‘आइडिया आव इण्डिया’ : अफसाना और हकीकत

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आजकल कांग्रेसी, खासकर राहुल गांधी ‘आइडिया आव इंडिया’ का जुमला काफी उछाल रहे हैं। उनके सुर में अन्य कुछ उदारवादी और वाम-उदारवादी भी अपना सुर मिला रहे हैं। इनके अनुसार इस आइडिया या विचार को संघ परिवार से खतरा है जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। वे कभी कहे और कभी अनकहे ढंग से इंगित करते हैं कि उनका भारत का विचार भारत के संविधान में अंतर्भूत है यानी भारत का संविधान इसी विचार पर आधारित है और वह इसी को संवैधानिक रूप प्रदान करता है। ज्यादा ठोस रूप में वे संविधान की प्रस्तावना को इस विचार का सूत्र रूप बताते हैं।
    
जब कांग्रेसी या वाम-उदारवादी इस तरह की बात करते हैं तो शायद उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता कि वे भारत के बारे में एक कड़वी सच्चाई बयान कर रहे होते हैं। वह सच्चाई यह है कि भारत एक विचार है, हकीकत नहीं। इसके कई मायने हैं। और चूंकि भारत एक विचार है, इसीलिए स्वभावतः ही भारत के बारे में अन्य विचार इससे टकरा रहे होंगे। सवाल बस इतना है कि भारत के बारे में कौन सा विचार हावी होगा और भारतीय समाज की दिशा तय करेगा?
    
भारत के बारे में आज आपस में टकरा रहे विचार कोई नये नहीं हैं। कम से कम एक शताब्दी से तो ये विद्यमान हैं ही। इन्हें मूलतः तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है। ये हैंः पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व वाला धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी भारत, मजदूर वर्ग के वर्चस्व वाला समाजवादी भारत और सवर्ण वर्चस्व वाला हिन्दू राष्ट्र। इसके प्रमुख प्रतिनिधि क्रमशः कांग्रेस पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और संघ परिवार रहे हैं। जहां भगतसिंह दूसरी श्रेणी में आते हैं वहीं हिन्दू महासभा और आर्य समाज, इत्यादि तीसरी श्रेणी में। 
    
अंग्रेजी राज से पहले भारत छोटे-बड़े राजे-रजवाड़ों वाला एक सामंती समाज था। राजनीतिक तौर पर इसे एक सूत्र में बांधने वाला मुगल शासन विघटित हो गया था और मुगल बादशाह दिल्ली तक सिमट गया था। 1757 से शुरू कर अंग्रेजों ने भारत में अपना जो राज स्थापित किया उसने देश को फिर एक शासन के अधीन किया। अंग्रेजी राज में भारत की राजनीतिक एकता एक बार फिर स्थापित हुई। भारत के इतिहास में अशोक और औरंगजेब के बाद यह केवल तीसरी बार हुआ था जब लगभग समूचा भारत एक शासन सूत्र के अधीन आया। 
    
मुगल शासन के विपरीत अंग्रेजी राज कोई सामंती शासन नहीं था। यह औपनिवेशिक शासन मूलतः पूंजीवादी था क्योंकि शासक और उनके उद्देश्य पूंजीवादी थे। यूरोप में पूंजीवाद की गति के कारण ही उन्होंने भारत पर कब्जा करने में सफलता पाई थी। और यहां उनके शासन का उद्देश्य अंग्रेजी पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाना था। अपने दो सौ सालों के शासन में अंग्रेजों ने हमेशा यही किया हालांकि सभी शासकों की तरह उन्हें भी यहां की पुरानी सामंती शक्तियों से काफी समझौता करना पड़ा। उन्होंने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो कुछ किया उसी के एक परिणाम के तौर पर भारत में उन्नीसवीं सदी में भारत का विचार भी पैदा होना शुरू हुआ। 
    
