आजकल दुनिया भर के कई देशों में फासीवादी और धुर-दक्षिणपंथी अपने-अपने देश को फिर महान बनाने का नारा लगा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प नामक लंपट, जिसे एक अमरीकी अदालत ने इसके लंपटपन के ही एक मामले में दोषी करार दिया, ‘अमेरिका को फिर महान बनाओ’ का नारा लगा कर दोबारा सं.रा. अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया। भारत के हिन्दू फासीवादी भारत को दोबारा ‘विश्वगुरू’ बनाने में लगे हुए हैं क्योंकि उनकी नजर में भारत कभी विश्वगुरू था। उधर चीन के नये साम्राज्यवादी शासक चीन को फिर दुनिया का ‘मध्य राज्य’ बनाना चाहते हैं क्योंकि चीनी शासक अतीत में अपने राज्य को दुनिया की धुरी मानते थे। तुर्की के एर्दोगान भी पीछे नहीं रहना चाहते। वे आतोमान साम्राज्य के वैभव को दोबारा हासिल करना चाहते हैं। अन्य देशों में इस तरह के और लोग भी हैं।
अपने देश या राष्ट्र को फिर महान बनाने का नारा बुलंद करने वालों की कुछ खासियतें हैं। वे अपनी विचारधारा में फासीवादी या धुर-दक्षिणपंथी हैं। अक्सर धार्मिक कट्टरता उनसे जुड़ी होती है या अपनी परियोजना में वे इसका इस्तेमाल करते हैं। इनकी साम्राज्यवादी आकांक्षाएं होती हैं। वे दूसरों की कीमत पर अपने देश को महान बनाना चाहते हैं। वे पहले के किसी शानदार अतीत की वापसी चाहते हैं, भले ही वह अतीत वास्तविक हो या काल्पनिक।
पिछले पांच हजार सालों में मानव इतिहास जिस रूप में विकसित हुआ है उसमें अलग-अलग सभ्यताएं उत्थान और पतन का शिकार हुई हैं। उनके आधार पर आज बहुत सारे देश अतीत में महानता का दावा कर सकते हैं। नील नदी की सभ्यता के लिए मिश्र दावा कर सकता है, सिन्धु घाटी की सभ्यता के लिए भारत-पाकिस्तान दावा कर सकते हैं, यांग्सी-ह्वांगहो सभ्यता के लिए चीन दावा कर सकता है, यूनानी सभ्यता के लिए यूनान दावा कर सकता है, फारसी सभ्यता के लिए ईरान दावा कर सकता है, रोमन साम्राज्य के लिए इटली दावा कर सकता है, इस्लामी साम्राज्य के लिए सऊदी अरब दावा कर सकता है, आतोमान साम्राज्य के लिए तुर्की दावा कर सकता है, एजटेक सभ्यता के लिए मैक्सिको दावा कर सकता है, इत्यादि, इत्यादि। आधुनिक काल में नये ज्ञान-विज्ञान की संस्कृति के लिए इटली, नीदरलैण्ड, यू के, फ्रांस, इत्यादि दावा कर सकते हैं। दूसरी ओर अफ्रीका के इथोपिया इत्यादि देश दावा कर सकते हैं कि उन्होंने सुदूर अतीत में आधुनिक मानव जाति को पैदा किया जिसके बिना महानता की आज की सारी बात ही नहीं होती।
महानता के इन सारे दावों में किसका वजन कम है और किसका ज्यादा यह सवाल ही बेमानी है। आज मानव सभ्यता जो कुछ भी है वह सारी मानवता की उपलब्धियों का सम्मिलित परिणाम है। सबने इसमें भांति-भांति से योगदान किया है। दुनिया सही मायने में पिछले पांच सौ साल में वैश्विक हुई है। पर यह समझना भूल होगी कि उसके पहले मानवता का आपस में आदान-प्रदान नहीं था। जिन बड़ी चीजों से मानवता आगे बढ़ी उनका पहले भी आदान-प्रदान था। सिन्धु घाटी की सभ्यता के लोग मेसोपोटामिया से व्यापार करते थे जो स्वयं कई धातुएं उत्तरी यूरोप से हासिल करते थे।
इसी के साथ यह भी सच है कि समूची मानवता का जो सम्मिलित विकास हुआ उसमें जितना शांतिपूर्ण आदान-प्रदान का योगदान था उतना ही युद्धों और मारकाट का भी। वस्तुतः ढेर सारा आदान-प्रदान युद्धों और मारकाट के जरिये ही हुआ। युद्धों के दौरान दोनों पक्ष एक-दूसरे से सीखते थे। विजेता विजित लोगों से सीखते थे तो विजित लोग विजेताओं से। अक्सर इस मुठभेड़ से कोई मिश्रित चीज पैदा होती थी।
