बिहार एक बार फिर बाढ़ की चपेट में

हार में हर वर्ष की भांति इस बार भी बाढ़ का कहर जारी है। पूंजीवादी सरकारें जहां हवा में हाथ पैर मार रही हैं वहीं पूंजीवादी प्रचार तंत्र बाढ़ के दृश्य दिखाकर अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। बरसात का मौसम उसके लिए खबरों का मौसम होता है। बिहार में आधा दर्ज़न लोग जिंदा बाढ़ के पानी में बह गये हैं वहीं 200 से ज्यादा गांव बाढ़ के पानी में डूब चुके हैं, हज़ारों लोग विस्थापित हो चुके हैं। कुछ समय पहले बिहार में बाढ़ की विभीषिका पर नागरिक में एक लेख छपा था जो बिहार में हर वर्ष आने वाली बाढ़ के बारे में एक समझदारी बनाने में मदद करता है। इस लेख को हम यहाँ दे रहे हैं।👇

पूंजीवाद जनित बिहार बाढ़ की विभीषिकाएं

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बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम इस साल फिर से बाढ़ की चपेट में आ गये हैं। बाढ़ का सबसे बुरा असर उत्तर बिहार के जिलों में है। अररिया, सीतामढ़ी, पश्चिमी चंपारण, कटिहार, पूर्वी चम्पारण, मधुबनी, सुपौल, मधेपुरा सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में हैं। बिहार में अब तक बाढ़ से मरने वालों की संख्या 300 को पार कर चुकी है। सवा करोड़ से ज्यादा लोग बेघर हो चुके हैं। करोड़ों रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है।
    
लगभग हर साल आने वाली बाढ बिहार की जनता के बड़े हिस्से के लिए अकथनीय कठिनाईयों का सबब बन गया है। बिहार के बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित जिले देश के सबसे पिछड़े जिले भी हैं। उत्तरी बिहार के इन जिलों की अर्थव्यवस्था मुख्यतया खेती पर निर्भर है। खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी होने के बावजूद अगर ये जिले इतने गरीब और पिछड़े हैं तो इसका एक कारण लगभग हर साल आने वाली बाढ़ भी है। हर साल बाढ़ आने पर भारी आबादी विस्थापित होकर हफ्तों तक राहत शिविरों में रहने को मजबूर होती है। ये राहत शिविर सरकार द्वारा बाढ़ क्षेत्र के पास किसी ऊंचे स्थान पर लगाए जाते हैं जिसमें खाने पीने का इंतजाम ही इतना घटिया होता है कि साफ-सफाई, चिकित्सा व्यवस्था और मौसम की मार से बचने के इंतजाम की बात ही क्या की जाए।
    
हर बाढ़ का तात्कालिक कारण किसी न किसी बांध का टूटना होता है। ये बांध क्यों टूटते हैं इसका एक संकेत महालेखाकार(कैग) की एक हालिया रिपोर्ट से मिलता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सीमावर्ती क्षेत्रों से सम्बन्धित नदी प्रबंधन गतिविधियों और कार्यों में भारी विलम्ब हुआ। इन कार्यों का मकसद असम, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की बाढ़ समस्या का दीर्घकालिक समाधान था। केन्द्रीय जल आयोग ने 15 नदियों के स्वरूपों के अध्ययन का काम सौंपा लेकिन सिर्फ आठ नदियों के अध्ययन का काम हाथ में लिया गया। ऐसे अध्ययन की मदद से नदी में ऐसी संरचनाओं का निर्माण करने में मदद मिलती है जो कि नदी के कटाव से होने वाले नुकसान को कम करें। ऐसे अध्ययन के बाद इन संरचनाओं (रिवेटमेंट, स्पर, बांध) की योजना, निर्माण, नवीनीकरण और रखरखाव का काम संभव हो पाता है। जिस महानंदी नदी के बांध के टूटने की वजह से इस साल बाढ़ ने भारी नुकसान पहुंचाया उसी नदी पर बने बांध पर कुछ जगहों पर ईंट की सीलिंग को टूटा पाया गया था। और एक स्थान पर तो बांध का लगभग 223 मीटर का हिस्सा ही टूटा हुआ था। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बाढ़ प्रबंधन प्रोजेक्ट में कभी-कभी 6 साल तक की देरी हुयी है।
    
