बोया पेड़ बबूल का....

आजकल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि संघ तरक्की नहीं कर रहा है वह तो मोदी काल में पूंजीपतियों की दौलत की तरह दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की कर रहा है। उसका जहरीला नफरती साम्प्रदायिक अभियान पूरे देश में अपना असर दिखा रहा है। यहां बात सरसंघचालक की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की हो रही है। उनकी प्रतिष्ठा को हर ऐरा-गैरा उनका सहयोगी ही लात लगाता दिख रहा है। 
    
संभल प्रकरण के बाद सरसंघचालक ने अपने अनुयाइयों को जब यह उपदेश दिया कि उन्हें हर मस्जिद-दरगाह के नीचे मंदिर ढूंढने के अभियान में नहीं जुट जाना चाहिए। उनका यह संदेश हर जगह शिवलिंग तलाशने में जुटे उनके अनुयाइयों के साथ-साथ हिन्दू धर्म के कई धर्माचार्यों को पसंद नहीं आया। फिर क्या था हर कोई सरसंघचालक की लानत-मलानत करने में जुट गया। 
    
अखिल भारतीय संत समिति ने भागवत के बयान पर नाखुशी दिखाते हुए कहा कि उन्हें ऐसे मामले हिन्दू संतों के लिए छोड़ देने चाहिए। उत्तराखण्ड में ज्योतिर्मठ पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरा नन्द सरस्वती ने भी भागवत की आलोचना करते हुए उन पर राजनैतिक सुविधा के अनुरूप बयानबाजी का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि जब उन्हें सत्ता चाहिए थी तो वे मंदिरों की बात करते घूमते थे। अब उनके पास सत्ता है तो वे दूसरों को मंदिरों की तलाश न करने की सलाह दे रहे हैं। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ही पुरातन नष्ट किये हिन्दू मंदिरों की सूची तैयार कर उसका पुरातत्व विभाग से सर्वेक्षण करने की सलाह देने में अग्रणी थे। हिन्दू दर्शन-संस्कृति की समझ रखने का दावा करने वाले डिजिटल प्लेटफार्म जयपुर डायलाग्स ने कहा कि संघ प्रमुख हिन्दुओं के प्रवक्ता नहीं हैं और हिन्दू एक-एक इंच जमीन हासिल करके रहेंगे। यहां तक कि संघ के साप्ताहिक मुखपत्र पांचजन्य और आर्गनाइजर ने भी भागवत के बयान की आलोचना कर दी। पांचजन्य के सम्पादक हितेश शंकर ने प्राचीन मंदिरों की खोज के लिए जगह-जगह चल रहे खुदाई अभियान का बचाव करते हुए उसे हिन्दू गौरव रक्षा का काम बता दिया। स्वामी रामभद्राचार्य भी भागवत की आलोचना में कूद पड़े। 
    
हद तो तब हो गयी जब कुछ छुटभैय्ये मोहन भागवत की आलोचना करते-करते उनकी तुलना में योगी आदित्यनाथ को श्रेष्ठ बताने लग गये। गौरतलब है कि उ.प्र. के मुख्यमंत्री खुलेआम मुस्लिमों से हर वह मस्जिद त्यागने का आह्वान करते नजर आ रहे हैं जिसके नीचे मंदिर होने का आरोप लगाया गया है। एक संघ प्रशंसक मृत्युंजयकुमार ने तो मोहन भागवत से उनके पद से इस्तीफा तक मांग लिया। 
    
सरसंघचालक की इस लानत-मलानत को लेकर कई तरह के कयास लगाये जाने लगे। कुछ लोग इसे सरसंघचालक को पद से हट अगला सरसंघचालक घोषित करने का संघ के भीतर दबाव मानने लगे। कुछ इसे सरसंघचालक को मोदी की आलोचना का मिला इनाम बताने लगे। कुछ और आगे बढ़कर संघ के भीतर सब कुछ ठीक न चलने का इशारा करने लगे। 
    
दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव में हारते-हारते बची संघ-भाजपा लॉबी चुनाव के बाद तीव्र साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राह पर लगातार चल रही है। फिलहाल वह एक साथ गौ हत्या, लव जिहाद, लैंड जिहाद, मस्जिदों में शिवलिंग/मंदिर तलाशने आदि सभी मुद्दों को अलग-अलग जगह एक साथ उठा रही है। उसे कई जगह दंगे कराने में सफलता भी मिल रही है। मंदिर होने के दावे के साथ मस्जिदों को निशाने पर लेने पर साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में वह अधिक सफल हो रही है। इसीलिए एक के बाद एक कर वह अदालतों का सहारा ले हर मस्जिद को खोदने के अभियान में जुटी है। 
    