इन्हीं सब के कारण आज ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति की किसी भी चीज पर कोई दावा नहीं कर सकता कि वह पूर्णतया उसकी है। ज्यादा से ज्यादा उस चीज की शुरूआत करने का दावा किया जा सकता है।
इतिहास के इस सत्य का ज्ञान सहज ही किसी देश के लोगों में एक विनम्रता का भाव पैदा करता है। वह भाव यह है कि मानवता के सकल प्रवाह में हमारे देश के लोगों ने भी कुछ योगदान किया है पर जितना हमने योगदान किया है उससे बहुत-बहुत ज्यादा हमने पाया है। इससे स्वाभाविक निष्कर्ष निकलता है कि हम अपने योगदान पर न इतरायें और न कोई विशेष दावा करें!
पर धुर-दक्षिणपंथियों और फासीवादियों से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं की जातीं वे इस भाव के ठीक विपरीत छोर पर खड़े होते हैं। वे दूसरों की कीमत पर आगे बढ़ना चाहते हैं। इसीलिए वे मानवता के सकल प्रवाह में दूसरों के योगदान को नकारते हैं तथा स्वयं के लिए विशेष दावा करते हैं।
भारत के हिन्दू फासीवादियों को लें। उनके अनुसार भारत प्राचीन काल में विश्व गुरू था (हालांकि वे ठीक-ठीक नहीं बता पाते कि यह किस मायने में विश्वगुरू था)। मध्य काल में मुसलमान शासकों के यहां आने के बाद वह उनका गुलाम बन गया और अपना विश्वगुरू का पद खो बैठा। मुसलमान शासक असभ्य और जाहिल थे तथा उन्होंने भारत को जाहिली में धकेल दिया। भारत में तथा हिन्दू धर्म में आज जो कुछ बुरा है वह मुसलमान शासकों के कारण है। यूरोपीय सभ्यता-संस्कृति भी पतित है। इसीलिए अंग्रेजी राज से भारत का कुछ भला नहीं हुआ। अब भारत को फिर अपना गौरव हासिल करने के लिए प्राचीन अतीत की ओर लौटना होगा। हिन्दू फासीवादियों के सत्तानशीन होने से इसकी शुरूआत हो गयी है। भारत जल्दी ही फिर विश्वगुरू बन जायेगा।
हिन्दू फासीवादियों की इस दृष्टि में भारत के अलावा सारे लोग जाहिल और पतित हैं। उनका सभ्यता-संस्कृति में कोई योगदान नहीं है। इसके उलट उन्होंने भारतीयों की अत्यन्त उन्नत सभ्यता-संस्कृति को भ्रष्ट ही किया है। आगे भी मानवता का कोई कल्याण तभी हो सकता है जब भारत एक बार फिर विश्व गुरू बन जायेगा।
हिन्दू फासीवादियों की यह दृष्टि उन्हें मानवता के उद्धारक का दर्जा दिला देती है। यह उनके अंदर मिशन भाव भी पैदा कर सकती है। पर असल में यह एक विक्षिप्त की दृष्टि है जो सारी दुनिया को अपनी विक्षिप्त दृष्टि से देखता है। इसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। मजे की बात यह है कि इस तरह की सोच वाले हिन्दू फासीवादी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से हासिल चीजों और सुविधाओं का भरपूर इस्तेमाल कर रहे होते हैं। हां, अपनी अंतरात्मा को शांत करने के लिए वह मान लेते हैं कि यह ज्ञान-विज्ञान तो उनके वेदों में पहले से है।
थोड़ा ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि फासीवादियों और धुर-दक्षिणपंथियों की सारी सोच या तो राष्ट्रीय हीनता बोध से पैदा होती है या फिर अपनी गिरती हैसियत को बचाने की कोशिशों से। दोनों ही मामलों में साम्राज्यवादी आकांक्षाएं स्पष्ट होती हैं भले ही संबंधित देश की साम्राज्यवादी की हैसियत न हो। वास्तविकता में भले न हो पर सपने देखते समय तो साम्राज्यवादी हुआ ही जा सकता है।