राष्ट्र और राष्ट्रवाद पूंजीवादी परिघटना है। सामंतवाद या उसके पहले राष्ट्र या राष्ट्रवाद जैसी चीजें नहीं थीं। प्राचीन काल में यूनानियों में काफी श्रेष्ठताबोध था पर वे खुद को एथेन्सवासी या स्पार्टावासी के रूप में ही देखते थे और अक्सर आपस में खूनी जंग लड़ते थे। रोमवासियों को अपने रोम पर तथा खुद के रोमवासी होने पर काफी गर्व था पर वे न तो रोम को और न ही रोमन साम्राज्य को एक राष्ट्र के रूप में देखते थे। उनका सारा गर्व रोम नगर पर केन्द्रित था। 
    
यही हाल भारत का भी था। आधुनिक काल से पहले भारत केवल एक भौगोलिक इकाई था जिसका कोई एक नाम नहीं था। विदेशी जरूर इसे एक नाम से संबोधित करते थे- हिन्द, इंडस, इंडिया, इत्यादि। इसका बस यही मतलब था कि यह भौगोलिक क्षेत्र सिन्धु नदी के पार है- पूरब की ओर। 
    
जैसा कि पहले कहा गया है राजनीतिक तौर पर भी इतिहास में वह केवल दो बार एक शासन सूत्र के तहत आया था और वह भी केवल थोड़े समय के लिए। अशोक और औरंगजेब के शासन काल में केवल तीस-चालीस साल ही यह केन्द्रीकृत शासन रह सका। फिर वह बिखर गया। 
    
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर भी भारत इतिहास में कभी एक नहीं रहा। प्राचीन काल से लेकर मध्य काल तक भारतीय अर्थव्यवस्था क्षेत्रीय या स्थानीय ही रही और उसमें शिथिल विविधता रही। देश भर में अनगिनत भाषाएं थीं और खान-पान, पहनावे तथा जीवन शैली में अपार विविधता रही। यहां तक कि हिन्दू धर्म और उसकी वर्ण-जाति व्यवस्था भी पूरे देश में एक जैसी कभी नहीं रही। 
    
आधुनिक अर्थों में राष्ट्र के लिए चार चीजें जरूरी हैंः एक निरंतर भौगोलिक क्षेत्र, एक एकीकृत अर्थव्यवस्था एक भाषा और एक संस्कृति। इसमें पहली को छोड़कर बाकी सब भारतीय इतिहास में नदारद रहे। आज भी दूसरे व तीसरे नदारद हैं। इसीलिए प्राचीन या मध्यकाल में भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखना केवल दृष्टिदोष ही हो सकता है। 
    
अंग्रेजी राज ने भारत में जो परिवर्तन किये उन्हीं में से एक था भारत में आधुनिक शिक्षा से लैस मध्यम वर्ग का उदय। समाज के ऊपरी सवर्ण हिस्से से आने वाले इस वर्ग में पश्चिम के राष्ट्रों की प्रगति की रोशनी में अपने समाज की गति पर विचार करने की प्रेरणा पैदा हुई। यहीं से भारत के अतीत और वर्तमान को परखा जाने लगा। 
    
मजे की बात यह थी कि भारतीय समाज के खास तरह के विकास के चलते इसमें भारतीय इतिहास की कोई रूप रेखा भी नहीं थी। इतिहास के नाम पर यदि कुछ था तो बस पुराणकथाएं। आज के हिन्दू फासीवादियों की सोच के विपरीत कुछ धार्मिक कथाओं के अलावा कोई ऐतिहासिक स्मृति भी नहीं थी। यहां तक कि महान सम्राट अशोक की भी कोई स्मृति नहीं थी। उन्हें बस बौद्ध कथाओं का एक काल्पनिक राजा माना जाता था। 
    
