
आजकल बहुत कम नेता हैं जो अपने राजनीतिक जीवन का कोई लक्ष्य या मिशन घोषित करते हैं। सबका लक्ष्य होता है सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना पर वे उसे घोषित नहीं कर सकते। नरेन्द्र मोदी जैसे हिन्दू फासीवादियों का सत्ता के शिखर के साथ जो दूसरा लक्ष्य है यानी हिन्दू राष्ट्र का, उसे वे घोषित नहीं कर सकते। ऐसे में राहुल गांधी जैसे नेता अपवाद लगते हैं जो कहते हैं कि उनके जीवन का कोई मिशन है। यह मिशन क्या है?
राहुल गांधी ने पिछले कुछ समय से एक नारा दिया है जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागेदारी। यह जातिगत आरक्षण से संबंधित नारा है। इसका मतलब है कि आबादी में जिस जाति समूह की जितनी हिस्सेदारी है, सरकारी नौकरियों में तथा अन्य जगह भी उनको उतना ही हिस्सा मिलना चाहिए। यह आरक्षण के जरिये हासिल किया जायेगा। जातिवार आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण इसका पहला कदम होगा। अब राहुल गांधी ने कहा है कि यह नारा उनके लिए चुनावी नारा नहीं है बल्कि उनके जीवन का मिशन है।
इस नारे और उससे संबंधित बातों का सारतत्व यह है कि देश में जो जाति के आधार पर गैर-बराबरी है वह समाप्त होनी चाहिए। सरकारी-निजी हर क्षेत्र में सभी जाति के लोगों की बराबर उपस्थिति होनी चाहिए। मसलन उद्योगपतियों में दलित, पिछड़े भी अपनी जाति के अनुपात के हिसाब से होने चाहिए। इसका मतलब यह है कि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सभी क्षेत्रों में जाति अप्रासंगिक हो जानी चाहिए। ज्यादा से ज्यादा वह निजी पहचान के रूप में रह सकती है। इस स्थिति को हासिल कैसे किया जायेगा?
राहुल गांधी और उनकी पार्टी ने स्पष्ट किया है कि यह सम्पत्ति के किसी तरह के पुनर्बंटवारे से नहीं हासिल किया जायेगा। भाजपाईयों ने उन पर ठीक यही आरोप लगाया था। कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि यह आरोप निराधार है। वे किसी भी तरह के सम्पत्ति के पुनर्बंटवारे के समर्थक नहीं हैं। तब फिर यह कैसे हासिल किया जायेगा? जातिगत आरक्षण के जरिये।
शायद राहुल गांधी को पता नहीं पर उनके परनाना जवाहर लाल नेहरू ने भी आजादी के पहले कुछ ऐसा ही लक्ष्य घोषित किया था। आजादी की संध्या पर उन्होंने कहा था कि हमने नियति से वायदा किया है, हमें हर आंख के आंसू पोंछने हैं। नेहरू तो और भी आगे जाकर मार्क्सवाद और समाजवाद की बात करते थे। उनके ही नेतृत्व में कांग्रेस ने घोषित किया था कि आजादी के बाद जमीनें किसानों को बांट देंगे। राजे-रजवाड़ों, जमींदारों और मठों-मंदिरों की सम्पत्ति छीनना इसमें शामिल था क्योंकि ज्यादातर जमीनें इन्हीं के पास थीं।
राहुल गांधी से कहीं ज्यादा ‘उग्र’ और ‘क्रांतिकारी’ उनके परनाना ने क्या किया? आजादी के बाद वे मार्क्सवाद-समाजवाद भूल गये और अपने वादों से मुकर गये। वर्ण-जाति व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने के लिए सम्पत्ति का पुनर्बंटवारा करने के बदले वे जातिगत आरक्षण की बेहद लचर व्यवस्था ले आये। परिणाम क्या निकला? आज पचहत्तर साल बाद उनकी चौथी पीढ़ी के वारिस को ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी’ का नारा लगाना पड़ रहा है और जातिगत आरक्षण के बेअसर हो चुके नुस्खे को रामबाण के तौर पर पेश करना पड़ रहा है।
यह जमाने का मिजाज ही है कि राहुल गांधी अपनी बातों में भी अपने परनाना की तरह उग्र नहीं हो पा रहे हैं। वे नहीं कह पा रहे हैं कि देश से वर्ण-जाति व्यवस्था का खात्मा उनके जीवन का मिशन है जिसे वे सम्पत्ति के पुनर्बंटवारे के जरिये हासिल करेंगे। वे देश के बीस-बाईस पूंजीपतियों पर देश की सम्पत्ति लूटने का आरोप लगाते हैं पर यह नहीं कह पाते कि सत्ता में आने पर वह यह लूट छीनकर आम जनता पर खर्च करेंगे।
राहुल गांधी चाहते हैं कि उन्हें सत्ता के लालची नेता के बदले एक मिशनरी राजनेता के तौर पर देखा जाये। पर ऐसे नख-दंत विहीन मिशन और मिशनरी से समाज का क्या बनने-बिगड़ने वाला?