महालेखाकार की इस रिपोर्ट से सहज अंदाजा लग जाता है कि बाढ़ से होने वाले नुकसान के बावजूद इसके रोकथाम के लिए पूरी संवेदनशीलता नहीं बरती जा रही है। हर साल बाढ़ आने पर सरकारें और पूंजीवादी मीडिया सभी एक स्वर में चिल्लाने लगते हैं कि नेपाल में भारी बारिश होने की वजह से बांध टूटा। ऐसा कहकर प्रकारांतर से यह संदेश दिया जाता है कि नेपाल सरकार के असहयोग की वजह से बाढ़ नियंत्रण के उपाय असफल हो जा रहे हैं। कभी-कभी तो सीधे-सीधे ही यह कह दिया जाता है कि नेपाल द्वारा अचानक नदी में ज्यादा पानी छोड़े जाने की वजह से बांध टूटा था, बाढ़ आई, गोया कि नेपाल के पास ऐसा कोई साधन हो कि वह पानी रोक सके या छोड़ सके। आम जनमानस भी इस प्रचार के प्रभाव में होता है और बाढ़ से उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की जनता को होने वाले कष्टों के लिए नेपाल को कोस रहा होता है।
    
बिहार में सबसे ज्यादा विनाशकारी और निरंतरता से आने वाली बाढ़ कोसी नदी की बाढ़ है। कोसी नदी को ‘बिहार का शोक’ भी कहा जाता रहा है। यह नदी अपना रास्ता बदलने को लेकर बदनाम रही है। पिछले 200 सालों में यह नदी 100 किलोमीटर से ज्यादा पश्चिम की तरफ खिसक चुकी है। यह नदी ज्यादा गाद लाने के मामले में दुनिया की दूसरे नम्बर की नदी है। इस नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में 3000 मी. से ज्यादा ऊंचे हिमालयी क्षेत्र आ जाते हैं। नेपाल से बिहार में प्रवेश करने वाली नदियों में से यही एकमात्र नदी है जिसका उद्गम ग्लेशियरों से है, अन्य नदियां मुख्यतया बरसाती नदियां हैं। कोसी नदी नेपाल के भीतर सात नदियों से मिलकर बनती है और नेपाल में चतरा के पास एक संकरे दर्रे से गुजरने के बाद यह भारत के मैदानों में पहुंचती है। भारत में पहुंचते ही नदी की ढाल अचानक से कम हो जाती है जिसकी वजह से नदी में आने वाला गाद बैठने लगता है और नदी मैदानी डेल्टा का निर्माण करती है। इसी वजह से यह नदी बार-बार अपना रास्ता बदल लेती है। इस समस्या के समाधान के लिए ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही कोसी पर बैराज बनाने का विचार पैदा हुआ। आजाद भारत में 1962 में इसका निर्माण पूरा हुआ। नेपाल के साथ रिश्तों में आजाद भारत की सरकार ने ब्रिटिश हुकूमत से विरासत में मिले वर्चस्वकारी रवैये को जारी रखा। यह रवैया नदियों पर बनी संयुक्त परियोजनाओं में भी कायम रहा। इस विस्तारवादी रवैये की वजह से नेपाल की मेहनतकश जनता एवं प्रगतिशील ताकतों के बीच भारत सरकार के प्रति एक अविश्वास एवं असंतोष का भाव पैदा हुआ जो आज तक बरकरार है और नदियों के समुचित प्रबंधन में बाधक बना हुआ है। नेपाल की तरफ से कोसी बैराज के मामले में भारत सरकार के प्रति अविश्वास पैदा करने वाले तथ्यों में से एक तथ्य कोसी बैराज की स्थिति को लेकर भी है। कोसी बैराज की शुरूआती योजना के अनुसार इसे चतरा के पहाड़ी दर्रे से निकलने के तत्काल बाद स्थित होना था। लेकिन बाद में भारत सरकार ने इसे नदी की धारा में चतरा से लगभग 40 किमी आगे भीमनगर में स्थापित किया। नेपाल के बराज विरोधियों का मानना है कि भारत सरकार बराज पर नियंत्रण कायम करने के मकसद से इसे अपनी सीमा के अधिकाधिक निकट स्थित करना चाहती थी। बराज विरोधियों का मानना है कि इस हठधर्मिता की वजह से बराज की डिजाइनिंग त्रुटिपूर्ण हो गयी है। यहां ध्यान देने की बात है कि 2008 में आई भीषण बाढ़ का कारण भीमनगर बराज से ऊपर बने नदी के पूर्वी बांध का टूटना था। इसके बाद नदी ने अपना रास्ता बदल लिया था और नदी का 95 प्रतिशत हिस्सा नदी द्वारा 100 साल पहले त्याग दिए गये रास्ते से होकर बहने लगा। नदी प्रबंधन संस्थाओं की काफी जद्दोजहद के बाद नदी को अपने वर्तमान रास्ते पर लाया गया।

