एस.सी./एस.टी. - आरक्षण के भीतर आरक्षण क्यों न्यायसंगत है?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी आरक्षण के भीतर विभिन्न जातियों के लिए उपवर्गीकरण की छूट सम्बन्धी फैसले के बाद इसके पक्ष व विपक्ष में काफी चर्चायें हो रही हैं। इसके विरोध में भारत बंद तक बुलाया जा चुका है। यहां कुछ प्रश्नों के जरिये यह समझने का प्रयास किया गया है कि क्यों अनुसूचित जाति, जनजाति में आरक्षण के उपवर्गीकरण का निर्णय उचित है और इन जातियों की सबसे वंचित जातियों के हित में है व इसीलिए इसका समर्थन किया जाना चाहिए।

प्र.- सुप्रीम कोर्ट का निर्णय क्या था? क्या इससे आरक्षण खत्म होगा?

उ.- सुप्रीम कोर्ट की 7 सदस्यीय बेंच ने 6-1 के बहुमत से 2004 के अपनी ही एक अन्य बेंच के निर्णय को पलटा। वर्तमान निर्णय के अनुसार 2004 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण के भीतर उपवर्गीकरण पर लगी रोक को अदालत ने हटा दिया है। अब केन्द्र व राज्य सरकारें उचित तथ्यों पर तार्किक तरीके से (मनमाने ढंग से नहीं) एससी-एसटी आरक्षण के लाभ से वंचित रही जातियों को चिन्हित कर उनके लिए उपकोटा तय कर सकती हैं। इस तरह यह निर्णय इन श्रेणियों में पीछे छूट गयी जातियों को लाभ पहुंचाने का काम करेगा। हां 4 न्यायाधीशों ने निर्णय में क्रीमीलेयर बनाने की टिप्पणी की है पर यह प्रश्न निर्णय का हिस्सा नहीं है। सरकार ने भी क्रीमी लेयर बनाने से इंकार किया है।
    
जहां तक इस निर्णय से आरक्षण खत्म होने की बात है तो ऐसा नहीं है यह निर्णय आरक्षण को अधिक तार्किक व न्यायसंगत ही बनाता है। 

प्र.- क्या उक्त मामले हेतु दलित जातियों की ओर से कोई मांग नहीं थी?

उ.- नहीं, ऐसा नहीं है। विभिन्न राज्य सरकारों ने 80 के दशक से ही वंचित दलित जातियों की मांग पर अलग आरक्षण की व्यवस्था की थी। पंजाब, हरियाणा, बिहार, आंध्र प्रदेश में ये व्यवस्था की गयी थी पर 2004 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह व्यवस्था रद्द हो गयी थी। वर्तमान मामले में भी आंध्र मामले पर निर्णय आया है। इस हेतु वंचित जातियों ने काफी लंबा संघर्ष किया है। पर चूंकि ये वंचित हैं इसलिए इनकी मीडिया से लेकर राजनीति में मुखर आवाज नहीं है। जबकि अब तक आरक्षण का लाभ उठा रही जातियां मुखर व राजनीति में अग्रणी हैं इसलिए उनके विरोध के स्वर भी अधिक प्रचारित हो रहे हैं। 

प्र.- एससी श्रेणी में आरक्षण का लाभ लेने वाली व उससे वंचित जातियों की क्या स्थिति है उनमें कितना अन्तर है?

उ.- पंजाब में आरक्षण का ज्यादातर लाभ रविदासी जाति को मिला है व वाल्मिकी जाति इससे वंचित रही है। सामाजिक हैसियत में भी रविदासी, बाल्मिकी से काफी आगे रहे हैं। शिक्षा में जहां ग्रेजुएटों की संख्या रविदासी में 3.05 प्रतिशत है वहीं वाल्मिकी में यह संख्या महज 1.26 प्रतिशत है। 
    
बिहार में धोबी जाति में जहां ग्रेजुएट 2.57 प्रतिशत हैं वहीं मुसहर जाति में मात्र 0.05 प्रतिशत। तेलंगाना-आंध्र में मलिगे काफी वंचित रहे हैं। तमिलनाडु में चकलियार, अरूंथथियार वंचित दलित जातियां रही हैं। 
    
इस तरह स्पष्ट है कि दलित जातियों में आज काफी अंतर पैदा हो चुका है व आरक्षण का लाभ कुछ ही जातियों को मिला है व शेष जातियां आज भी काफी पिछड़ी स्थिति में हैं। 

प्र.- क्या आरक्षण के दलित, महादलित आदि में विभाजन से एससी समूह की एकता टूट जायेगी?

