7 जून को दिल्ली पुलिस ने मणिपुर भवन पर प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया। यह प्रदर्शन मणिपुर ट्राइबल्स फोरम दिल्ली द्वारा आयोजित किया गया था। प्रदर्शनकारी दिल्ली आए मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के प्रदर्शनकारियों के समक्ष आने की मांग कर रहे थे। प्रदर्शनकारी मणिपुर विधानसभा में इनर लाइन परमिट के सम्बन्ध में लाए गए विधेयक का विरोध कर रहे थे। यह लाठीचार्ज उत्तर पूर्व के राज्यों की राष्ट्रीयता की समस्या को केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा कैसे जटिलतर बनाया जा रहा है, इसको भी दिखाता है। राष्ट्रीयताओं के दमन के तो खैर इससे ज्यादा बुरे उदाहरण रोज भारतीय राजसत्ता प्रस्तुत करती है। <br />
देश की कई राष्ट्रीयताओं की तरह मणिपुर की राष्ट्रीयता को भी आजादी के बाद भारतीय राजसत्ता ने बलपूर्वक समेटा। इसके खिलाफ मणिपुर में राष्ट्रीयताओं के लिए संघर्ष करने वाले कई संगठनों ने जन्म लिया। भारतीय राजसत्ता ने इन सबको बलपूर्वक कुचला। 1958 में मणिपुर में अफस्पा लगा दिया गया जो आज तक जारी है। भारतीय राजसत्ता ने इन राष्ट्रीयताओं के प्रति डंडा व गाजर की नीति अपनाई। यानि उनका दमन भी किया व साथ ही उसके कुछ तत्वों को आत्मसात करने के लिए प्रलोभन भी दिये। <br />
राजसत्ता के दमन और निम्न पूंजीवादी सोच की सीमाओं की वजह से राष्ट्रीयताओं के आंदोलन कमजोर पड़ते गए। इन संगठनों की कमजोर विचारधारात्मक जमीन की वजह से केन्द्र और राज्य सरकारों ने राष्ट्रीयताओं और जनजातियों को आपस में लड़ाने का भी काम किया। पिछले कुछ वर्षों से मणिपुर में चल रहे जनता के अलग-अलग हिस्सों के बीच के संघर्ष दिखलाते हैं कि सरकारें इनको आपस में लड़ाने में किसी हद तक सफल हुई हैं। <br />
मणिपुर भौगोलिक तौर पर दो तरह के हिस्सों में बंटा हुआ है। इसका एक हिस्सा पहाड़ी और संकरी घाटी का है जिसमें नगा, कुकी, जोगी और अन्य छोटी जनजातियां निवास करती हैं, दूसरा हिस्सा मैदानी है जिसमें ज्यादातर मैती निवास करते हैं। मैदानों में लगभग 60 प्रतिशत और पहाड़ियों में लगभग 40 प्रतिशत आबादी निवास करती है। नगा, कुकी, जोगी और अन्य जनजातियों को लगता है कि मैती उन्हें दबाते हैं। मैतियों को लगता है कि उत्तर भारतीय लोग मैदानों में बसते जा रहे हैं और वे कारोबारों पर कब्जा जमाने लगे हैं। वे बिस्नूपुर का उदाहरण देते हैं जहां भारी मात्रा में उत्तर भारतीय लोग रहते हैं। उत्तर भारतीयों के प्रति इसी संशय की वजह से 2012 से इनर लाइन परमिट के लिए मैती लोगों ने संघर्ष करना शुरू किया। इनर लाइन परमिट के तहत राज्य के बाहर के किसी भी व्यक्ति को राज्य में प्रवेश के लिए अनुमति लेनी होती है। इनर लाइन परमिट की व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने से अरूणाचल प्रदेश, नागालैण्ड और मिजोरम में लागू है। इस व्यवस्था को अंग्रेजों ने अपने व्यवसायिक हित सुरक्षित करने के लिए लागू किया था। <br />
2014 में इनर लाइन परमिट के संघर्ष को संचालित करने हेतु ज्वाइंट कमिटि फाॅर इनर लाइन परमिट (जेसीआईएलपी) की स्थापना हुई। जेसीआईएलपी 30 समूह जिसमें सभी मैती छात्र संगठन शामिल हैं, का छाता समूह है। <br />
