शासक पूंजीपति वर्ग का दिवालियापन

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

पिछले तीन-चार दशकों में एक परिघटना सारी दुनिया के पैमाने पर मुखर होकर सामने आई है। यह है शासक वर्ग के तौर पर पूंजीपति वर्ग का पूर्ण दिवालियापन। ठीक उसी समय जब पूंजीपति वर्ग अजेय लग रहा था, उसी समय उसने पूरी तरह दिवालियापन होने का भी प्रदर्शन किया। इसकी अनेकानेक अभिव्यक्तियां हैं। 
    
एक लम्बे समय से स्वयं इस वर्ग के बुद्धिजीवियों की ओर से यह बात आती रही है कि आज नए विचारों या नई रचनात्मकता का पूर्ण अभाव है। यदि कुछ भी नया हो रहा है तो महज विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में। सामाजिक-वैचारिक तौर पर सारा कुछ पुराना और बुसा हुआ है। अभी हाल में ही भारत में भी एक स्वनाम धन्य बुद्धिजीवी ने एक अखबार में लेख लिखकर यह बात दोहराई कि भारतीय राजनीति में आज नए विचारों का अभाव है। कोई नया राजनीतिक चिंतन नहीं है।
    
साहित्य और कला में भी इसकी अभिव्यक्तियां हैं। आज की सबसे लोकप्रिय कला यानी सिनेमा में अक्सर ही यह दिखाया जाता है कि राजनीति और राजनीतिज्ञ ही समाज की सबसे बड़ी समस्या हैं। कम से कम उन्हें समाधान के तौर पर नहीं दिखाया जाता। फिर समाधान कहां है? यह सवाल या तो अनुत्तरित रहता है या फिर इसे किसी गैर-सरकारी संगठन नुमा गतिविधि में दिखाया जाता है।
    
और मानो वास्तविक जीवन ने कला का अनुसरण किया हो, बांग्लादेश में ऐसा हो भी गया। वहां एक जन विद्रोह की परिणति एक गैर-सरकारी संगठन वाले व्यक्ति के नेतृत्व में एक गैर-सरकारी संगठन नुमा सरकार के गठन में हुई। बांग्लादेश के समूचे राजनीतिक जगत में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिस पर लोग विश्वास कर सकें।     
    
अभी बहुत दिन नहीं हुए जब पूंजीपति वर्ग ने दुनिया भर में अपनी विजय पताका फहराई थी। 1989-90 में जब सोवियत खेमे का पतन हुआ था और नकली समाजवाद धराशाई हुआ था तब पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों ने घोषित किया था कि इतिहास का अंत हो गया है। यानी पूंजीपति वर्ग अंतिम और निर्णायक तौर पर विजयी हुआ है और समाज अब आगे मूलतः ऐसे ही रहेगा। अतीत में समाज बदलता रहा है पर अब आगे और नहीं बदलेगा। 
    
पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों द्वारा यह घोषणा अपने आप में इस वर्ग के वैचारिक दिवालियापन का सूचक थी। यह न केवल प्रकृति और समाज में व्याप्त सतत परिवर्तन के नियम को नकारती थी बल्कि यह बताती थी कि स्वयं यह वर्ग जड़ हो गया है। यह समाज में किसी भी परिवर्तन के रास्ते में बाधक बन गया है। 
    
महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस वर्ग के नुमाइंदों ने यह घोषणा तब की जब पूंजीपति वर्ग ने पूरे समाज को पीछे ले जाने की एक व्यापक मुहिम छेड़ दी थी। विकसित पूंजीवादी देशों से लेकर गरीब पिछड़े पूंजीवादी देशों तक में ‘कल्याणकारी राज्य’ पर एक व्यापक हमला बोल दिया गया था। इसी के साथ समाज की तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतों को हर संभव तरीके से आगे बढ़ाने का प्रयास किया जाने लगा था। 
    