अपने इतिहास की खोज में लगे भारतीयों को इतिहास की सामग्री भी अंग्रेजों और अन्य यूरोपीय विद्वानों ने प्रदान की। उन्होंने ही कुछ अपने शासन की जरूरतों के वशीभूत और कुछ वास्तविक ज्ञान पिपासा के तहत भारतीय इतिहास पर शोध किया। धार्मिक और अन्य साहित्य के मानक संस्करण तैयार किये गये। पुरातात्विक खुदाईयां की गयीं। प्राचीन लिपियों को पढ़ा गया और उनका अनुवाद किया गया। इससे धीमे-धीमे भारतीय इतिहास की एक रूप-रेखा सामने आने लगी। 
    
स्वाभाविक ही था कि अपने वर्तमान की जरूरतों के अनुरूप इस रूप-रेखा को लेकर आपस में जंग होती। अंग्रेज उपनिवेशवादी इसे एक तरह से पेश कर रहे थे जिससे उनका औपनिवेशिक शासन जायज ठहराया जा सके। दूसरी तरफ ऐसे भारतीय थे जो भारत के एक गौरवशाली अतीत के बल पर वर्तमान में एक खास तरह का समाज बनाना चाहते थे। कुछ बीच वाले भी थे।
    
बीसवीं सदी की शुरूआत में भारत को लेकर विचारों की यह जंग ज्यादा तीखी और स्पष्ट हो गयी। महात्मा गांधी के भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन का नेता बनने तक भारत का पूंजीपति वर्ग इतना मजबूत हो गया था कि वह अपने लिए एक राष्ट्र की कल्पना कर सके और उसकी मांग कर सके। इस कल्पना में भांति-भांति के रंग थे पर कुल मिलाकर यह एक धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी भारत की कल्पना थी। इसी नजर से इतिहास को भी देखा गया। इसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति नेहरू की किताब ‘भारत एक खोज’ में हुई। यह अकारण नहीं था कि डी डी कोशाम्बी ने इस किताब की समीक्षा करते हुए लिखा था कि भारत का पूंजीपति वर्ग अब प्रौढ़ हो चुका है, इतना प्रौढ़ कि वह अपने लिए एक राष्ट्र की कल्पना कर सके तथा उसकी मांग कर सके। यह याद रखना होगा कि राष्ट्र की इस कल्पना से महात्मा गांधी की काफी असहमति थी पर तब भी उन्होंने नेहरू को ही इस लायक माना कि वे आजादी के बाद भारत का नेतृत्व कर सकें। उन्होंने अपने ज्यादा नजदीक पटेल को इस लायक नहीं माना जिन्हें ज्यादातर उच्च कांग्रेसी नेताओं का समर्थन हासिल था। 
    
स्पष्ट है कि तब ‘आइडिया आव इंडिया’ के धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी समाज वाले स्वरूप पर आम सहमति के बावजूद उसके ‘शेड्स’ में काफी मतभेद थे। कांग्रेस पार्टी के भीतर एक ओर वे संघ परिवार तक चले जाते थे तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी तक। स्वयं नेहरू इसमें केन्द्र से वाम की ओर झुके हुए थे।     
    
इस ‘आइडिया आव इंडिया’ ने भारत के संविधान में कानूनी-संवैधानिक रूप ग्रहण किया। कोई आश्चर्य नहीं कि इस संविधान की मूल आत्मा पूंजीवादी है जिसके नीति निर्देशक सिद्धांतों में एक ओर समाजवादी ढर्रे का समाज बनाने की ख्वाहिशें हैं तो दूसरी ओर गाय की रक्षा भी। यदि संविधान की प्रस्तावना केन्द्र को अभिव्यक्त करती है तो वाम और दक्षिण दोनों को नीति निर्देशक सिद्धान्तों में जगह दे दी गयी है। समाज में अपनी ताकत के हिसाब से इस संविधान को सार्वजनिक क्षेत्र की ओर भी झुकाया जा सकता है और गाय की ओर भी। यदि आजादी के बाद पहले तीन दशकों में यह वाम की ओर झुका हुआ था तो अब पिछले तीन दशकों में दक्षिण की ओर। 
    
