उत्तराखण्ड सरकार ने लोकसभा चुनाव से कुछ वक्त पहले राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में न्यूनतम वेतन 25 प्रतिशत बढ़ाने के आदेश जारी किये थे। इन आदेशों से ज्यादातर क्षेत्रों में न्यूनतम वेतन हेल्पर के लिए लगभग साढ़े बारह हजार रु. कर दिया गया था। इसे 1 अप्रैल 2024 से लागू होना था। चुनाव में भाजपा ने इस वृद्धि का प्रचार कर वोट भी मांगे थे।
पर चुनाव खत्म होते ही राज्य के एक के बाद एक कारखानेदार, मालों के मालिक इस नाम मात्र की वेतन वृद्धि को और कम करने की मांग सरकार से करने लगे। ज्यादातर कारखानों ने तो व्यवहारतः इसे लागू किया ही नहीं। जगह-जगह पर जब मजदूर सड़कों पर उतरे तब जाकर कुछ जगहों पर यह लागू हुआ। सरकार मान कर बैठी थी कि सारे मालिक खुद ही यह वेतनमान लागू कर देंगे।
जहां सरकार ने न्यूनतम वेतन घोषित कर उसे लागू कराने के दायित्व से पल्ला झाड़ लिया। वहीं मालिकों की एक गुहार पर सरकार तत्काल सुनवाई को तैयार हो गयी। तत्काल 17 मई को न्यूनतम मजदूरी सलाहकार बोर्ड की बैठक बुला ली गयी और इसमें असंतुष्ट मालिकों को भी बुला लिया गया। मजदूरों के प्रतिनिधि के नाम पर संघ-भाजपा से जुड़ी बी एम एस को ही बुलाया गया। अभी 17 मई को कोई निर्णय नहीं हुआ है पर मालिकों को उम्मीद है कि सरकार कुछ वृद्धि कम कर देगी।
इससे पूर्व जब 12 मार्च को न्यूनतम मजदूरी सलाहकार बोर्ड की बैठक हुई तो उसमें भी बी एम एस के एक प्रतिनिधि को बतौर मजदूर पक्ष बुलाया गया। उक्त प्रतिनिधि ने बताया कि उन्होंने 47 प्रतिशत वेतन वृद्धि की मांग की थी व बाद में 27 प्रतिशत वृद्धि पर सहमति बनी। पर जब शासनादेश आया तो महज 25 प्रतिशत की वृद्धि ही की गयी।
अब एक ओर मजदूर हरिद्वार से लेकर रुद्रपुर तक नये वेतनमान लागू कराने को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं तो दूसरी ओर मालिक सरकार से मिल इस वृद्धि को ही छीन लेने का षड्यंत्र कर रहे हैं। चूंकि उत्तराखण्ड में पहले ही चरण में चुनाव हो चुके हैं अतः भाजपा सरकार को भी मजदूरों के वोट न मिलने का भय नहीं रह गया है और वह मालिकों के इशारे पर नाच रही है। अब देखना यह है कि मजदूर अपने संघर्ष के बदौलत इस मामूली वृद्धि को लागू करवा पाते हैं या सरकार -मालिक अपने षड्यंत्र में सफल हो जाते हैं। मजदूर व्यापक एकता कायम कर ही इस षड्यंत्र को विफल कर सकते हैं। -विशेष संवाददाता
उत्तराखण्ड : न्यूनतम वेतन में वृद्धि वापस लेने की कवायद
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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए।
ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।
जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।