यानी 1989-90 में इतिहास का अंत नहीं हुआ था। इसके विपरीत 1970 के दशक से ही इतिहास को सचेत तौर पर पीछे ले जाने का प्रयास होने लगा था। कोई आश्चर्य नहीं है कि उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के पहले बड़े प्रयास सुहार्तो के इंडोनेशिया तथा पिनोचे के चिली में हुए थे। 
    
कहा जा सकता है कि 1970 के दशक तक इतिहास की गति आगे की ओर थी लेकिन एक लंबे समय से इस गति का प्रेरक पूंजीपति वर्ग नहीं बल्कि मजदूर वर्ग था। यदि द्वितीय विश्व युद्ध के पहले और उसके बाद पूरी दुनिया में ‘कल्याणकारी राज्य’ कायम हुआ तो पूंजीपति वर्ग की मेहरबानी से नहीं बल्कि मजदूर वर्ग के संघर्षों के दबाव में। अब तक पूंजीपति वर्ग का प्रतिक्रियावादी चरित्र और मजबूत हो गया था और मजदूर वर्ग के कमजोर होते ही उसने इतिहास को पीछे ले जाने के लिए हमला बोल दिया। 
    
लेकिन पूंजीपति वर्ग यह भूल गया या यह समझने में अक्षम था कि ‘कल्याणकारी राज्य’ महज मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश जनता को कुछ राहत देने का मसला नहीं था। यह स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था की जरूरत थी। इसके अभाव में पूंजीवादी व्यवस्था महामंदी जैसी स्थिति में जाने के लिए अभिशप्त थी।
    
20वीं सदी के मध्य तक समूची दुनिया की पूंजीवादी व्यवस्था उस स्तर तक पहुंच चुकी थी जहां देशों के भीतर और समूची दुनिया के पैमाने पर किसी किस्म के नियमन और नियंत्रण के बिना यह सुचारू रूप से नहीं चल सकती थी। जब सारी दुनिया के ही पैमाने पर उत्पादन और वितरण हो रहा हो तथा इसकी बुनियादी इकाई यानी बहुराष्ट्रीय निगम आंतरिक तौर पर नियमित और नियंत्रित हां तब बाह्य और आंतरिक नियमन-नियंत्रण के बिना यह सब नहीं चलता रह सकता था। 
    
‘कल्याणकारी राज्य’ पर हमले के तहत उसने इसी नियमन और नियंत्रण पर हमला बोला। पूंजी को सारी दुनिया के पैमाने पर लूट की छूट दी गई। समूची पूंजीवादी व्यवस्था को 1929 से पहले की स्थिति में ले जाने की कोशिश की गई इस प्रावधान के साथ कि पूंजी को अपने कुकर्मों की सजा भुगतने के लिए तब की तरह अकेला नहीं छोड़ दिया जाएगा। जब भी पूंजी पर संकट आएगा, सरकार उसे बचाने के लिए आगे आएगी और मजदूर-मेहनतकश जनता की कीमत पर यह करेगी।         

यह देखना मुश्किल नहीं है कि यह सब पूंजी के तात्कालिक हितों की रक्षा भले करे पर यह पूंजीवादी व्यवस्था को और भी गहरे संकट में धकेलता था। इससे पूंजीवाद की अंतर्निहित अराजकता की समस्या और विकराल होती थी। मजदूर-मेहनतकश जनता की लगातार बदतर होती जाती हालत के मद्देनजर यह विकराल समस्या का रूप धारण कर लेती। यह आमजन को विद्रोह की ओर धकेलती थी। 
    