जब एक हिन्दू फासीवादी अफगानिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक फैले अखंड भारत का सपना देखता है तो उसकी छाती फूल कर कुप्पा हो जाती है। वास्तविकता यह है कि भारतीय शासक भूटान को भी अपने में नहीं मिला सकते। पर सपना देखने से उन्हें कौन रोक सकता है। इससे उन्हें उस राष्ट्रीय हीन भावना से ऊपर उठने में मदद मिलती है जो उनमें गहरे तक पैठी हुई है। एक हिन्दू फासीवादी संघ की पाठशाला में दिन-रात हिन्दुओं की आठ सौ या बारह सौ साल की गुलामी की बात सुनता रहता है। वह उसे स्वभावतः ही हीन भावना से ग्रस्त कर देती है क्योंकि इतनी लम्बी गुलामी तो भारी कमजोरी की ही सूचक हो सकती है। ऊपर से तुर्रा यह कि आज भी दुनिया में भारत की कोई खास हैसियत नहीं है। दुनिया की सत्रह प्रतिशत आबादी वाले भारत की विश्व सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी तीन प्रतिशत भी नहीं है। अन्य सारे सूचकांकों के मामले में भी भारत बहुत नीचे के पायदान पर रहता है, अफ्रीका के गरीब देशों से भी नीचे। इन सारे सूचकांकों को पश्चिमी साजिश कहकर नकारने के बावजूद हिन्दू फासीवादी जानते हैं कि सच्चाई तो यही है। फिर ऐसे में क्या करें? विश्वगुरू का सपना देखें। अखंड भारत का सपना देखें। सपने में ही सही, साम्राज्यवादी हो जायें।
लेकिन यहां यह रेखांकित करना होगा कि साम्राज्यवादी बनने का यह सपना इनके विस्तारवादी मंसूबों में मदद करता है। तुर्की और भारत दोनों के शासक इसकी मदद से अपने क्षेत्र में अपने विस्तारवादी मंसूबों के लिए जन समर्थन हासिल करते हैं। भारतीय शासक जब अपने पड़ोसी देशों (नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, इत्यादि) में धौंसपट्टी दिखाते हैं तो उन्हें अपनी जनता का जन समर्थन हासिल हो जाता है।
चीन जैसी नई उभरती साम्राज्यवादी ताकत के मामले में यह सोच उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के लिए जन समर्थन हासिल करने में मदद करती है। कन्फ्यूशियस को फिर से स्थापित करने से लेकर ‘मध्य राज्य’ (मिडिल क्लास) तक की सारी बातें इसीलिए की जाती हैं। यहां तक कि चीनी शासकों ने अपनी वैश्विक साम्राज्यवादी परियोजना को ‘सिल्क रोड’ का नाम दिया है जो प्राचीन और मध्य काल की ‘सिल्क रोड’ की याद दिलाती है।
जहां तक डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (अमेरिका को फिर से महान बनाओ) का सवाल है यह अमेरिकी साम्राज्यवादियों की हाल में खोई ताकत को बहाल करने का नारा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका की जिस महानता को फिर से हासिल करने की बात हो रही है वह कोई प्राचीन काल या मध्य काल की चीज नहीं है। एक देश के तौर पर वर्तमान सं.रा. अमेरिका बामुश्किल पांच सौ साल पुराना है। संवैधानिक तौर पर तो वह ढाई सौ साल पुराना भी नहीं है। जिस महानता की आज इतनी ललक है वह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के कुछ दशकां की ही महानता है जब अमेरिका पश्चिमी साम्राज्यवादी दुनिया का एकछत्र नेता था। तब दुनिया के औद्योगिक उत्पादन का लगभग आधा अमेरिका में पैदा होता था। हालांकि तब सोवियत समाजवाद या बाद में सोवियत साम्राज्यवाद उसको चुनौती देता था पर पूंजीवादी दुनिया में अमेरिका की तूती बोलती थी।
आज अमेरिकी साम्राज्यवादियों की वह स्थिति नहीं है। पश्चिमी साम्राज्यवादी और जापान उस तरह उसका कहा नहीं मानते। अर्थव्यवस्था में उसका उस तरह का वर्चस्व नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि चीन एक नयी साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर हर जगह उसे चुनौती दे रहा है।
आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।
