हिन्दू फासीवादी सोच में गरीब और गरीबी

किसी को इस बात पर अचरज हो सकता है कि देश की वर्तमान सरकार इतने शान के साथ सारी दुनिया को कैसे बता सकती है कि वह देश के अस्सी करोड़ लोगों (करीब साठ प्रतिशत आबादी) को पांच किलो राशन मुफ्त हर महीने दे रही है। सरकार के मंत्री विदेश में जाकर इसे शान से दोहराते हैं। 
    
इसमें अचरज की बात यह है कि इसके द्वारा सरकार खुद स्वीकार कर रही है कि देश की साठ प्रतिशत आबादी एकदम शाब्दिक अर्थों में भुखमरी की शिकार है। यानी वह सरकार द्वारा दिये जा रहे मुफ्त राशन की मोहताज है। अब साठ प्रतिशत आबादी का खाने को मोहताज होना तो किसी भी सरकार के लिए शान की बात नहीं हो सकती। यह इस सरकार के लिए भी नहीं है। इसीलिए वह दावा करती है कि उसने पन्द्रह करोड़ आबादी को पिछले दस साल में भुखमरी से ऊपर निकाला है। 
    
फिर वह इस शर्म की बात को शान की तरह कैसे और क्यों पेश कर रही है? इसे समझने के लिए हिन्दू फासीवादियों की सोच को समझना होगा। 
    
हिन्दू फासीवादियों की विचारधारा सवर्ण मध्यम वर्ग में पैदा हुई और वह इसकी ही सोच को अभिव्यक्त करती है। एक लम्बे समय तक हिन्दू फासीवादियों का आधार इसी तक सीमित था। आज भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ज्यादातर प्रचारक इसी पृष्ठभूमि से आते हैं। 
    
यह जानी-पहचानी बात है कि भारत की वर्ण-जाति व्यवस्था साथ ही वर्गीय व्यवस्था भी थी या यूं कहा जाये कि वर्गीय व्यवस्था ने भारत में वर्ण-जाति व्यवस्था का रूप ग्रहण कर लिया था। उच्च वर्ग साथ ही उच्च वर्ण भी थे। इसी तरह निम्न वर्ग साथ ही निम्न वर्ण। मध्यकाल से कुछ शूद्र खेतिहर जातियों के ऊपर उठने से इसमें कुछ परिवर्तन हुआ पर कुल मिलाकर अंग्रेजों के यहां आने तक यह समीकरण बना रहा। 
    
अब वर्ण-जाति व्यवस्था के बारे में मानकर चला जाता था कि यह दैवीय व्यवस्था है और किसी खास वर्ण-जाति में व्यक्ति का जन्म उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। इसलिए यदि कोई निम्न वर्ण-जाति में पैदा हुआ है तो वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार है क्योंकि यह उसके पिछले जनम का फल है। इस तरह निम्न वर्ण-जाति का अपमान तथा गरीबी स्वाभाविक चीज बन जाती थी जिसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं था। उनकी यही नियति थी और उन्हें इसे स्वीकार करना चाहिए था। ऊपर के लोग ज्यादा से ज्यादा इनके प्रति दयाभाव दिखा सकते थे। नीचे के लोगों के कोई अधिकार नहीं थे और उन्हें इस बात से संतुष्ट रहना चाहिए था कि वे जिन्दा हैं। 
    
पूंजीवाद में मध्यम वर्ग का मजदूर वर्ग और गरीबों के प्रति रुख ज्यादा भिन्न नहीं होता। यह गरीबों की गरीबी के लिए उन्हें ही जिम्मेदार मानता है। बस यह पिछले जन्म के कर्मों का फल नहीं होता है बल्कि इसी जन्म के कर्मों का फल होता है। यदि गरीब लोग आलसी और कामचोर न हों, वे नशाखोरी न करें, अन्य किस्म के व्यसनों में लिप्त न हों तथा अपने बच्चों को पढ़ाये-लिखायें तो वे भी गरीबी से निकल सकते हैं। मध्यम वर्ग मजदूरों और गरीब लोगों को कभी-कभी उससे भी ज्यादा घृणा और हिकारत की नजर से देखता है जितना कि पूंजीपति वर्ग। 
    