पूंजीपति वर्ग ने इस जन विद्रोह से निपटने के लिए दो प्रयास किये। एक तो उसने समाज की तमाम पुरातनपंथी और प्रतिक्रियावादी शक्तियों को पाला-पोषा। आम जन में फूट डालने से लेकर उन्हें नकली लक्ष्य की ओर उन्मुख करने के लिए यह बहुत काम का था। दूसरे, उसने गैर-सरकारी संगठनों को खूब बढ़ावा दिया। जैसे-जैसे जन राहत के कार्यों से सरकारें अपना हाथ खींचती गईं, वैसे-वैसे गैर-सरकारी संगठनों का जाल सघन होता गया। इसी के अनुरूप लोगों का नागरिक से भिखारी में रूपान्तरण होता गया। लोग राज्य या सरकार से एक नागरिक के तौर पर मांग कर सकते हैं जबकि किसी गैर-सरकारी संगठन के सामने भिखारी की तरह हाथ ही फैला सकते हैं। यह पूंजीपति वर्ग और सरकारों की सोची-समझी नीति का ही नतीजा था कि ग्रीनपीस जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों के आकार के गैर-सरकारी संगठन पैदा हो गए और मोहम्मद यूनुस के ग्रामीण बैंक जैसे देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगे। 
    
इस तरह समय की मांग तो यह थी कि राज्य पूरी दुनिया की पूंजीवादी व्यवस्था को एक वैश्विक सरकार के तहत नियमित करने की ओर आगे बढ़े पर हुआ यह कि पहले से मौजूद वैश्विक संस्थाएं भी निष्प्रभावी होती गईं। इसी तरह समय की मांग यह थी कि राज्य न केवल जन राहत बल्कि अन्य सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों को नियमित-नियंत्रित करने की ओर आगे बढ़ता (शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, इत्यादि) पर हुआ यह कि पहले की जन राहत से भी हाथ खींचकर उन्हें गैर-सरकारी संगठनों के हवाले कर दिया गया। राज्य की भूमिका बढ़ी पर केवल पूंजी की रक्षा में, चाहे वह ‘मुनाफा निजी और घाटा सार्वजनिक’ के रूप में हो या फिर जन पर नियंत्रण और दमन के रूप में।
    
इस स्थिति में पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों की भूमिका एक तरफ से फालतू हो जानी थी। यहां तक कि स्वयं पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी। यदि राज्य या सरकार के द्वारा पूंजी का मुनाफा सुनिश्चित है तो यह बात एकदम गौण हो जाती है कि पूंजी के मालिक या प्रबंधक क्या कर रहे हैं। वह पूंजी का प्रबंध अच्छा कर रहे हैं या बुरा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 2008-9 के वित्तीय संकट ने दिखाया कि सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को संकट में डालने वाले पूंजीपतियों का न केवल कुछ नहीं बिगड़ा बल्कि उन्होंने उस बीच रिकार्ड मुनाफा भी कमाया। 
    
रही पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों यानी पूंजीवादी राजनीतिज्ञ और विचारकां की बात तो वे भी इस समय एकदम फालतू हैं। पूंजीवादी राज्य के संचालन में कोई ऐसी भूमिका नहीं है, जिसमें उनकी उपस्थिति अनिवार्य हो। यदि उनकी कोई भूमिका बनती है तो केवल इसी रूप में कि वे कैसे लगातार मजदूर-मेहनतकश जनता को छलते हैं। वे पूंजीवादी समाज और राज्य की जड़ता को सुनिश्चित करने का काम करते हैं। जड़ता का मतलब होता है चीजें जैसी हैं वैसी ही बनी रहें। आज पूंजीवादी विचारकां और राजनीतिज्ञों का बस एक ही काम बन गया है कि वे लगातार समाज में यह भाव संचारित करें कि वर्तमान व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। 
    
और जब ऐसा हो तो यह सहज सी बात हो जाती है कि पूंजीपति वर्ग और उसके नुमाइंदों से किसी भी तरह की रचनात्मकता नहीं पैदा हो सकती। वे बस कदम ताल करने के लिए या चीजों को दोहराने के लिए अभिशप्त हैं। रचनात्मकता या कुछ नया करने के नाम पर वह बस चीजों को पीछे ले जा सकते हैं। 
    
इस सब की रोशनी में अरब विद्रोह से लेकर अभी हाल में श्रीलंका और बांग्लादेश में जो कुछ हुआ उसे समझा जा सकता है। बांग्लादेश में पहले विकल्प के तौर पर अवामी लीग, बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी थी। अब चौथे विकल्प के तौर पर मोहम्मद यूनुस जैसा व्यक्ति सामने आ गया है। यह हमारे समय की विद्रूपता को ही दिखाता है कि शेख हसीना का विकल्प मोहम्मद यूनुस हो जाता है।         

