अमेरिकी छात्रों का संघर्ष और अमेरिकी साम्राज्यवादी

18 अप्रैल से कोलंबिया विश्वविद्यालय में भड़की चिंगारी दावानल बनती जा रही है। अमेरिका के तमाम विश्वविद्यालयों में फैलते हुए ज्वाला यूरोप के विश्वविद्यालयों तक पहुंच चुकी है। अमेरिकी छात्रों की देखा देखी नीदरलैण्ड के डच छात्रों ने भी कुछेक विश्वविद्यालयों में अपने तम्बू गाड़ दिये हैं। अमेरिका में ढेरों विश्वविद्यालयों में छात्र तम्बू गाड़ कर बैठे हैं। ये सभी इजरायल द्वारा जारी फिलिस्तीनी नरसंहार का विरोध कर रहे हैं। ये अपने शासकों से इजरायल से नाता तोड़ने, इजरायल से जुड़ी कम्पनियों की विश्वविद्यालयों में फंडिंग, हस्तक्षेप का विरोध कर रहे हैं। 
    
छात्रों के विरोध का अमेरिकी साम्राज्यवादी जहां एक ओर दमन कर रहे हैं वहीं उन्हें इस आग के और फैलने का खतरा भी सता रहा है। अमेरिकी छात्रों की पहलकदमी का असर मजदूरों पर भी पड़ रहा है। गूगल कंपनी के मजदूरों ने अपनी कंपनी के इजरायल से सहयोग के खिलाफ प्रदर्शन किया। परिणामस्वरूप गूगल कंपनी ने 50 कर्मचारियों को काम से निकाल दिया। अब तक 2800 छात्र अमेरिका में गिरफ्तार किये जा चुके हैं। 
    
विश्वविद्यालयों के प्रशासन इस वक्त अपने उपाधि वितरण समारोहों व अन्य कार्यक्रमों को लेकर छात्रों से प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं। छात्र प्रतिरोध के तरह-तरह के रूप निकाल रहे हैं। कहीं वो फिलिस्तीन समर्थक नारे वाले कपड़े पहन इन समारोहों में भागीदारी कर रहे हैं; कहीं वे मुख्य अतिथि के भाषण के वक्त सामूहिक रूप से उनकी ओर पीठ कर खड़े हो जा रहे हैं; कहीं वे समारोहों में नारेबाजी कर रहे हैं; तो कहीं बैनर लहरा रहे हैं। कुछेक जगह जबरन उनके टैन्ट उखाड़़ने का प्रयास भी पुलिस ने किया। सारे दमन गिरफ्तारी के बावजूद छात्र बुलंद हौंसलों के साथ संघर्ष में डटे हैं। 
    
अपने देश में छात्रों के संघर्ष, आगामी राष्ट्रपति चुनाव व दुनिया भर की जनता के प्रतिरोध के चलते अमेरिकी राष्ट्रपति को इजरायल के प्रति अपने सुर बदलने पड़े हैं। अब वे दिखावे के लिए बार-बार इजरायल को रफाह में नरसंहार रोकने की चेतावनी दे रहे हैं। दिखावे के लिए ही वे युद्ध विराम समझौते हेतु वार्ताएं चलवा रहे हैं जिन्हें इजरायल बारम्बार ठुकरा दे रहा है। बाइडेन का दिखावा इसी से स्पष्ट हो जाता है कि इस दौरान भी अमेरिका ने इजरायल को हथियारों की सप्लाई जारी रखी है। 
    
दरअसल अमेरिका में दोनों प्रमुख पार्टियां डेमोक्रेटिक पार्टी व रिपब्लिकन पार्टी मजबूती से इजरायल के साथ खड़ी हैं वे निर्दोष फिलिस्तीनियों के नरसंहार की समर्थक हैं। वे इजरायल के कुकर्मों को आगे बढ़ा पश्चिम एशिया में अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहती हैं। चुनाव के मद्देनजर ही उन्हें इस नरसंहार पर अपने सुर बदलने पड़े हैं। 
    
इस सबके पीछे की असलियत यही है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी कम्पनियां इजरायल से तरह-तरह के समझौते कर इस नरसंहार से भी लाभ कमा रही हैं। अमेरिकी हथियार कंपनियों के हथियार बिक रहे हैं। तो टेक कम्पनियां इजरायल को क्लाउड से लेकर कृत्रिम मेधा की तकनीक देकर उसे टारगेटेड हत्याओं में मदद कर रही है। अमेजन, माइक्रोसाफ्ट, गूगल, इंटेल सभी कंपनियां इजरायल को इस नरसंहार में किसी न किसी रूप में तकनीक देकर मुनाफा पीट रही हैं। इस तकनीक में चेहरा पढ़ने, टारगेट को निर्धारित करने, निगरानी करने, डाटा विश्लेषण करने सरीखी चीजों से जुड़े एप्स शामिल हैं। 
    
अमेरिकी इजारेदार कम्पनियों के मुनाफे, उनकी वर्चस्व की चाहत के चलते ही अमेरिकी राज्य व उसकी दोनों प्रमुख पार्टियां निर्लज्जता से इजरायल के साथ खड़ी हैं। अमेरिका के समर्थन के दम पर ही इजरायली शासक निर्दोष फिलिस्तीनियों का कत्लेआम लगातार जारी रखे हुए हैं। 
    
आने वाला वक्त बतलायेगा कि फिलिस्तीन अमेरिकी शासकों को वियतनाम युद्ध सरीखी हार की तरफ ले जायेगा या नहीं। अमेरिकी छात्र आज मजबूती के साथ अपने लुटेरे शासकों के खिलाफ डटे हैं। वे मजदूरों में भी सुगबुगाहट पैदा कर रहे हैं। अगर मजदूर छात्रों के साथ सड़कों पर आ डटे तो अमेरिकी शासकों को पीछे हटने को मजबूर कर सकते हैं।

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।