भारत के मध्यम वर्ग का निर्माण ज्यादातर सवर्णों से होने के चलते इसमें गरीबी और गरीब लोगों के प्रति जातिगत और वर्गीय दोनों भाव आ जाते हैं। यह भी सच है कि देश के गरीबों में ज्यादातर दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं। हालांकि सवर्णों में आज आधे से ज्यादा आबादी गरीबी में जी रही है पर जातिगत श्रेष्ठता बोध इन्हें बाकी गरीबों से उसी तरह की नजदीकी महसूस नहीं करने देता। 
    
जैसा कि पहले कहा गया है हिन्दू फासीवादियों का लम्बे समय तक आधार इसी मध्यम वर्ग में रहा था और आज भी संघ के ज्यादातर प्रचारक इसी पृष्ठभूमि से आते हैं। ऐसे में गरीबी और गरीबों के प्रति सोच इसी से बनती है। एक आम संघी प्रचारक गरीबों से किसी तरह की एकात्मता नहीं महसूस करता है। वह उन्हें बस अपने हिन्दू राष्ट्र के चारे के तौर पर देखता है। संघ का पूरा इतिहास गरीबों के किसी भी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष से वंचित है। इन्होंने ज्यादा से ज्यादा किया है तो गरीब आबादी में दान-दक्षिणा का काम। चाहे आदिवासी इलाकों में इनका काम हो या फिर दलित बस्तियों में (वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती), इसका चरित्र दान-दक्षिणा का ही है। ट्रेड यूनियन मोर्चे पर भी वे देश हित, संस्थान हित के बाद ही मजदूर हित की बात करते हैं। यानी मजदूरों का हित मालिकों की कृपा पर निर्भर है।
    
यहीं से देश के मुसलमानों के बारे में हिन्दू फासीवादियों की सरकार के द्वारा किये जाने वाले दावे को समझा जा सकता है। संघी प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सभी कहते हैं कि उनकी सरकार देश के मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव नहीं करती। प्रमाण? सरकार की सारी राहत योजनाएं मुसलमानों के लिए भी उपलब्ध हैं। उन्हें भी पांच किलो राशन मुफ्त मिल रहा है। उन्हें और क्या चाहिए? यदि संसद और विधानसभाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो उन्हें इसकी शिकायत नहीं करनी चाहिए। आखिर यह हिन्दुओं का देश है! यदि मुसलमानों की ज्यादातर आबादी गरीब है तो इसके लिए वे ही जिम्मेदार हैं। आखिर वे ढेर सारे बच्चे जो पैदा करते हैं! 
    
बहुत कम लोग यह देख पाते हैं कि मुसलमानों के प्रति इस रुख में तथा गरीब हिन्दुओं के प्रति रुख में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों का सारतत्व एक है। गरीब आबादी को बस जिन्दा रहना चाहिए और अमीरों के लिए काम करना चाहिए। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में नहीं सोचना चाहिए। यही नहीं उन्हें सरकार के प्रति एहसानमंद होना चाहिए कि वह उन्हें जिन्दा रहने में मदद कर रही है। 
    
यह अद्भुत है कि गरीब आबादी के प्रति हिन्दू फासीवादियों का यह रुख उदारीकरण के पक्षधर बड़े पूंजीपतियों तथा उनके कलमघसीटों के रुख से कितना मेल खाता है। जैसा कि सामान्य जानकारी की बात है बीसवीं सदी का ‘कल्याणकारी राज्य’ मजदूरों के संघर्षों तथा दुनिया में समाजवाद का परिणाम था। यह वह चीज थी जिसे दुनिया भर के मजदूर वर्ग ने लड़कर हासिल किया था। ‘कल्याणकारी राज्य’ पूंजीपति वर्ग द्वारा दी गयी खैरात नहीं थी। उसे उनसे छीना गया था। यह मजदूरों का अधिकार और सरकार का कर्तव्य था कि सरकार उन्हें राहत प्रदान करे चाहे वह शिक्षा, स्वास्थ्य का मामला हो या फिर बेरोजगारी भत्ता। 
    
बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में मजदूर संघर्षों के कमजोर पड़ने पर पूंजीपति वर्ग ने ‘कल्याणकारी राज्य’ पर जो हमला बोला उसका सारतत्व यही था कि इसे अधिकार के बदले खैरात में रूपान्तरित कर दिया जाये। इस मामले में पूंजीपति वर्ग जहां जितना सफल हुआ उसी मात्रा में वहां सरकारी राहत खैरात में बदल गई। पिछड़े देशों में, जहां ‘कल्याणकारी राज्य’ पहले ही बहुत लचर था, यह सबसे ज्यादा हुआ। 
    
भारत में उदारीकरण की नीतियां हिन्दू फासीवादियों ने नहीं बल्कि कांग्रेसियों ने लागू कीं। यह अकारण नहीं है कि राजनीतिक तौर पर इसका सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेसियों ने नहीं बल्कि भाजपाईयों ने उठाया। यह भी अकारण नहीं है कि 1991 में भाजपाईयों ने कांग्रेसियों पर यह आरोप लगाया था कि उन्होंने उनकी नीतियां चुरा ली थीं। 
    
उपरोक्त सब की रोशनी में देश में भयंकर स्तर पर पहुंच चुकी असमानता तथा देश की दौलत के चंद हाथों में केन्द्रित होते जाने के प्रति हिन्दू फासीवादियों के रुख को समझा जा सकता है। सवर्ण मध्यम वर्ग में आधार और उसकी सोच के चलते संघ परिवार की आर्थिक सोच अजीबोगरीब खिचड़ी की शिकार थी। एक ओर वह छोटी सम्पत्ति के हितों की बात करती थी तो दूसरी ओर निजीकरण और मुक्त प्रतियोगिता की। मध्यमवर्गीय भावनाओं को सहलाते हुए भी वह असल में बड़े पूंजीपतियों के सबसे दक्षिणपंथी हिस्सों के हितों की वकालत करती थी। वह शुरू से नेहरूवादी नीतियों की विरोधी थी तथा देश में अमेरिकी माडल की समर्थक थी। 
    
देश के बड़े पूंजीपति वर्ग ने जब अंततः 1991 में नेहरूवादी नीतियों को त्याग दिया तो संघ परिवार का वही रुख सामने आया। भाजपा ने कांग्रेस पर अपनी नीतियां चुरा लेने का आरोप लगाया तो संघ ने स्वदेशी जागरण मंच का गठन किया। समय ने दिखाया कि दूसरा तो महज मध्यम वर्गीय भावनाओं को सहलाने के लिए था। संघ परिवार असल में उदारीकरण के साथ खड़ा था। 
    
यदि इसमें कहीं कोई दुविधा थी तो मोदी के ‘गुजरात माडल’ ने इसे खत्म कर दिया। ‘गुजरात माडल’ और कुछ नहीं बड़े पूंजीपति वर्ग द्वारा बेतहाशा लूट का माडल था जिसे सुगम बनाया मोदी सरकार ने। मोदी सरकार ने खुद सार्वजनिक सम्पत्ति को थोक के भाव पूंजीपतियों को सौंप दिया। बाद में मोदी यही ‘गुजरात माडल’ दिल्ली ले आये और पिछले दस सालों में समूचा देश ही गुजरात हो गया है। कोई शक की गुंजाइश न रह जाये इसलिए मोदी ने संसद में इन लुटेरों को ‘वेल्थ क्रियेटर’ की उपाधि से नवाजा। यानी देश की धन सम्पदा देश के मजदूर-किसान नहीं बल्कि ये लुटेरे पैदा कर रहे हैं। ये मेहरबानी करके गरीबों को अपने खजाने से पांच किलो राशन मुफ्त देने दे रहे हैं। गरीबों को इन ‘वेल्थ क्रियेटर’ और मोदी का एहसान मंद होना चाहिए। 
    
