अमरीकी-इजरायली नरसंहार के एक साल

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को मार डाला गया है। वेस्ट बैंक और लेबनान में भी हत्याओं की संख्या हजारों में है और यह दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। 
    
सीधी-सरल भाषा में यह नरसंहार है। यह स्वयं पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा घोषित मापदंडों के हिसाब से नरसंहार है। यह नरसंहार यदि इन साम्राज्यवादियों द्वारा नापसंद किये जाने वाले शासकों द्वारा किया गया होता तो इन साम्राज्यवादियों ने जमीन-आसमान एक कर दिया होता। अब तक उन्हें अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में घसीट लाया गया होता। यूगोस्लाविया के पूर्व राष्ट्रपति मेलोसेविक के मामले को अभी बहुत समय नहीं बीता है। 
    
पर इजरायली शासक नरसंहार के लिए कठघरे में नहीं खड़े किये जा रहे हैं। उलटे पश्चिमी साम्राज्यवादियों के शासक उनसे गलबहियां कर रहे हैं। इजरायली जियनवादियों द्वारा नरसंहार को हर तरह से जायज ठहराया जा रहा है। इसका विरोध करने वालों का दमन किया जा रहा है। इन साम्राज्यवादियों को जरा भी चिंता नहीं है कि ऐसा करते हुए वे दिनों-दिन और नंगे होते जा रहे हैं। जनतंत्र और मानवाधिकार का उनका लबादा तार-तार होता जा रहा है। 
    
इस बीच इन साम्राज्यवादियों ने, खासकर अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अपने अपराध को ढंकने के लिए एक नया नुस्खा आजमाना शुरू किया है। वे दिखावा कर रहे हैं कि वे तो चाहते हैं कि इजरायल युद्ध विराम के लिए राजी हो जाये पर इजरायली सरकार नहीं मान रही है। वे बेबस हैं। वे इजरायल का साथ छोड़ नहीं सकते और इजरायल उनकी बात मान नहीं रहा है। इजरायल उनकी मजबूरी का फायदा उठा रहा है। 
    
उनका यह फर्जीबाड़ा इस सरल सवाल से उजागर हो जाता है कि आखिर उनकी मजबूरी क्या है? यदि इजरायल उनकी बात नहीं मान रहा है तो उससे मनवाने का सबसे आसान तरीका है उसका सहयोग और समर्थन बंद कर देना। इस सवाल का साम्राज्यवादियों के पास कोई जवाब नहीं है। 
    
जवाब न होने का सीधा सा कारण है कि साम्राज्यवादी असल में ऐसा कुछ चाहते ही नहीं। असल में वे वही चाहते हैं जो इजरायल कर रहा है। यदि इजरायल सारे फिलिस्तीनियों को मार कर या भगाकर उस सारे भू-भाग पर कब्जा कर ले तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। उल्टे उन्हें मिशन पूरा होने की संतुष्टि ही मिलेगी। 
    
1948 से लेकर आज तक यदि इजरायल फिलिस्तीनियों के नरसंहार तथा फिलिस्तीन पर कब्जे की ओर क्रमशः बढ़ता गया है तो यह केवल पश्चिमी साम्राज्यवादियों, खासकर अमरीकी साम्राज्यवादियों के सहयोग और समर्थन से ही संभव हो सका है। पश्चिमी साम्राज्यवादी इसे किसी भी समय रोक सकते थे। पर उन्होंने नहीं रोका क्योंकि वे भी यही चाहते थे। 
    
इजरायली सैन्य क्षमता तथा खुफिया क्षमता के बारे में कहानियां भी वे मिथक हैं जिन्हें पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने गढ़ा और प्रचारित किया है। इसके द्वारा वे अपने असली मंसूबों और कुकर्मों को छिपाते रहे हैं। वे इसे छिपाते रहे हैं कि सारी इजरायली क्षमता असल में पश्चिमी साम्राज्यवादियों की क्षमता है। अभी इस नरसंहार में इजरायल जिन हथियारों और खुफिया जानकारियों का इस्तेमाल कर रहा है वे सारे अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा मुहैय्या कराये जा रहे हैं। जिस बम से हसन नसरूल्ला को मारा गया वह अमरीकियों द्वारा मुहैय्या कराया गया था। कोई आश्चर्य नहीं कि अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इस मौत पर बेइंतहा खुशी जाहिर की। 
    
ऐसे में सहज सवाल उठता है कि पश्चिमी साम्राज्यवादी सारी दुनिया की जनता की निगाहों में पूरी तरह नंगा हो जाने का खतरा उठाकर भी इजरायली जियनवादियों का क्यों समर्थन कर रहे हैं? 
    
इसका उत्तर है पश्चिम एशिया का भू-राजनीतिक महत्व, खासकर इसलिए भी कि यह क्षेत्र तेल और गैस का एक प्रमुख क्षेत्र है। पश्चिमी साम्राज्यवादी प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही इस क्षेत्र में अपने साम्राज्यवादी मंसूबों के तहत खेल खेलते रहे हैं। पहले इस खेल में ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवादी प्रमुख खिलाड़ी थे तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीकी साम्राज्यवादी प्रमुख खिलाड़ी बन गये। पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने इजरायली जियनवादियों को एक तरह से गोद ले लिया और उन्हें इस क्षेत्र में लठैत की तरह पाला-पोषा। उन्हें विश्वास था कि उन पर पूरी तरह निर्भर होने के कारण इजरायली जियनवादी कभी दगा नहीं करेंगे। उनका आशंकित होना स्वाभाविक था कि इस क्षेत्र के उनके अनेकानेक पिट्ठू या तो बाद में दगा कर गये या फिर जन आक्रोश का शिकार हो गये। 
    