संघी लॉबी को अब यह अधिकाधिक समझ में आ रहा है कि बेकारी-गरीबी-महंगाई से त्रस्त जनता को अगर उसे अपने साथ रखना है तो निरंतर साम्प्रदायिक वैमनस्य का माहौल उसके चारों ओर कायम रखना होगा। हर मस्जिद की खुदाई इस तरह का माहौल बनाने में उसे मददगार नजर आ रही थी। वैसे भी अतीत की इतनी मनगढन्त कहानियां मुगल शासकों द्वारा मंदिर विध्वंस कर मस्जिद बनाने की इनकी कार्यकर्ताओं को इनके द्वारा सुनाई गयी थीं कि ये कार्यकर्ता हर मस्जिद खोदने पर उतारू हैं। 
    
इन हालातों में फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट के ऐसे सभी मामलों पर रोक के आदेश से लम्पट संघी वाहिनी कुछ समय के लिए शांत हो गयी थी। उ.प्र. की योगी सरकार तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी ठेंगा दिखा जगह-जगह वैसे ही खुदाई कर रही है जैसे वह सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखा बुलडोजर चला रही है। मुख्यमंत्री हर मंदिर मुक्त कराने के दावे कर रहे हैं। जाहिर है कि वे किसी भी कीमत पर अपना अभियान रोकना नहीं चाहते। 
    
ऐसे वक्त में सरसंघचालक का संघी अभियान के विपरीत वक्तव्य संघी कार्यकर्ताओं को निश्चय ही अजीब लगना था। फिर क्या था संघी लम्पट अपने ही आका की लानत-मलानत में जुट गये। संघ ने उनके दिलों में जो बबूल के बीज रोपे थे उससे कांटे ही उगने थे और वे कांटे मोहन भागवत को भी चुभ गये। 
    
अपनी लानत मलानत के बाद भागवत की चुप्पी बताती है कि या तो उन्होंने केवल संघ की संत छवि-अच्छी बात करने वाली छवि दिखाने के लिए ये बातें की थीं उनका लक्ष्य संघी लम्पटों के अभियान को रोकना नहीं था। या फिर उन्होंने गलती से ये बातें कर दीं जिन्हें आलोचना के बाद उन्होंने सुधार लिया है। 
    
कुल मिलाकर संघ के भीतर सत्ता संघर्ष या संघ-भाजपा के बीच टकराव अभी फासीवादी दस्तों के भीतर का संघर्ष है जिसे वे सुलटा ले रहे हैं। ऐसे में इस उठापटक का देश की जनता के लिए यही अर्थ है कि आने वाले वक्त में हर मस्जिद की खुदाई, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य बढ़ाने, जनता को बुनियादी मुद्दों से दूर रखने का इनका जहरीला अभियान जारी रहने वाला है। शीर्ष अदालत भी इन्हें इस जहरीले अभियान से रोकने का माद्दा खो चुकी है। विपक्षी दल तो इस अभियान के आगे हिंदू वोट खोने के भय से आत्मसमर्पण को मजबूर हैं। उनमें इनसे टकराने का माद्दा ही नहीं है। 
    
ऐसे में मजदूर-मेहनतकश जनता ही संघ-भाजपा के जहरीले फासीवादी अभियान को धूल चटा सकती है। हर मस्जिद की खुदाई के बरक्स अपनी रोटी-रोजगार के मुद्दे हिन्दू-मुस्लिम मेहनतकशों की एकता के जरिये सामने ला ऐसा किया जा सकता है। इनका लगातार साम्प्रदायिक माहौल कायम करने का अभियान इनके इस भय से उपजा है कि इनके 11 वर्षों के शासन से त्रस्त जनता कहीं वास्तविक मुद्दों पर इन्हें घेरना न शुरू कर दे। जरूरत है कि इनके इस भय को वास्तविकता में बदल दिया जाए। 

 

यह भी पढ़ें :-

1. कौन कौवा, कौन गरुड़

आलेख

/trump-ke-raashatrapati-banane-ke-baad-ki-duniya-ki-sanbhaavit-tasveer

ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है। 

/bhartiy-ganatantra-ke-75-saal

आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं? 

/takhtaapalat-ke-baad-syria-mein-bandarbaant-aur-vibhajan

सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।

/bharatiy-sanvidhaan-aphasaanaa-and-hakeekat

समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।    

/syria-par-atanki-hamalaa-aur-takhtaapalat

फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।