उत्तरी बिहार की बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए भारत नेपाल सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण पहलू बन जाता है। अतीत में और आज भी भारत सरकार के विस्तारवादी रवैये की वजह से नदियों के सम्बन्ध में हुयी संधियां और लंबित परियोजनाएं अधर में लटकी हुयी हैं। आजादी के बाद से ही भारत सरकार ने ‘‘विशेष सम्बन्धों’’ के नाम पर नेपाल के साथ ‘बड़े भाई’ वाला वर्चस्वकारी सम्बन्ध कायम किया। नेपाली राजशाही और नेपाल की सत्ताधारी पार्टी अपने प्रतिक्रियावादी चरित्र के अनुरूप भारत सरकार के विस्तारवादी रुख को स्वीकार करती थी। भारत-नेपाल के बीच होने वाली संधियां इस गैर-बराबरी वाले सम्बन्धों को व्यक्त करती थीं। कोसी और गंडक नदी की बहुउद्देश्यीय योजनाओं में भी यह गैरबराबरी झलकती थी। नेपाल के जनवादी आंदोलन के तेज होने पर इन संधियों का विरोध होने लगा। इन विरोधों के मद्देनजर 1966 में भारत को नेपाल के साथ अपने सम्बन्ध पुनर्परिभाषित करने पड़े। परन्तु भारत सरकार का विस्तारवादी रवैया जारी रहा। परिणामस्वरूप किसी भी महत्वपूर्ण परियोजना का नेपाल के भीतर विरोध हो जाने की वजह से 1960 से लेकर 1990 तक दोनों सरकारों के बीच नदी परियोजनाओं के मामले में गतिरोध बना रहा। नेपाल में पंचायती शासन समाप्त होने के बाद वार्ताओं का नया क्रम शुरू हुआ। और 1966 में महाकाली संधि हुई। लेकिन नेपाल के आंतरिक मामले में भारत सरकार के हस्तक्षेप की वजह से बार-बार सम्बन्ध बिगड़ते रहे। 1996 की महाकाली संधि पर कोई ठोस अमल अभी तक नहीं हुआ है। भारत के कई विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल के साथ नदियों से सम्बन्धित किसी संयुक्त परियोजना के बारे में सोचने का काम भी कुछ समय तक छोड़ देना चाहिए, तभी दुबारा से विश्वास बहाली हो पाएगी।
    
बिहार के बाढ़ के कारणों के बारे में विशेषज्ञों की भिन्न राय है। अलग-अलग विशेषज्ञ अलग-अलग कारकों पर जोर देते हैं। हाल के समय में बिहार बाढ़ के सम्बन्ध में फरक्का बराज काफी विवाद का विषय बना है। (खास तौर पर, 2016 में नीतिश कुमार के द्वारा फरक्का बराज को दोषी ठहराने के बाद) कहा जा रहा है कि फरक्का बराज बनने के बाद नदियों के बहाव की रफ्तार कम हो गयी और इनके गाद ढोने की क्षमता कम हो गयी। इससे नदियों में गाद बैठने लगा और तल को ऊंचा करता गया। फरक्का बराज का निर्माण कलकत्ता बंदरगाह पर गाद जमा हो जाने की समस्या से निपटने के लिए किया गया। 1975 में इस बराज ने काम करना शुरू कर दिया। 1975 से पहले फरक्का के पास गंगा नदी दो शाखाओं में बंट जाती थी। एक मुख्य शाखा पद्मा के नाम से बांग्लादेश में प्रवेश कर जाती है और दूसरी शाखा हुगली नदी के रूप में बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है। यह बराज पद्मा के पानी के एक हिस्से को हुगली नदी में मोड़ देता है। सोचा यह गया था कि ज्यादा पानी आने पर कलकत्ता बंदरगाह पर जमा गाद बह जायेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और हर साल कलकत्ता बंदरगाह पर काफी खर्चे से गाद की सफाई की जाती है। मुख्य आर्थिक सलाहकार रहते हुए अरविंद सुब्रमण्यम ने पश्चिम बंगाल सरकार को यहां तक सलाह दे डाली कि इस बंदरगाह को बंद कर दिया जाए। फरक्का बराज के निर्माण से पहले कोई पर्यावरणीय मूल्यांकन नहीं कराया गया। और गाद की आशंका उठाने वाली आवाजों को अनदेखा किया गया। अब जबकि पिछले 30 सालों में बिहार में बाढ़ की समस्या विकराल हुई है तो फरक्का बराज को दोषी मानने वाले विश्लेषण को पूरी तरह खारिज करना मुश्किल हो जाता है। केन्द्रीय जल आयोग ने 2016 की अपनी रिपोर्ट में नदियों में गाद के बढ़ने और नदी के तल के ऊपर उठने के लिए फरक्का बराज को दोषी ठहराने को गलत करार दिया। इस रिपोर्ट का मानना था कि ऐसा कोई प्रभाव बराज से 42 किलोमीटर ऊपर तक ही संभव है। इस रिपोर्ट ने पटना से भागलपुर तक नदी के वृहत बहाव क्षेत्र में केले की खेती को जिम्मेदार ठहराया। 
    
