सट्टेबाज देश

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देश की हिन्दू फासीवादी सरकार ने भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने में भले ही सफलता न पाई हो पर उसने पूरे देश को सट्टेबाज बनाने में जरूर सफलता प्राप्त कर ली है। आज पूंजीपति वर्ग से लेकर मजदूर तक सभी सट्टेबाजी में व्यस्त हैं। कुछ उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है।
    
अभी महीने भर पहले यह खबर आई कि दो छोटे से शो रूम की एक कार बेचने वाली छोटी सी कंपनी के शुरूआती शेयर चार हजार गुना ज्यादा बिक गये। यानी जितने शेयर जारी करने की घोषणा थी उससे चार हजार गुना ज्यादा के शेयरों के आवेदन आ गये। इसका परिणाम यह निकला कि बारह करोड़ इकट्ठा करने निकली कंपनी शेयरों के दाम के हिसाब से कई हजार करोड़ की कंपनी हो गयी। और यह अकेला मामला नहीं था। जिन बीस छोटी कंपनियों ने अपने शुरूआती शेयर के लिए बाजार में आवेदन की घोषणा की, सबके शेयर इसी तरह बेहिसाब उठे। कोई आश्चर्य नहीं कि देश का शेयर बाजार रोज रिकार्ड बना रहा है। 
    
दूसरा उदाहरण जनवरी 2025 में मुंबई में होने वाले संगीत कार्यक्रम के टिकटों की बिक्री का है। कोल्डप्ले नामक समूह के कार्यक्रम के लिए जब 22 सितम्बर को आनलाइन बिक्री शुरू हुई तो टिकट कुछ सेकेण्ड में बिक गये। बताया गया कि एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने टिकट खरीदने की कोशिश की। बाद में काले बाजार में कुछ हजार रुपये वाले टिकटों की कीमत लाखों रुपया बताई जाने लगी। टिकट खरीदने वालों की इतनी ज्यादा संख्या और बाद में काले बाजार में उसके आसमान छूते दाम के पीछे और कुछ नहीं बल्कि सट्टेबाजी की चाहत थी। 
    
तीसरा उदाहरण आजकल मजदूर बस्तियों में उस आम दृश्य का है जिसमें आम मजदूर अपने स्मार्ट फोन में तल्लीनता से लगे पाये जाते हैं। इस तल्लीनता की वजह बेटिंग एप होते हैं जिस पर मजदूर जुआ खेल रहे होते हैं। आजकल ऐसे एप की भरमार है। मजदूर जल्दी से कुछ पैसा कमा लेने के चक्कर में इन पर जुआ खेलते रहते हैं और परिणामस्वरूप अपनी तनख्वाह का अच्छा-खासा हिस्सा इसमें गंवा देते हैं। 
    
सट्टेबाजी के इन भांति-भांति के तरीकों को सरकार, पूंजीपति और जानी-मानी हस्तियां सभी बढ़ावा दे रहे हैं। सरकार नियमों-कानूनों के जरिये इन्हें प्रोत्साहित कर रही है तो पूंजीपति इसके औजार बनाकर। जानी-मानी हस्तियां इसका प्रचार कर रही हैं। 
    
शेयर बाजार की सट्टेबाजी को ही लें। पिछले कई सालों से सरकार ने ऐसी नीतियों की ओर कदम बढ़ाये हैं जिससे लोग शेयर बाजार में जाने को मजबूर हों। आज बैंक में पैसा रखना घाटे का सौदा है क्योंकि स्थाई जमा पर भी ब्याज दर महंगाई दर से कम है। इसी तरह बीमा में भी अब वह लाभ नहीं है। ऐसे में लोग न चाहकर भी शेयर बाजार की ओर रुख कर रहे हैं। यही नहीं, सरकार भविष्य निधि, इत्यादि सरकारी संस्थानों को भी मजबूर कर रही है कि वे शेयर में पैसा लगायें। शेयर बाजार के नियमों को भी इस सबके लिए ढीला कर दिया गया है। हालात वहां पहुंच गये हैं कि इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस पर चिंता जताई गई है। लेकिन जब रंगा-बिल्ला स्वयं शेयर बाजार के छप्पर फाड़ने पर जश्न मना रहे हों तब किसी बाबू द्वारा चिंता जताने पर कौन ध्यान देगा। 
    
पैसे के लालच के अलावा गरीब आबादी की भयानक बदहाली भी उन्हें सट्टेबाजी की तरफ धकेल रही है। जब दिन-रात खटने पर भी जीवन यापन लायक पैसा न मिल रहा हो तब जुए के आसान रास्ते से पैसा कमाने का लालच दुर्निवार हो जाता है। और आज जुआ खेलने जाने के लिए दूर जाने की भी जरूरत नहीं। हाथ में ही बिल्कुल कानूनी जुआ मौजूद है। जब तक मजदूर सचेत होता है तब तक वह लुट चुका होता है। 
    
हिन्दू फासीवादी सरकार के अमृत काल का यह एक विशेष अमृत है जिसे सबको पिलाया जा रहा है। 

आलेख

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।