उ.- एससी समूह में ऐसी कोई वास्तविक एकता आज मौजूद ही नहीं है। आगे बढ़ी जातियों और पीछे छूट गयी जातियों से बने इस समुदाय में एकता नहीं हो सकती। हां आगे बढ़ी जातियों के राजनीतिक प्रतिनिधि बाकी का वोट हासिल करने के लिए एकता की बातें करते हैं। दरअसल इस समुदाय में भी वर्ग विभेदीकरण के चलते एक पूंजीपति वर्ग पैदा हो गया है वही राजनीति में भी अग्रणी है। वह बाकी मेहनतकश दलितों का मित्र नहीं है। दलित मेहनतकशों के बीच एकता के लिए जरूरी है कि आरक्षण का लाभ सभी जातियों को मिले जो वर्गीकरण से ही संभव है। अतः एकता ज्यादा बेहतर समान अवसर मिलने पर ही कायम हो पायेगी। 

प्र.- फिर दलित संगठन बसपा आदि इस निर्णय का विरोध क्यों कर रहे हैं। 

उ.- जैसा कि पहले कहा गया कि एससी में कुछ सम्पन्न हो चुकी जातियां ही राजनीति में अग्र्रणी हैं। इस वर्गीकरण से इन जातियों को मिली सहूलियतें कम होंगी। राजनीति में यही जातियां मुखर हैं इसलिए इनके ही नेता-सांसद-विधायक हैं। अब अपना आधार खिसकने के भय से ये निर्णय का विरोध कर रहे हैं। क्योंकि आरक्षण का लाभ जैसे ही दबी जातियों को मिलेगा, उनमें भी राजनीतिक नेतृत्व व गोलबंदी पैदा होने लगेगी जो मौजूदा संगठनों के आधार को कमजोर करेगी। 

प्र.- क्या क्रीमीलेयर को भी एससी/एसटी में न्यायपूर्ण माना जाना चाहिए? क्या यह लागू होने पर ज्यादातर पद रिक्त नहीं रह जायेंगे?

उ.- जैसे आरक्षण की तार्किक परिणति उसके भीतर आरक्षण है वैसे ही क्रीमीलेयर भी है। पर एस सी में अभी क्रीमीलेयर बेहद कम हैं और वह भी कई दफे उत्पीड़न का शिकार होती हैं। अतः एस सी में क्रीमीलेयर पिछड़ी जातियों के आधार पर तय नहीं की जानी चाहिए। वक्त के साथ यह क्रीमीलेयर अधिक स्पष्टतः सामने आयेगी। 
    
यहां ज्यादा उचित यही होगा कि क्रीमीलेयर तय भी की जाए तो उसे सामान्य श्रेणी में डालने के बजाय एस सी में ही कम आरक्षण वरीयता में रखा जाए ताकि अगर बाकी श्रेणियों में पद रिक्त रह जायें तो उन्हें इनसे भरा जा सके। 
    
वर्तमान में पिछड़े वर्ग की तरह क्रीमीलेयर लागू होने से इसकी संभावना पैदा होगी कि ढेरों पद एस सी में रिक्त रह जायें। अतः अभी फिलहाल एस सी श्रेणी में क्रीमीलेयर कुछ खास जरूरी नहीं है। साथ ही यह आरक्षित सीटें ‘कोई योग्य प्रत्याशी नहीं मिला’ दिखाकर सामान्य श्रेणी में लाने का जरिया बन सकती हैं। आरक्षण को लागू न करने की ऐसी तमाम साजिशें की जाती रही हैं। इन्हें रोकने के लिए संघर्ष किया जाना चाहिए पर इसके लिए वंचित जातियों को अधिक सहूलियतें देने से नहीं रोका जाना चाहिए।

प्र.- आज उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में आरक्षण बेमानी हो चुका है अतः आरक्षण पर ज्यादा विवाद नहीं होना चाहिए?

उ.- हां, यह सच है कि सरकारी नौकरियां, सरकारी शिक्षा के अवसर घटने के साथ आरक्षण का महत्व घटता जा रहा है। इस हेतु निजी क्षेत्र में भी आरक्षण के प्रावधानों के लागू होने का समर्थन किया जाना चाहिए। साथ ही सबके लिए रोजगार-शिक्षा का संघर्ष लड़ा जाना चाहिए। पर इस बहाने आरक्षण को खारिज करने के किसी भी कदम का विरोध किया जाना चाहिए।

प्र.- क्या आरक्षण मात्र से जाति व्यवस्था समाप्त हो जाएगी?

उ.- नहीं, आरक्षण पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में एक सुधार की कार्यवाही है। यह जातीय भेदभाव व फर्क को कमजोर करने में मदद करती है। अतः इसका समर्थन किया जाना चाहिए। पर जाति व्यवस्था के समूल नाश के लिए काफी व्यापक कदमों की आवश्यकता होगी जो मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था नहीं उठा सकती। यह केवल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होने वाली पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति ही उठा सकती है। समाजवाद ही एक झटके में जाति व्यवस्था के समूल नाश की राह खोल सकता है।   

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।