहीं है बल्कि विकसित साम्राज्यवादी मुल्कों में भी यही परिघटना देखने को मिल रही है। अगर अमेरिका की बात की जाय तो 1970 से 2000 के बीच यहां औसत काम के घण्टे प्रति सप्ताह 1.6 घण्टे बढ़ चुके है। दूसरे शब्दों में अमेरिकी मजदूर प्रति वर्ष एक हफ्ते से अधिक अतिरिक्त काम करने को मजबूर हुए हैं। मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में जहां पार्ट टाइम काम खासा कम है। यह अन्तर 1975 से 2000 के बीच 2 हफ्ते प्रति वर्ष से अधिक है। अर्थात मैन्युफैक्चरिंग मजदूर 1975 की तुलना में 2000 में 2 हफ्ते से अधिक अतिरिक्त काम प्रतिवर्ष कर रहे हैं।<br />
    ब्रिटेन में वार्षिक काम के घण्टे 80 के दशक में करीब 70 घण्टे प्रतिवर्ष बढ़े हालांकि 90 के दशक में ये गिरने की ओर गये हैं। कनाडा में 1991 से 1999 के बीच काम के घण्टे 13 घण्टे प्रति वर्ष बढ़े है। काम के कम घण्टों के लिए मशहूर जर्मनी, फ्रांस में औसत वार्षिक काम के घण्टे 80 व 90 के दशक में गिर रहे थे पर 2003 से 2008 के बीच यह गिरावट रुक गयी है या वास्तव में यहां भी काम के घण्टे बढ़ने की ओर गये हैं।<br />
    औसत वार्षिक काम के घण्टे में चूंकि पार्ट टाइम काम करने वाले मजदूर भी होते हैं अतः यह असलियत को काफी कुछ छिपा जाती है। अगर पूरे समय काम करने वालों के काम के घण्टे देखें तो जर्मनी में 36-39 घण्टे प्रति सप्ताह काम करने वाले मजदूरों का प्रतिशत 1995 के 53 प्रतिशत से गिरकर 2008 में 21 प्रतिशत रह गया जबकि 40 घण्टे काम करने वालों का प्रतिशत इसी दौरान 31 प्रतिशत से बढ़कर 46 प्रतिशत हो गया।<br />
    अगर बात प्रति व्यक्ति काम के औसत घण्टे (यानि काम करने वाले और बेरोजगार या निर्भर सभी व्यक्तियों का औसत) की करें तो यह बदलाव और सही तरीके से नजर आता है। अमेरिका में 1985 से 2000 के बीच प्रति व्यक्ति औसत काम के घण्टे 1985 से 2000 के बीच 18 प्रतिशत बढ़ गये हैं। कनाडा में इतनी ही वृद्धि 1970 से 2008 के बीच हुई है। ब्रिटेन में यह 1980 से 2008 के बीच स्थिर रहा जबकि स्वीडन में भी 1985 से 2008 के बीच यह स्थिर रहा। OECD के अनुसार 1990 के दशक में काम के घण्टे बढ़ना कुछ अपवाद देशों के इतर सब जगह देखा गया।<br />
    केवल फ्रांस और जर्मनी में ही प्रति व्यक्ति काम के ये घण्टे 90 के दशक में गिरते नजर आये। परन्तु यह गिरावट 90 के दशक का मध्य आते स्थिर हो गयी और 1995 से 2008 के बीच प्रति व्यक्ति काम के घण्टे कमोबेश स्थिर हैं।<br />
    इसी प्रक्रिया को देखने का एक अन्य तरीका एक व्यक्ति के बतौर एक परिवार के काम के घण्टों में बदलाव को देखना है। अमेरिका में 1970 से 2000 के बीच एक शादीशुदा जोड़े के संयुक्त काम के घण्टे 52.2 घण्टे से बढ़कर 62.1 घण्टे प्रति सप्ताह हो चुके हैं।<br />
    न केवल काम के औसत घण्टे में वृद्धि हो रही है बल्कि एक मजदूर से उसके जीवन में काम के वर्षो में भी बढ़ोत्तरी दिखायी दे रही है। लगभग सभी देशों में रिटायर होने की उम्र बढ़ाकर मजदूर के काम के वर्षो को बढ़ाया जा रहा है।<br />