पिछले तीन-चार दशकों में देश में हिन्दू फासीवादियों ने अब इतनी ताकत हासिल कर ली है कि उन्हें लगता है कि वे भारत संबंधी अपने विचार को साकार कर सकते हैं। वे अपने सपनों का हिन्दू राष्ट्र बना सकते हैं। कांग्रेसियों का यह कहना सही है कि हिन्दू फासीवादी भारत के संविधान में अंतर्भूत ‘भारत के विचार’ को नष्ट करना चाहते हैं। पर यह भी उतना ही सही है कि हिन्दू फासीवादियों का सदा से ही भारत का अपना विचार रहा है जिसे वे हिन्दू राष्ट्र के रूप में सामने रखते रहे हैं। हिन्दू फासीवादी ‘आइडिया आव इंडिया’ को नहीं खत्म करना चाहते। वे कांग्रेसी ‘आइडिया आव इंडिया’ को खत्म करना चाहते हैं जो कि वर्तमान संविधान में अंतर्भूत है। इसके बदले वे भारत पर अपना ‘आइडिया आव इंडिया’ थोपना चाहते हैं जो सवर्ण वर्चस्व और मध्यकालीन मूल्य-मान्यताओं वाला हिन्दू राष्ट्र होगा। इसमें निजी सम्पत्ति, पूंजी, बाजार, पूंजीपति वर्ग, इत्यादि सब रहेंगे। पर इसमें से जनवाद गायब हो जायेगा। 
    
इन दोनों ‘आइडिया आव इंडिया’ के बरक्स एक तीसरा ‘आइडिया आव इंडिया’ भी भारत में एक सदी से विद्यमान रहा है। इसे कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने 1930 के ‘कार्यवाही के लिए मंच’ में तथा शहीद भगत सिंह ने 1931 के अपने ‘नौजवान कार्यकर्ताओं के नाम पत्र’ में स्वर दिया था। भारत का यह विचार था मजदूर वर्ग के नेतृत्व वाला समाजवादी भारत। लोकप्रिय भाषा में यह मजदूरों-मेहनतकशों या मजदूरों-किसानों का भारत होना था। इस भारत को न केवल अंग्रेजी औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होना था बल्कि भारतीय पूंजीपतियों-भूस्वामियों से भी मुक्त होना था। भारत के इस विचार की छाया कांग्रेस के वाम धड़े पर पड़ी। जिसके दबाव में कांग्रेस को जमीन के बंटवारे और यहां तक कि समाजवाद की भी बात करनी पड़ी थी। 
    
जैसा कि पहले कहा गया है, भारत के इस विचार का 1930 के दशक से 1970 के दशक तक इतना प्रभाव रहा कि कांग्रेस पार्टी को भी इसके सामने झुकना पड़ा। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के सुधार का रास्ता पकड़ लेने के बाद यह प्रभाव क्रमशः क्षरित होता गया। आज देश के क्रांतिकारी आंदोलन की इतनी ताकत नहीं है कि दूसरों के ‘आइडिया आव इंडिया’ पर दबाव डाल सके।
    
हिन्दू फासीवादियों के उभार के इस दौर में कांग्रेसी पूरी चालाकी के साथ यह कोशिश कर रहे हैं कि लोग मान लें कि संघियों के हिन्दू राष्ट्र के विरोध में केवल उन्हीं के पास ‘आइडिया आव इंडिया’ है। सच्चाई यह है कि आज भी तीन ‘आइडिया आव इंडिया’ आपस में संघर्षरत हैं, जैसे वे सदी भर संघर्षरत रहे हैं। संघ प्रमुख तो खुलेआम इसे घोषित भी कर रहे हैं कि वे कम्युनिस्टों और कम्युनिज्म को दुश्मन की तरह देखते हैं। हिन्दू फासीवादी सरकार भी मौके-बेमौके ‘अरबन नक्सल’ का राग छेड़ती रहती है। 
    
आज जरूरत इस बात की है कि तीसरे ‘आइडिया आव इंडिया’ यानी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी भारत की बात को हर तरह से बुलंद किया जाये और कांग्रेसी चाल को निरस्त किया जाये।  

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