पहाड़ों से पलायन

यह वाकया पहाड़ों से यानी उत्तराखण्ड के पहाड़ों से जुड़ा है। एक दौर था कि जब उत्तराखण्ड को अलग राज्य बनाने के लिए आम जनता बड़ी मशक्कत और जद्दोजहद में लगी थी। वह उत्तराखण्ड राज्य बनाकर अपने सपनों को हकीकत में बदलना चाहती थी। उसका सपना था उत्तराखण्ड में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सड़कें, परिवहन आदि की समुचित व्यवस्था हो। लोग उत्तराखण्ड को एक खुशहाल राज्य बनाना चाहते थे। 
    
लेकिन आम जनता के इस संघर्ष में घुसपैठिये भी थे जो समाज की संवेदनशीलता का फायदा उठाना चाहते थे और अपना निजी स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे। इसमें कुछ बुद्धिजीवी और राजनैतिक दल शामिल थे। उत्तराखण्ड राज्य अलग बन जाने के बाद सत्ता पर यह बुद्धिजीवी और राजनीतिक पार्टी काबिज हो गये। जनता ने एक-एक कर पार्टियों को सत्ता में पहुंचाया लेकिन आम जनता के सपने पूरे न हो सके और जनता अपनी खुशहाल जिन्दगी के लिए तरस गयी। पहाड़ों से होने वाला  पलायन तेज होता गया। यह आज तक रुकने का नाम नहीं ले रहा है।
    
2018 में उत्तराखण्ड के 6338 गांवों में से 3,83,726 लोग अस्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं और 3946 गांवों में 1,17,981 लोग स्थायी रूप से पलायन कर गये हैं। साल 2022 में 6436 गांवों में से 3,07,310 लोग अस्थायी रूप से गांव छोड़ चुके हैं और 2067 गांवों में से 28,531 लोग स्थायी रूप से अपने गांवों से पलायन कर चुके हैं। देवभूमि कहा जाने वाला उत्तराखण्ड वीरान खण्डहरों में तब्दील कर दिया गया। और राजनीतिक दलों के लोग देहरादून में आलीशान महलों में जीवन यापन कर रहे हैं। और जनता तिल-तिल के लिए परेशान है। इसका क्या कारण है और कौन जिम्मेदार है?
    
बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, असुरक्षा व अस्पतालों की भयावह स्थिति ने जनता को अपनी जमीन, घर, इलाका व राज्य छोड़ने पर विवश किया। इसके जिम्मेदार सत्ता में बैठे लोग हैं। सरकार के पास पलायन को रोकने के लिए न कोई रोडमैप है और न ही कोई पुख्ता खाका मौजूद है। बस भाषणों में ही पलायन को रोकने का भरसक प्रयास कर रही है। पहाड़ों के खेत-खलिहान और घर बंजर और खण्डहरों में तब्दील हो चुके हैं। जनता की भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी ने अपने ही घर, इलाके और पहाड़ों को दुश्मन बना दिया है और शहरों को विस्फोटक बना दिया है। शहर इतना भार उठाने में सक्षम नहीं हैं और लाचारी वहां भी पीछा नहीं छोड़ रही है। 
    
दूसरा बड़ा व भयावह सत्य स्कूलों की बिगड़ती हालातों का है। आये दिन विद्यालयों का बंद होना चिंता का विषय बना हुआ है। इन पहाड़ों में या तो शिक्षा या अनपढ़ता - दो रास्ते बने हुए हैं। जनता किस रास्ते का चुनाव करे, उसकी समझ से परे की बात है। उत्तराखण्ड के 1671 विद्यालयों में ताला लटक चुका है और 3573 विद्यालय ऐसे हैं जो बंद होने के कगार पर हैं क्योंकि इन विद्यालयों में छात्र-छात्राओं की संख्या या तो 10 है या 10 से भी कम है। ये आंकड़े हिला देने वाले आंकड़े हैं जिसमें 102 विद्यालय ऐसे भी हैं जिनमें मात्र एक ही छात्र है। ये विद्यालय कितने दिन तक अपनी सांसें थाम पायेंगे कहना मुश्किल है। बस वहां पर पूंजीपति का डण्डा सरकार पर इस्तेमाल हुआ और विद्यालय बंद हो गये हैं। सोचने की बात है जब सरकारी विद्यालय बंद होंगे तभी तो प्राइवेट स्कूलों की रौनक बढ़ेगी। ऐसा ही हुआ है। अब पहाड़ों में शिक्षा का व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है। 
    
हमें पलायन के बजाय और अपने और अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए संघर्ष की राह चुनने की जरूरत है और हक-अधिकारों को छीनने की जरूरत है। जब तक लड़ेंगे नहीं तब तक मिलेगा नहीं। 
            -शेखर, हल्द्वानी

आलेख

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तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

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आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

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