    इसी के साथ आज के नवउदारवादी दौर में काम के समय को लोचदार बनाया जा रहा है। मजदूरों के सामूहिक काम की शिफ्टें रद्द कर अलग-अलग व्यक्तियों की उत्पादन की जरूरत के अनुसार डयूटी टाइम अलग-अलग बनाये जा रहे हैं। इसके चलते ओवर टाइम काम कराने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी है। कुछ जगहों जैसे ओन्ट्रियो में हफ्ते में 60 घण्टे काम पर विशेष भत्ता घोषित है तो फ्रांस में भी ओवरटाइम का बढ़ते जाना 35 घण्टे हफ्ते के काम को बेमानी बनाता जा रहा है।<br />
    ड्यूटी समय को सामूहिक से अधिकाधिक विभाजित करते जाने के साथ ही मजदूरों के लिए लागू की जा रही कल्याणकारी नीतियों को वापस लिया जा रहा है। साथ ही बाजार व उत्पादन की जरूरत के नाम पर आबादी के बीच काम के घण्टों के वितरण को अलग-अलग बनाया जा रहा है।<br />
    ब्रिटेन में यह गैरबराबरी खास तौर पर दृष्टव्य है। एक तिहाई ब्रिटिश मजदूर 2008 में 30 से 40 घण्टे प्रति सप्ताह काम करते थे। 30 प्रतिशत पुरुष 45 घण्टे प्रति सप्ताह से ज्यादा काम करते थे जबकि 12 प्रतिशत महिलायें 16 घण्टे प्रति सप्ताह से कम काम करती थी। जर्मनी में 46 प्रतिशत पुरुष मजदूर 2008 में 40 घण्टे प्रति सप्ताह काम करते थे। परन्तु 1995 से 2008 के बीच 41 से 48 घण्टे प्रति सप्ताह काम करने वालों का प्रतिशत दो गुना हो गया। इसी दौरान 20 घण्टे प्रति हफ्ते से कम काम करने वाली महिलाओं की संख्या 60 प्रतिशत बढ़ गयी। अमेरिका में 1970 से 2000 के बीच 40 घण्टे प्रति सप्ताह काम करने वालों का प्रतिशत 41 प्रतिशत से गिरकर 48 प्रतिशत रह गया। जबकि 50 घण्टे प्रति सप्ताह काम करने वालों का प्रतिशत इसी दौरान 21 प्रतिशत से बढ़कर 26.5 प्रतिशत हो गया। फ्रांस और स्वीडन में काम के घण्टे समांग वितरित हैं। लेकिन फ्रांस में भी 40 घण्टे सप्ताह से अधिक काम करने वालों का प्रतिशत 2002 से 2008 के बीच 20 प्रतिशत से बढ़कर 35 प्रतिशत हो गया।<br />
    काम के घण्टों में दुनिया के पैमाने पर वृद्धि हो रही है। तीसरी दुनिया के भारत-चीन सरीखे देशों में यह वृद्धि अब 12-14 घण्टे तक पहुंच गयी है। ढे़रों गरीब देश तो सस्ते श्रम की मनमानी लूट के अड्डे बने हैं। कम्बोडिया, बांग्लादेश सरीखे देश इस मामले में अग्रणी हैं। नवउदारवादी नीतियों को 70 के दशक के बाद से ही एक-एक कर दुनिया भर के देशों में लागू किया गया। इन नीतियों का एक ही मंतव्य था कि पूंजी के मुनाफे की दर को मजदूर वर्ग पर हमला बोलकर बढ़ाया जाए। <br />
    काम के घंटों में बढ़ोत्तरी से पूंजीपति वर्ग बेहद खुश है और वह इसे और बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। पूंजीपतियों की संस्थायें आई.एम.एफ., यूरोपीय कमीशन आदि इस बात को इस रूप में अभिव्यक्त करती हैं कि श्रम उपयोगिता की दर(Rate of Labour Utilization) बढ़ गयी है। <br />
