बांग्लादेश में जन उभार द्वारा शेख हसीना के सत्ता से बेदखल होने के बाद से यह चर्चा होने लगी है कि भारत के पड़ोसी देशों में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ रही है। श्रीलंका और बांग्लादेश के बाद म्यांमार में चल रहे गृह युद्ध को क्षेत्र में राजनीतिक अस्थिरता की एक अन्य प्रमुख अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। 2021 में म्यांमार में फौजी जुंटा ने चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। आज 3 साल बाद फौजी जुंटा की म्यांमार पर पकड़ काफी कमजोर हो चुकी है।
ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के बाद से म्यांमार में ज्यादातर समय फौजी शासन कायम रहा है। फौजी शासन के समानान्तर देश के अलग-अलग इलाकों में हथियारबंद समूह द्वारा इस शासन के खिलाफ संघर्ष भी चलता रहा है। म्यांमार के भीतर लोकतंत्र बहाली को लेकर लंबा शांतिपूर्ण आंदोलन भी रहा है। 2021 के सैन्य तख्तापलट के बाद से इन सारी प्रक्रियाओं में एक आपसी तालमेल कायम हुआ है। फौजी जुंटा की विरोधी ताकतों के द्वारा राष्ट्रीय एकता का गठन किया गया है। इस सरकार को यूरोपीय संघ ने मान्यता दे रखी है। पीपुल्स डिफेंस फोर्स इस सरकार की सैनिक टुकड़ी है। इसका गठन 5 मई 2021 को हुआ था। इसके सैनिकों की संख्या 2024 में बढ़कर एक लाख हो जाने का अनुमान है। ये अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध चलाते हैं।
म्यांमार एक पिछड़ा पूंजीवादी देश है। म्यांमार का बहुसंख्यक नृजातीय समूह बामर है। यह इरावडी नदी घाटी में रहता है और अन्य समूहों की तुलना में अपेक्षाकृत विकसित है। ये म्यांमार की आबादी का 69 प्रतिशत हिस्सा बनते हैं। इनके अलावा म्यांमार में कई अन्य नृजातीय समूह हैं जो म्यांमार के पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। इनमें प्रमुख हैंः करेन, राखाइन, शान, मोन, चिन, काचिन, कायाह, आदि। इनमें से ढेरों समूह लंबे समय से आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए हथियारबंद संघर्ष कर रहे हैं। फौजी जुंटा से लड़ रही राष्ट्रीय एकता की सरकार में म्यांमार को संघीय ढांचे के तहत संचालित करने पर सहमति बनी है। इसी वजह से विभिन्न संघर्षरत समूहों ने इस सरकार को समर्थन दिया है।
म्यांमार में पीपुल्स डिफेंस फोर्स को मिल रही बढ़त की वजह से भारतीय शासकों के ‘एक्ट ईस्ट पालिसी’ के लिए पैदा हो रही समस्या के संबंध में ‘दि डिप्लोमेट’ पत्रिका कहती है, ‘‘देश के सीमावर्ती इलाकों में विभिन्न संघर्षरत समूहों के सामने म्यांमार की सेना का क्षेत्रों को खाली करना अपेक्षा से परे है। म्यांमार में सेना को समर्थन करने की भारत की परंपरागत नीति नागालैंड के अलगाववादी गुटों के प्रति म्यांमार की सेना द्वारा बढ़ाए गए सुरक्षा कदमों की एवज में होने के रूप में देखा जाता है। इससे ज्यादा यह अराकान तट में चीन की बढ़ती पहुंच के भूराजनीतिक संतुलक के रूप में है। सैन्य नियंत्रण के व्यापक तौर पर ढ़ह जाने और युद्ध के म्यांमार के हृदयस्थल में पहुंच जाने की वजह से भारत को सोचना चाहिए कि क्या स्थानीय सत्ता केन्द्रों को समर्थन देकर ज्यादा स्थायी सीमा को सुनिश्चित किया जाए। यद्यपि नायपिटा बिना शर्त समर्थन चाहता है, आज के टकरावों की स्थिति में भारत के प्रोजेक्ट सफल या यहां तक कि जारी भी नहीं रह सकते अगर विभिन्न समूहों के साथ नए रिश्ते कायम नहीं किए जाते, जो कि इस समय अप्रत्यक्ष ही होने चाहिए।’’ (दि डेप्लोमेट, 21 अगस्त, 2024)
आज जब भारत के पड़ोसी देशों में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ रही है, तब इस सबके लिए भारत के शासक वर्ग की जिम्मेदारी का सवाल इन संकटग्रस्त देशों में उठने लगा है। भारत के शासक पूंजीपति वर्ग ने इन देशों को अपने मुनाफे के लिए निचोड़ा है। इसके लिए इन देशों के पतित शासकों से गठजोड़ कायम किया और जनता के इनके खिलाफ उठ खड़े होते जाने पर भी इनका बचाव किया। भारत का पूंजीपति वर्ग न सिर्फ अपने देश के मजदूरों-मेहनतकशों की नफरत का पात्र है बल्कि वह इन पड़ोसी देशों की जनता की नफरत का पात्र भी है। भारत का शासक वर्ग चिंतित है कि इस क्षेत्र में राजनीतिक अस्थिरता इसी तरह बढ़ती रही तो कहीं उसके शोषण और अन्याय की शिकार विभिन्न देशों की जनता एक ना हो जाए।
उबलते पड़ोस से चिंतित भारतीय शासक
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।