रुद्रपुर/ नगर निकाय चुनाव उत्तराखण्ड में घोषित हो चुके हैं। 23 जनवरी को होने वाले इन चुनावों के लिए सभी प्रमुख राजनैतिक दल ताल ठोंक चुके हैं। उत्तराखण्ड के 100 से ज्यादा नगर निगम-नगर पंचायत के लिए होने वाले चुनाव में लोकसभा-विधानसभा चुनाव की तरह ही पैसे-पावर का खुला खेल खेला जा रहा है। पानी की तरह बहता पैसा, झूठे वायदे, बड़े-बड़े नेताओं का प्रचार सब इसी बात को दिखा रहे हैं कि कैसे छोटे स्तर के चुनावों को भी धनाढ्य लोग अपने पाले में मोड़ लेते हैं।
इन नगर निगमों-नगर पंचायतों में रहने वाली अधिकांश आबादी मजदूरों-मेहनतकशों की है। पर उनके जीवन से जुड़े मुद्दे ही चुनाव में गायब होना दिखाता है कि ये शहर और नगर भी पूरे देश की तरह दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। एक खाते-पीते धनाढ्यों-पूंजीपतियों का हिस्सा है तो दूसरा बजबजाती नालियों वाला मजदूरों-मेहनतकशों का हिस्सा। पहले हिस्से ने पैसे के दम पर सारे चुनावों पर नियंत्रण कर रखा है। पूंजीवादी व्यवस्था में इससे इतर और कुछ हो भी नहीं सकता।
कहने को कोई भी मजदूर चुनाव लड़ सकता है पर चुनाव में पैसे का खेल व्यवहारतः उन्हें चुनाव प्रक्रिया से बाहर कर देता है। ऐसे में मजदूर-मेहनतकश संगठित होकर ही चुनाव लड़ते हुए या न लड़ते हुए अपने मुद्दे इन चुनावों में प्रमुखता से उठा सकते हैं। और उन्हें जरूर ही उठाने चाहिए। एकजुटता के जरिये ही वो पैसे वालों का खेल बिगाड़ सकते हैं।
रुद्रपुर में सिडकुल के संघर्षरत मजदूरों ने भी इस चुनाव में एकजुट होकर मेयर पद पर अपने एक प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारा है। मजदूर अपने प्रत्याशी अजय कुमार के पक्ष में दिन-रात प्रचार कर रहे हैं। उनके पास पैसे की ताकत नहीं है पर अपने संख्या बल का इस्तेमाल कर वे स्थापित दलों को चुनौती पेश कर रहे हैं। मजदूर अपने विभिन्न संघर्षों में प्रशासन, पूंजीवादी नेताओं-फैक्टरी प्रबंधन की दगाबाजी से इस एकजुटता पर पहुंचे हैं। गौरतलब है कि पिछले दिनों डाल्फिन कम्पनी की महिला मजदूरों के 37 दिन लम्बे आमरण अनशन को अपने झूठे वायदे से तुड़वाने वाला विकास शर्मा भी यहां भाजपा पद का प्रत्याशी बना हुआ है। उसने महिला मजदूरों से वायदा किया था कि वो सभी संघर्षरत महिला मजदूरों को फैक्टरी में काम पर वापस रखवायेगा, पर अनशन समाप्त होते ही वो मजदूरों को किये वायदे को भूल गया।
रुद्रपुर के मजदूर इस चुनाव के जरिये मजदूर वर्ग की दुर्दशा उजागर करते हुए अपने प्रत्याशी के पक्ष में वोट मांग रहे हैं। वे बता रहे हैं कि क्यों विकास शर्मा सरीखे दोगले नेता पर मजदूरों को भरोसा नहीं करना चाहिए। वे उत्तराखण्ड के कारखानों में न्यूनतम वेतन लागू न होने को मुद्दा बना रहे हैं। वे उत्तराखण्ड के कारखानों में मालिकों द्वारा श्रम कानूनों का मखौल बनाने को मुद्दा बना रहे हैं। वे मजदूरों के रिहाइश के इलाकों में बुनियादी सुविधाओं के अभाव को मुद्दा बना रहे हैं। वे पुलिस प्रशासन द्वारा मजदूर नेताओं पर फर्जी मुकदमे लादने, मालिकों के नौकर की भूमिका निभाने को मुद्दा बना रहे हैं। वे मजदूर बस्तियों-छोटे दुकानदारों पर आये दिन चलते बुलडोजर को मुद्दा बना रहे हैं।
मजदूर स्थानीय फैक्टरियों में अपने शोषण, अपनी रिहाइश की दुर्दशा, शासन-प्रशासन के मालिक परस्त रुख तक ही सीमित नहीं हैं। वे इससे आगे बढ़कर नजूल भूमि पर बसे गरीब लोगों को मालिकाना हक देने, सरकार द्वारा मजदूर विरोधी 4 श्रम संहिताओं, मोदी सरकार द्वारा थोपे लाकडाउन, जीएसटी, नोटबंदी सरीखे तुगलकी फैसलों को भी मुद्दा बना रहे हैं। वे मजदूर वर्ग को यह समझा रहे हैं कि इस चुनाव में जीत-हार से उनका भविष्य नहीं बदलने वाला। अपना भविष्य बदलने, बेहतर भविष्य हासिल करने के लिए मजदूर वर्ग को देशव्यापी पैमाने पर एकजुट होने और लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर समाजवादी व्यवस्था कायम करनी होगी। इसी क्रांतिकारी संघर्ष के एक हिस्से के रूप में मजदूरों को अपने नागरिक अधिकारों-सुविधाओं के लिए भी इंच-इंच लड़ना पड़ेगा।
मजदूर देश में बनाये जा रहे फासीवादी माहौल को भी मुद्दा बना रहे हैं। वे हिन्दू-मुस्लिम बंटवारा पैदा करने की संघी साजिश को मजदूरों-मेहनतकशों को बांटने का षड््यंत्र बता रहे हैं। वे मंदिर-मस्जिद, लव जिहाद, गौ हत्या सरीखे फर्जी मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय रोजी-रोटी-रोजगार, बेहतर आवास व जनवादी अधिकारों के लिए लड़ने को मुद्दा बना रहे हैं।
अजय कुमार जो कि खुद एक मजदूर हैं, को चुनाव में उतार कर रुद्रपुर के मजदूर अपनी मांगें निकाय चुनाव का मुद्दा बनाने में जुटे हैं। लुकास, करोलिया, इंटरार्क, डाल्फिन, बड़वे, सीआईई, पारले, बजाज मोटर्स, टाटा, महिन्द्रा, मंत्री मैटेलिक्स, मित्तर फास्टनर्स, एलजीबी, शिरडी, एरा, एस्कार्ट, असाल के संघर्षरत सैकड़ों मजदूर लम्बे समय से न्याय की मांग कर रहे हैं। इन सभी कम्पनियों के मजदूरों के समर्थन से इस चुनाव में सबके संघर्षों को मुद्दा बनाया जा रहा है। अजय कुमार का समर्थन श्रमिक संयुक्त मोर्चा ऊधमसिंह नगर, इंकलाबी मजदूर केन्द्र, सीएसटीयू, मजदूर अधिकार अभियान (मासा), क्रालोस, पछास, प्रमएके, ठेका मजदूर कल्याण समिति आदि के साथ विभिन्न सामाजिक संगठन व किसान संगठन कर रहे हैं।
-रुद्रपुर संवाददाता
उत्तराखण्ड निकाय चुनाव और मजदूर वर्ग
राष्ट्रीय
आलेख
ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है।
आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।