मजदूर वर्ग पर ‘‘लेबर कोड्स’’ के हमले के खिलाफ प्रतिरोघ की शुरूआत ‘‘वर्ग सचेत मजदूरों’’ को करनी होगी

लेबर कोड्स : मजदूर वर्ग पर हमला

लेबर कोड्स

मजदूरों व मजदूर यूनियनों के बीच लेबर कोड्स का हमला प्रतिरोध का कोई विषय नहीं बन पा रहा है। मजदूर यूनियनें लेबर कोड्स को मजदूरों पर हमले के रूप में नहीं ले पा रही हैं। औद्योगिक मजदूरों पर वर्तमान में जो भी छंटनी, यूनियनों को खत्म करने व स्थाई नौकरियों को खत्म करने के हमले हो रहे हैं, वह लेबर कोड्स की रोशनी में हो रहे हैं। 
    
यहां तक कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के एजेण्डे से भी लेबर कोड्स का मुद्दा गायब है। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने लेबर कोड्स को लेकर कोई व्यापक विरोध प्रदर्शन आयोजित नहीं किया है। जबकि 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर वर्ष 2019 में वेज कोड व वर्ष 2020 में तीन अन्य कोड्स को पारित कर मजदूर वर्ग पर पूंजी की गुलामी का दस्तावेज पारित किया गया था। हालांकि सरकार ने कानूनी तौर पर अभी इसे भले ही लागू ना किया हो लेकिन व्यवहारिक तौर पर लेबर कोड्स लागू हो चुके हैं। 
    
लोकसभा चुनावों में तथाकथित वामपंथी पार्टियों ने इण्डिया गठबंधन में शामिल होकर यह साबित कर दिया कि उनका मजदूरों में बचा-खुचा जनाधार भी अब समाप्त हो चुका है। पिछले लम्बे समय से ये तमाम वामपंथी पार्टियां मजदूर वर्ग के अपने कार्यभार को छोड़ चुकी हैं। अब हालत यह है कि इनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही सिमट गया है। इण्डिया गठबंधन में शामिल होकर इन वामपंथी पार्टियों ने न तो लेबर कोड्स को मुद्दा बनाया और ना ही उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों को मुद्दा बनाया। बल्कि एक तरह से कांग्रेस की पिछलग्गू बनी रही। मजदूरों के तमाम मुद्दे इनके एजेण्डे से गायब थे।
    
वामपंथी पार्टियों से जुड़े उनके केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें भी मजदूरों के झण्डे को उठाए लोकसभा चुनाव में नजर आईं। केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेताओं ने मजदूरों से सम्बोधन में कहा कि मजदूरों पर हो रहे हमले के लिए केवल मोदी सरकार जिम्मेदार है। जबकि हकीकत यह है कि उदारीकरण-निजीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों की प्रस्तोता यूपीए की कांग्रेस सरकार है। एक तरह से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने मजदूरों को मजदूर वर्ग की राजनीति से काटकर कांग्रेस के पीछे गोलबंद करने में अहम भूमिका निभाई है। मजदूर यूनियनों पर इसका प्रभाव अभी भी मौजूद है। 
    
हालांकि लम्बे समय से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने मजदूरों में जो राजनीति की है, उसके तहत अवसरवाद की राजनीति कर उन्होंने मजदूरों को उनकी असल राजनीति से काट दिया है। मजदूरों में वर्गीय भावना कायम कर संगठित प्रतिरोध की जगह उनको एक फैक्टरी के भीतर तथा एक फैक्टरी के भीतर भी पूंजीपति के मजदूरों में किए गए ठेका, नीम, ट्रेनिंग, अप्रेन्टिस इत्यादि के विभाजन को जायज मानते हुए केवल स्थाई मजदूरों को आर्थिक मांगों तक सीमित करके रखा है। इस संकीर्ण राजनीति का परिणाम यह निकला कि आज जब लेबर कोड्स की रोशनी में पूंजीपति वर्ग मजदूरों की स्थाई नौकरियों व उनके अधिकारों पर हमला कर रहा है तो ये मजदूर अपने को असहाय स्थिति में पाते हैं। आज जब फासीवाद का हमला तेज हो रहा है तो ये वामपंथी पार्टियां व उनकी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मजदूरों के बीच जाने की बजाय कांग्रेस की शरण में जाकर अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रही हैं। 
    