अमेरिकी साम्राज्यवादी इसी बेचैनी को सारे अमेरिका की बेचैनी बना देना चाहते हैं जिसमें वे किसी हद तक सफल हुए हैं। इसके लिए वे ठीक उसी चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे उन्होंने स्वयं सबसे ज्यादा फायदा उठाया है और जिसे उन्होंने खुद ही अंजाम दिया था। वह है वैश्वीकरण तथा उसके तहत उत्पादन-वितरण का विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण। इसके तहत अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बहुत सारे उद्यमों को अमेरिका से बाहर स्थानांतरित कर दिया, खासकर चीन व पूर्वी एशिया में। इससे अमेरिका में किसी हद तक विऔद्योगीकरण हुआ और बेरोजगारी बढ़ी, खासकर गोरे मजदूरों में। आधुनिक तकनीक कंपनियों द्वारा उच्च प्रशिक्षित विदेशी लोगों को नौकरी देने से मध्यम वर्ग में भी बेचैनी बढ़ी। इनसे अमरीकी साम्राज्यवादी पूंजी ने खूब मुनाफा कमाया। पर अब इनसे उपजी बेरोजगारी और बेचैनी को इसी पूंजी का एक नुमाइंदा अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है। वह ‘अमेरिका को फिर महान बनाओ’ का नारा उछाल कर दोबारा सत्तानशीन हो चुका है।
अमेरिकी साम्राज्यवादी इस नारे के तहत हुई जनगोलबंदी को दुनिया भर में अपनी हालिया खोई ताकत को फिर हासिल करने के लिए इस्तेमाल करेंगे। वे चीनी व रूसी साम्राज्यवादियों के खिलाफ तो इसे इस्तेमाल करेंगे ही, वे यूरोपीय साम्राज्यवादियों के खिलाफ भी इसे इस्तेमाल करेंगे। ग्रीनलैण्ड और कनाडा को लेकर ट्रम्प के उद्गार इसी ओर इंगित करते हैं।
‘अमेरिका को फिर महान बनाओ’ असल में अमेरिकी साम्राज्यवादियों का एकछत्र वर्चस्व फिर कायम करो का नारा है। यह दुनिया भर के मजदूर-मेहनतकशों की कीमत पर ही नहीं, बल्कि स्वयं अमरीकी मजदूर वर्ग की कीमत पर परवान चढ़ सकता है। अमरीकी मजदूर वर्ग को इस सच्चाई को आत्मसात करना होगा और तद्नुरूप आगे बढ़ना होगा।
अपने देश को फिर महान बनाओ!
राष्ट्रीय
आलेख
ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है।
आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।
ट्रम्प ने घोषणा की है कि कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य बन जाना चाहिए। अपने निवास मार-ए-लागो में मजाकिया अंदाज में उन्होंने कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया। ट्रम्प के अनुसार, कनाडा अमरीका के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे अमरीका के साथ मिल जाना चाहिए। इससे कनाडा की जनता को फायदा होगा और यह अमरीका के राष्ट्रीय हित में है। इसका पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया। इसे उन्होंने अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ कदम घोषित किया है। इस पर ट्रम्प ने अपना तटकर बढ़ाने का हथियार इस्तेमाल करने की धमकी दी है।
आज भारत एक जनतांत्रिक गणतंत्र है। पर यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को पांच किलो मुफ्त राशन, हजार-दो हजार रुपये की माहवार सहायता इत्यादि से लुभाया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिकों को एक-दूसरे से डरा कर वोट हासिल किया जा रहा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें जातियों, उप-जातियों की गोलबंदी जनतांत्रिक राज-काज का अहं हिस्सा है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें गुण्डों और प्रशासन में या संघी-लम्पटों और राज्य-सत्ता में फर्क करना मुश्किल हो गया है? यह कैसा गणतंत्र है जिसमें नागरिक प्रजा में रूपान्तरित हो रहे हैं?
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।