आंकड़े जितने मासूम और सीधे-सादे दिखायी देते हैं उतने होते नहीं हैं। आंकड़ों का खेल एक ऐसा खेल है जो किसी अच्छे पढ़े-लिखे आदमी को भी दिवाली के घनचक्कर पटाखे की तरह घुमा-घुमा कर नचा सकता है। मसलन जनसंख्या के आंकड़े को ही लीजिये।
आंकड़ों के हिसाब से भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है। 2021 में भारत में जनगणना नहीं हुयी है फिर भी जो जनसंख्या वृद्धि दर है उसके हिसाब से मान लिया गया है। यह सच है। परन्तु कोई भी वैज्ञानिक रुझान वाला व्यक्ति जनसंख्या के बजाय जनसंख्या घनत्व (प्रति वर्ग किमी में कितने व्यक्ति रहते हैं) पर जायेगा। क्योंकि भारत की आबादी ज्यादा है तो इसका भू-भाग भी अत्यन्त विशाल है। यही बात चीन पर लागू हो जाती है जिसका क्षेत्रफल भारत के क्षेत्रफल से लगभग डेढ़ गुना ज्यादा है।
भारत का जनसंख्या घनत्व के हिसाब से स्थान तीसवां है जबकि चीन का पिच्चासीवां (149 प्रति वर्ग किमी) है। सिंगापुर (तीसरा), दक्षिण कोरिया (पच्चीसवां) आदि भारत से ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले देश हैं। यानी भारत की जनसंख्या भारत की समस्या के लिए वैसे दोषी नहीं है जैसा शासक बताते हैं या पाठ्य पुस्तकों में भारत की गरीबी, बेरोजगारी आदि के लिए जनसंख्या को ही कारण बताया जाता है। माल्थस के झूठ को पीढ़ी दर पीढ़ी परोसा जाता है।
ठीक यही बात सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुसार किसी देश के दुनिया में स्थान के संदर्भ में भी लागू होती है। जैसा कि मोदी एण्ड कम्पनी का हल्ला है भारत पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है और शीघ्र ही तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जायेगा। जनसंख्या घनत्व की तरह यदि अर्थव्यवस्था का आंकलन प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी पर केपिटा) के आधार पर देखा जाए तो ज्यादा सही बात सामने आती है।
प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के हिसाब से भारत का स्थान 120वां (2,375 डालर) है। जबकि लक्जमबर्ग का स्थान पहला (125,935 डालर), संयुक्त राज्य अमेरिका का आठवां (74,554 डालर), जर्मनी का सत्रहवां (48,429 डालर) चीन का बहत्तरवां (12,604 डालर) है। श्रीलंका, फिजी, इण्डोनेशिया, सूरीनाम, ईरान जैसे देश भारत से कहीं ऊपर हैं।
सिंगापुर कमाल का देश है। दुनिया में जनसंख्या घनत्व के अनुसार उसका स्थान तीसरा (8,250 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के अनुसार दूसरा (82,619 डालर) है। सिंगापुर तो माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की ढंग से नींव खोद डालता है। कोई माल्थस को उसकी कब्र से बाहर निकालकर उसे सच दिखलाये।
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।
इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी।
इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।