देश-दुनिया में घट रहे घटनाक्रमों व मजदूर वर्ग पर हो रहे व्यापक हमलों को समझाने के वर्गीय दृष्टिकोण की जगह पर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने मजदूरों को उनकी संकीर्ण आर्थिक लड़ाई तक सीमित रखा। देश-दुनिया की बदलती स्थिति व मजदूर वर्ग के ऊपर हो रहे पूंजी के हमलों को वर्गीय एकजुटता से लड़ने के बजाय पूंजीवादी पार्टियों की शरण में ले जाकर वर्ग संघर्ष को कमजोर करने का काम किया जा रहा है। 
    
44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म करके लेकर आए गए लेबर कोड्स, मजदूर वर्ग को 100 साल पीछे की स्थिति में धकेल देंगे। इन लेबर कोड्स में मजदूरों के हड़ताल करने के संवैधानिक अधिकार को एक तरह से खत्म सा कर दिया गया है। हड़ताल करने वाले मजदूरों व हड़ताल का समर्थन करने वाले संगठन व मजदूरों पर जुर्माने से लेकर सजा तक के प्रावधान कर दिए गए हैं। महिलाओं से रात्रि पाली में कार्य कराने की छूट दे दी गई है। महिलाओं का सस्ता श्रम पूंजीपति को परोस दिया गया है। स्थाई कार्य पर स्थाई मजदूर रखने के कानूनी प्रावधान को खत्म कर दिया गया है। एक तरह से ट्रेड यूनियन आंदोलन का अपराधीकरण किया जा रहा है। एक तरह से लेबर कोड्स में सरकार ने उन्हीं प्रावधान को शामिल किया है जिनको ट्रेड यूनियनों ने लम्बे समय से छोड़ दिया था। ठेका प्रथा के खात्मे का कार्यभार, स्थाई कार्य पर स्थाई मजदूर, समान काम का समान वेतन का कार्यभार, फैक्टरी के भीतर मजदूरों को एक यूनियन में संगठित करने का कार्यभार इत्यादि कार्यभार केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें छोड़ चुकी थीं। इन्हीं को सरकार ने लेबर कोड्स में शामिल कर मजदूर वर्ग पर हमला बोला है। लेबर कोड्स के पारित होने के लगभग चार वर्ष बीत जाने के बाद भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें कोई व्यापक प्रतिरोध नहीं कर पाई हैं और ना ही भविष्य में कोई तैयारी नजर आ रही है। अपने मजदूरों को इन हमलों के खिलाफ गोलबंद करने के बजाय केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मजदूरों को कांग्रेस के पीछे गोलबंद कर उनकी चेतना को कुंद करने का प्रयास कर रही हैं। 
    
मजदूरों को यह समझना होगा कि मजदूरों को तमाम अधिकार उनके वर्ग संघर्षों की बदौलत हासिल हुए थे। देश की आजादी की लड़ाई में भी मजदूरों ने अपनी स्वतंत्र पहलकदमी प्रदर्शित कर आजादी की लड़ाई के साथ-साथ अपने को एक वर्ग के तौर पर संगठित करके मजदूर वर्ग की सत्ता पाने के लिए संघर्ष शुरू किया था। मजदूर वर्ग को समझना होगा कि चुनावबाज वामपंथी पार्टियां व उनकी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मजदूरों के संघर्षां से किनारा कर पूंजीपति की सेवा में खुद को प्रस्तुत कर चुकी हैं। अब मजदूरों को इनसे अलग होकर अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित कर अपना क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन सेन्टर बनाना होगा। व अपने उद्देश्य को साफ-साफ घोषित करना होगा। तमाम तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियां व उनके ट्रेड यूनियन सेंटर भी साफ-साफ पूंजीपति की पांतों में खड़े नजर आएंगे। यह बुनियादी विभाजन वर्ग सचेत मजदूर ही कर सकता है। यह मजदूर वर्ग का तात्कालिक कार्यभार बनता है कि वह लेबर कोड्स के खिलाफ अपनी वर्गीय एकता बनाकर प्रतिरोध की शुरूआत करे। क्योंकि ‘‘मजदूर वर्ग की मुक्ति स्वयं मजदूर वर्ग का कार्य है।’’  

आलेख

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तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

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