अगस्त, 2015 में केन्द्र सरकार का एनएससीएन (आईएम) के साथ एक तथाकथित समझौता हुआ। एनएससीएन (आईएम) नागालैण्ड का राष्ट्रीयता की लड़ाई लड़ने वाला एक संगठन है। इसकी एक मांग वृहत नागालैण्ड बनाने की है जिसके तहत अन्य उत्तर पूर्वी राज्यों के नागा बहुल हिस्सों को मिलाकर एक करने की बात है। इस समझौते की घोषणा के बाद मणिपुर में पहाड़ी और मैदानी के बीच का विवाद और तीखा हो गया। पहाड़ी क्षेत्रों में रह रहे नागा आबादी के बीच मणिपुर से अलग होने की बात तेज हो गयी तो मैदानी क्षेत्र में इनर लाइन परमिट के लिए संघर्ष तेज हो गया। आग में घी डालते हुए 31 अगस्त को मणिपुर के ओकराम इबोबी सिंह की सरकार ने इनर लाइन परमिट सम्बन्धी तीन विधेयक विधान सभा में पेश कर पास करा लिए। <br />
पहाड़ी इलाकों के लोगों ने इस विधेयक के पास होने से मैती लोगों के प्रभुत्व के बढ़ने का खतरा महसूस किया। उन्होंने इन विधेयकों को जनजाति विरोधी घोषित करते हुए इसके खिलाफ तीखा संघर्ष शुरू किया। इनके प्रदर्शनों में सितम्बर माह में 9 प्रदर्शनकारियों की मौत हुई जिनमें से कम से कम 6 प्रदर्शनकारियों की मौत सीधे-सीधे सुरक्षा बलों द्वारा की गयी गोलीबारी में हुई। प्रदर्शनकारियों ने विरोध स्वरूप मृत प्रदर्शनकारियों के शवों को स्वीकार करने से मना कर दिया और इन 9 प्रदर्शनकारियों के शव आज तक चूरचंदपुर के मारचुरी में रखे हुए हैं। सितम्बर माह से चूरचंदपुर में विधेयकों के विरोध में आंदोलन जारी है जो पहले दोपहर बाद के कफ्र्यू के रूप में था हालांकि बाद के समय में मारचुरी और प्रदर्शनकारियों की याद में बनाए गए स्मारक पर धरने तक सीमित हो गया। <br />
इधर इन विधेयकों पर राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए जेसीआईएलपी का संघर्ष जारी रहा। 2 जून को नगरीय चुनाव के लिए किए जा रहे चुनाव प्रचार के दौरान जेसीआईएलपी ने सभी राजनीतिक पार्टियों से मांग की कि चुनाव प्रचार करने के बजाय वे दिल्ली जाकर सामूहिक तौर पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से मिलकर विधेयकों की मंजूरी के लिए दबाव बनाएं। जेसीआईएलपी ने 1 से 3 जून तक सभी केन्द्र और राज्य सरकार के दफ्तरों पर कर्फ्यू की घोषणा की। उन्होंने बाहरी लोगों को धमकाया कि 1 से 3 जून के बीच वे घर से बाहर नहीं निकले। <br />
7 जून को मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से मिलकर विधेयकों पर राष्ट्रपति की मंजूरी की मांग के साथ 18 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को लेकर दिल्ली आए थे। इसी के विरोध में ज्वाइंट ट्राइबल्स फोरम दिल्ली ने मणिपुर भवन पर प्रदर्शन किया था। <br />
आज उत्तर पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के संघर्षों में यह समस्या देखी जा रही है कि यहां की संघर्षरत राष्ट्रीयतायें अपनी मुक्ति की मांग पर तो भारत सरकार से संघर्षरत रहती हैं पर अपने ही भीतर मौजूद उपराष्ट्रीयता-जनजातियों के अधिकारों को मान्यता देने को वे तैयार नहीं है। वे उन्हें किसी तरह की स्वायत्ता देने की भी पक्षधर नहीं हैं। ऐसे में सरकारों की विवाद उकसा कुल संघर्ष को कमजोर करने की नीति उन्हें आपस में लड़ाने तक ले जाती है। सरकारें इस काम में जिस हद तक सफल रही हैं उस हद तक राष्ट्रीयताओं का संघर्ष कमजोर पड़ा है। <br />
2017 में मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। कांग्रेसी इबोबी सिंह इसकी एक तरह से तैयारी कर रहे हैं तो केन्द्र सरकार द्वारा विधेयकों को पुनर्विचार के लिए वापस भेजकर भाजपा दूसरी तरह से तैयारी कर रही है। इनके चुनावी खेल ने मामले को और जटिल बना दिया है।
मणिपुर की जनता को आपस में लड़ा रही पूंजीवादी व्यवस्था
राष्ट्रीय
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