यह गौरतलब है कि संघ ने पिछले दस सालों में सरकार द्वारा बड़े पूंजीपतियों को लुटाये जाने वाले खजाने तथा बेतहाशा बढ़ती असमानता की कोई आलोचना नहीं की है। मजदूर-गरीब आबादी के साथ इस सबका सबसे बुरा असर निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ा है। यही वर्ग संघ की शाखाओं में रोज बिना नागा ‘राष्ट्र वंदना’ करने वाले स्वयं सेवकों को मुहैय्या कराता रहा है। फिर भी संघ चुप है। 
    
उसकी चुप्पी उसी सोच से पैदा होती है। यदि गरीब लोग अपनी गरीबी के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं तो मध्यम वर्ग और उसके संघी नुमाइंदे किस मुंह से दावा कर सकते हैं कि निम्म मध्यम वर्ग की भीषण तबाही के लिए उदारीकरण की नीतियां जिम्मेदार हैं? निम्न मध्यम वर्ग हसरत भरी नजरों से देख रहा है कि उदारीकरण के दौर में पूंजीपति वर्ग के साथ उच्च मध्यम वर्ग भी फल-फूल रहा है। वह सोचता है कि उसका भी समय आयेगा। वह नहीं देख पाता कि उसकी तबाही तथा ऊपर वालों के फलने-फूलने में सीधा संबंध है। ऊपर वाले इसीलिए फल-फूल रहे हैं कि नीचे वाले तबाह हो रहे हैं। एक की समृद्धि दूसरे की बदहाली पर टिकी है। 
    
संघी अपनी सोच की वजह से इसे नहीं समझ सकते। यही नहीं। इससे भी आगे जाकर वे सरकार और पूंजीपति वर्ग के साथ खड़े हो जाते हैं। वे स्वयं अपनी तबाही को जायज ठहराने लगते हैं। स्वयं को तथा अपने जैसों को कोसना उनकी नियति है। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें इतनी आसानी से धर्म के नाम पर या राष्ट्र के नाम पर उन्मादी बनाया जा सकता है। अपने सारे दुःख-कष्ट को एक काल्पनिक शत्रु के मत्थे मढ़ देना सबसे आसान रास्ता है। 
    
जैसा कि बार-बार रेखांकित किया गया है देश की ज्यादातर आबादी का भयंकर गरीबी-बदहाली में जीना हिन्दू फासीवादियों के लिए कोई चिंता या शर्म की बात नहीं है। वे इसे सहज-स्वाभाविक मानकर चलते हैं। यही नहीं वे इस गरीब आबादी को अत्यन्त हिकारत की नजर से देखते हैं। उनकी नजर में यह मूढ़-जाहिल जनता है जिसे आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। यह प्रजा है जिसे किसी भी किस्म की सरकारी राहत के लिए राजा का एहसान मंद होना चाहिए। इसके कोई अधिकार नहीं यह परजीवी है जो ‘वेल्थ क्रियेटरों’ पर लगाये जा रहे सरकारी कर के कारण जिन्दा है। यदि ‘वेल्थ क्रियेटरों’ की दौलत दिन-दुगुना रात-चौगुना बढ़ती जा रही है तो इस गरीब आबादी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। उसे पांच किलो राशन मुफ्त मिल रहा है। वह एहसान फरामोश होगी यदि वह कोई शिकायत करे। और यह तो विद्रोह ही होगा यदि वह पूछे कि मोदी जी क्या सरकारी राहत आप अपनी जेब से दे रहे हैं?
    
एक जमाना था जब हिन्दू फासीवादियों से बिल्कुल उलटे चरित्र के यानी भले लोग सोचा करते थे कि कैसे गरीबों का भला किया जाये? लेकिन फिर उनसे भी ज्यादा भले लोगों ने बताया कि गरीब यानी मजदूर ही समाज की सारी धन-सम्पदा पैदा करते हैं और दुनिया उन्हीं के कंधों पर टिकी है। यही नहीं, उन्होंने बताया कि ये ही नये समाज के निर्माता बनेंगे। तब से दुनिया भर की सारी नदियों में बहुत सारा पानी बह चुका है पर समाज की मूलभूत सच्चाई वही है। आज नहीं तो कल हिन्दू फासीवादियों को भी इस सच्चाई का सामना करना पड़ेगा जो उनके लिए बहुत क्रूर साबित होगी। 

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