विशेषज्ञों का एक अन्य पहलू मुख्यतया नदियों पर बने बांधों को बिहार में बाढ़ की विकरालता के लिए जिम्मेदार ठहराता है। इस तथ्य के हवाले से कि 1954 में जब पहली बार बिहार बाढ़ नीति घोषित हुयी थी तब नदियों पर बांधों की कुल लम्बाई 160 किलोमीटर और कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल 25 लाख हेक्टेयर था और 2012 में बांधों की कुल लम्बाई 3731 किलोमीटर है और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 72.95 लाख हेक्टेयर है, ये बांधों के द्वारा नदियों को जकड़ने का विरोध करते हैं। इनका कहना है कि पहले नदियां बाढ़ के दौरान अपना अतिरिक्त गाद किनारों पर उड़ेल देती थी। अब बांध बनने के बाद यह गाद नदी के तल में जमा होता रहता है और नदी की ऊंचाई बढ़ती जाती है। इससे समय के साथ बांधों पर दबाव बढ़ता जाता है और एक न एक बिन्दु पर बांध का टूटना तय होता है। बांधों में अधिक ऊंचाई से जब पानी फैलता है तो बाढ़ ज्यादा विनाश लाती है। साथ ही इनका कहना है कि अब नदी के दोनों बांधों के बीच ज्यादा बड़े से बड़े हिस्से में साल भर पानी जमा रहता है। पहले बरसात के अलावा शेष समय इन हिस्सों का इस्तेमाल खेती के लिए किया जाता था, जो कि अब संभव नहीं है। बिहार में साल भर पानी जमा रहने वाली जमीन का हिस्सा 16 प्रतिशत तक पहुंच गया है। 
    
कई विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले सालों में उत्तरी बिहार की नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा की मात्रा बढ़ी है। साथ ही इन क्षेत्रों में वनों की कटाई कर खेती का चलन बढ़ा है। इन दोनों कारणों से जल ग्रहण क्षेत्रों में मिट्टी का अपर्दन बढ़ा है और इससे नदियों में गाद की मात्रा बढ़ी है। इसने अपनी बारी में बाढ़ की विकरालता को बढ़ाया है। 
    
तमाम विशेषज्ञों की बातों से कुछ बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं। बिहार में बाढ़ हमेशा से आती रही है। लेकिन पिछले सालों में बिहार की बाढ़ ने ज्यादा विनाशकारी रूप लिया है। इसलिए बिहार की बाढ़ जनित आपदा को प्राकृतिक आपदा नहीं कहा जा सकता। बाढ़ की विकरालता के लिए या तो पिछले सालों में प्रकृति से की गयी छेड़छाड़ जिम्मेदार है या अदूरदर्शी तरीके से नदियों का प्रबंधन जिम्मेदार है। चूंकि ये सारी गतिविधियां पूंजीपति वर्ग के मुनाफे को बढ़ाने के लिए अंजाम दी जाती हैं इसलिए मजदूर-मेहनतकशों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है। इसलिए इन आपदाओं को मानव निर्मित आपदा कहना भी ठीक नहीं है। साथ ही बांधों के रख-रखाव में जो लापरवाही बरती जाती है और बाढ़ आने के बाद आपदा राहत जितने सीमित पैमाने का होता है, उससे जान-माल की हानि के लिए सरकारें सीधे-सीधे गुनहगार साबित होती हैं।
    
बिहार की बाढ़ की समस्या को पूरी तरह हल कर पाना पूंजीवादी सरकारों के बस की बात नहीं है। खास तौर पर इस समस्या का अंतर्राष्ट्रीय पहलू इस समस्या की जटिलता को बढ़ाता है। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में इस समस्या का आंशिक समाधान संभव है और इसको हासिल करने के लिए मजदूर मेहनतकशों को संघर्ष करना चाहिए। इस आंशिक समाधान के लिए जरूरी है कि सभी जरूरी अध्ययनों को प्राथमिकता में पूरा कराया जाए और उसके अनुरूप नदियों पर संरचनाओं का निर्माण हो। बाढ़ रोकने वाली संरचनाओं का सबसे अधिक मुस्तैदी से रखरखाव हो। बाढ़ की चेतावनी देने और जनता की जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएं। बाद के राहत एवं बचाव के लिए सभी साधनों से सुसज्जित संस्थाओं का गठन किया जाए। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में जगह-जगह उपयुक्त स्थल को राहत शिविरों के लिए चिह्नित किया जाए या विकसित किया जाए। सभी बाढ़ पीड़ितों को पोषक भोजन, स्वच्छ आश्रय, साफ पानी, त्वरित उपचार हासिल करने के अधिकार को मान्यता दी जाए।

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।