वैसे एक मायने में शासक पूंजीपति वर्ग आज काफी सफल रहा है। उसने अपने पीछे पूरे समाज को ही घसीट लिया है। यदि वह लगातार छुद्रता की ओर बढ़ता गया है तो उसने छुद्रता को ही महानता घोषित कर दिया है। यह कुछ ऐसे ही है जैसे भारत में संघियों ने महात्मा गांधी और नेहरू के बदले रंगा-बिल्ला को नायक के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई है। 
    
पूरी दुनिया में ही पूंजीपति वर्ग की यह स्थिति कोई बहुत अजीब चीज नहीं है। इतिहास में अक्सर ऐसा हुआ है कि कोई शासक वर्ग अपने पतन की अवस्था में पूरे समाज को ही उसी स्थिति में खींच लेता है। रोमन साम्राज्य के शासक वर्ग तीन-चार शताब्दियों तक ऊर्जा से भरपूर रहे। वे रचनात्मक थे और उन्होंने एक ऐसे साम्राज्य का निर्माण किया जैसा इतिहास में फिर नहीं देखा। लेकिन दूसरी सदी से वे क्रमशः पतन के गर्त में चलते चले गए और अंततः उसका पश्चिमी हिस्सा बर्बरों के सामने भरभरा कर गिर गया। दूसरी से पांचवीं सदी तक रोमन साम्राज्य का इतिहास पतन-सडांध का इतिहास है जो इसके पहले की उपलब्धियों की जड़ता से ही घिसटता रहा।
    
आज सारी दुनिया का पूंजीपति वर्ग पतन और सडांध की स्थिति में है। उसमें किसी तरह की ऊर्जा और ओजस्विता नहीं है। यदि उसमें किसी तरह की गति और रचनात्मकता है तो विज्ञान और तकनीक में विकास के कारण जो स्वयं पूंजी के पूंजी बने रहने की शर्त है। लेकिन स्वयं यह गति और रचनात्मकता भी पूंजीपति वर्ग के पतन से टकरा रही है। 
    
यह सब कब तक चलेगा? कब तक पूंजीपति वर्ग समाज को आगे बढ़ने से रोके रखेगा? कब तक पतित शासक वर्ग की छुद्रता पूरे समाज पर हावी रहेगी? 
    
इस बारे में इतिहास का सबक रोचक प्रसंग है। फ्रांस में पतित सामंती वर्ग की पुरातन व्यवस्था (एन्सिएन रेजीम) के खिलाफ 18 वीं सदी की शुरुआत से ही संघर्ष होते रहे। पता नहीं कितने लोग इस संघर्ष में काल-कवलित हुए। पर पुरातन व्यवस्था चलती रही मानो इसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता था। फिर एक समय आया जब यह व्यवस्था भहरा कर गिर पड़ी। फ्रांस की महान क्रांति शुरू हो गई। ठीक उसके पहले किसी को भी भान  नहीं था कि ऐसा हो जाएगा। 
    
यही रूस में भी हुआ। रूस में भी पुरातन व्यवस्था के खिलाफ पहला विद्रोह 1825 में जारशाही के अफसरों ने किया। इसके बाद कई पीढ़ियां निकल गईं जारशाही से संघर्ष करते हुए। और जब 1917 में जारशाही ढही तो उसके ठीक पहले उसका किसी को भान नहीं था। 
    
आज पीछे पलट कर देखने से हर किसी के सामने यह स्पष्ट है कि फ्रांस या रूस की पुरातन व्यवस्थाएं कितनी जर्जर थीं। कि कोई हल्का सा भी झटका उन्हें भहरा कर गिरा सकता था। जड़ता के भीतर परिवर्तन की सारी ऊर्जा एकत्र हो चुकी थी। 
    
आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

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राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।