    काम के घण्टे बढ़ने का सीधा तात्पर्य है कि मजदूर वर्ग के शोषण में वृद्धि। कोई मजदूर अपने काम के घण्टों को दो हिस्सों में बांट सकता है। पहला हिस्सा जिसमें वह अपनी मजदूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है आवश्यक श्रम काल कहा जाता है तो दूसरा हिस्सा जिसे उसे पूरी तरह मालिक के लिए काम करना पड़ता है, अतिरिक्त श्रम काल कहा जाता है। यह अतिरिक्त श्रमकाल का बगैर भुगतान काम ही मजदूर का पूंजी द्वारा शोषण कहलाता है। यह अतिरिक्त श्रम काल जितना लम्बा होगा शोषण की दर भी उतनी ही अधिक होगी। <br />
    इसीलिए आज जब मजदूरों के काम के घण्टे बढ़ाये जा रहे हैं तो उसके शोषण की दर बढ़ रही है। पूंजी का मुनाफा बढ़ रहा है। <br />
    मजदूर वर्ग की यूनियनों में आज बड़ा हिस्सा वैश्विक तौर पर व्यवस्थापरस्त संशोधनवादी यूनियनों का है। ऐसे में पूंजी द्वारा श्रम पर बोले जा रहे इस हमले के वक्त उन्होंने पूंजी के आगे निर्लज्ज आत्मसमर्पण कर दिया है। बाजार व प्रतियोगिता के पूंजी के तर्क को उन्होंने भी अपना लिया है। काम के घण्टों का देश में ही नहीं अलग-अलग कम्पनियों तक में अलग-अलग होना, एक कम्पनी में काम की शिफ्टों को अलग-अलग मजदूरों के लिए अलग बनाते जाना, वेतन इतना कम रखना कि ओवरटाइम मजबूरी बन जाए आदि चीजों ने मजदूरों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत को कमजोर बनाया है। हास्यास्पद हालत तो तब हो जाती है जब खुद यूनियनें ही ओवरटाइम कराने, रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने की वकालत करने लगती हैं।<br />
    काम के घण्टों के बढ़ने का असर काम करने को उत्सुक बेरोजगार आबादी की संख्या में भी बढ़ोत्तरी के रूप में दिखायी देता है। आज दुनिया के पैमाने पर बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है। हालिया विश्व आर्थिक संकट ने इस आबादी में तेजी से इजाफा किया है। पूर्व की कई मंदियों में अक्सर बेरोजगार आबादी के आक्रोश से बचने के साथ उत्पादन गिराने की मजबूरी के लिए काम के घण्टे घटाने को शासक वर्ग मजबूर हुआ है परन्तु इस मंदी में मजदूर वर्ग के प्रतिरोध की कमजोर स्थिति का लाभ उठा वह छंटनी तो कर रहा है पर काम के घण्टे कम नहीं कर रहा है। बजाए इसके वह मजदूरों को वेतन रहित ब्रेक दे रहा है। <br />
    काम के घण्टे कम कराने का संघर्ष दुनिया के मजदूरों का ऐतिहासिक संघर्ष रहा है। ‘8 घंटे काम के’ नारे ने तो दुनिया के मजदूरों को अनगिनत बार सड़कों पर उतारा। आज पूंजी मजदूरों द्वारा छीने हक को कानूनी तौर पर व्यवहार में छीन रही है। ऐसे में काम के घंटे कम कराने की लड़ाई मजदूर वर्ग की एक राजनैतिक लड़ाई है। इस लड़ाई को मजदूरों को पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ की मूल लड़ाई के साथ लड़ना होगा। 

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