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक लम्बे समय तक अमरीकी साम्राज्यवादी एक तरह से इस क्षेत्र में राज करते रहे। वे अपने पिट्ठू अरब शासकों को एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाते हुए जन आक्रोश से भी निपटते रहे। बीच-बीच में उन्हें ईरानी क्रांति तथा सैनिक तख्तापलट इत्यादि का भी सामना करना पड़ा पर कुल मिलाकर उनका प्रभुत्व बना रहा। 1990 के दशक में तो यह और भी मजबूत हो गया था। 
    
पर पिछले दशक में अमरीकी साम्राज्यवादियों के इस प्रभुत्व को गंभीर चुनौती मिलनी शुरू हुई। रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों ने चुपचाप अपनी पैठ बनाई। इसकी दो बड़ी अभिव्यक्तियां थीं। रूसी साम्राज्यवादियों द्वारा सीरिया की असद सरकार को बचा लेना तथा चीनी साम्राज्यवादियों द्वारा ईरान और साऊदी अरब के बीच संबंधों को सामान्य बनाने के लिए समझौता कराना। 
    
रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों द्वारा इस क्षेत्र में यह पैठ पश्चिमी साम्राज्यवादियों और खासकर अमरीकी साम्राज्यवादियों को कतई स्वीकार नहीं थी। उन्होंने 2003 में इराक पर हमले से ही इस क्षेत्र में तबाही का जो सिलसिला शुरू किया था, जो 2011 में लीबिया, सीरिया और यमन की तबाही तक विस्तारित हो गया था, वह सारा अकारथ हो जाता। बीसियों लाख लोगों की हत्या तथा करोड़ों-करोड़ लोगों का विस्थापन उनके किसी काम नहीं आता। आखिर उन्होंने यह सब इसलिए तो नहीं किया था कि इसका फायदा रूसी और चीनी साम्राज्यवादी उठा लें। रूसी साम्राज्यवादियों से उनकी यूरोप में इस कदर ठनी हुयी है कि वे वहां एक कम तीव्रता के लेकिन वास्तविक युद्ध में उलझे हुए हैं। वे भला उन्हें इस क्षेत्र में आगे बढ़ने की इजाजत कैसे दे सकते हैं। रही चीनी साम्राज्यवादियों की बात तो वे तो और भी अस्वीकार्य हैं। वे ज्यादा बड़ी और उभरती हुई ताकत हैं। वे चुपचाप इस क्षेत्र में अपनी पैठ बना लें इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती थी।
    
इजरायली जियनवादियों द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार असल में पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा, खासकर अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा इस क्षेत्र में नये उभर रहे समीकरणों को ध्वस्त करने की रणनीति है। यह घड़ी की सुई को पीछे करने की रणनीति है। यह रूसी और चीनी साम्राज्यवादियों द्वारा इस क्षेत्र में की जा रही घुसपैठ को निरस्त करने की रणनीति है। लगे हाथों यह इजरायली जियनवादियों द्वारा उनके सपनों का इजरायल बनाने की परियोजना को परवान चढ़ाने का भी माध्यम बन रही है। इस नरसंहार द्वारा पश्चिमी साम्राज्यवादी और इजरायली जियनवादी दोनों अपना लक्ष्य पूरा करना चाहते हैं। 
    
यह नरसंहार हृदय विदारक है। पर साम्राज्यवादियों का समूचा इतिहास इस तरह के नरसंहारों से भरा पड़ा है। औपनिवेशीकरण की शुरूआत से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक इनके द्वारा नरसंहारों में पचासों करोड़ लोग मारे गये हैं। एक समय था जब वे इन नरसंहारों पर शर्माने के बदले इन्हें सभ्यता के प्रसार का नाम देकर महिमामण्डित करते थे। केवल द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही उन्होंने इन नरसंहारों को छिपाने का काम शुरू किया। उन्होंने स्वयं को जनतंत्र तथा मानवाधिकारों के रक्षक के रूप में पेश करना शुरू किया।
    
नाजियों के बारे में कहा जाता है कि वे दिन भर यहूदियों को गैस-चैम्बरों में झोंकने के बाद शाम को उच्च स्तर के गीत-संगीत का आनंद लेते थे। इस तरह वे स्वयं को संतुष्ट करते थे कि वे कितने सभ्य-सुसंस्कृत लोग थे। इतने सभ्य-सुसंस्कृत लोग यदि यहूदियों की भेड़-बकरियों की तरह हत्या कर रहे थे तो इसीलिए कि उनकी नजर में यहूदी इंसान नहीं थे। जो इंसान नहीं थे उनके साथ इंसानों जैसा क्या व्यवहार करना? उल्टे इन गैर-इंसानी लोगों का सफाया कर वे इंसानी समाज का भला ही कर रहे थे। इंसानी समाज गैर-इंसानी लोगों से मुक्त होकर शुद्ध हो रहा था। आज इस सबको नाजियों के अमानवीकरण के नाम से जाना जाता है। यहूदियों को इंसान न मानना स्वयं नाजियों के अमानवीकरण के जरिये ही संभव हुआ था। यहूदियों का नरसंहार भी इसी अमानवीकरण के जरिये संभव हुआ था। 
    
आज एक बार फिर यही सब मध्य एशिया में दोहराया जा रहा है। यह अजीब नहीं है कि इजरायली राष्ट्रपति से लेकर मंत्री तक सब फिलिस्तीनी लोगों को इंसान की श्रेणी से बाहर घोषित कर रहे हैं। यह भी अजीब नहीं है कि आज इजरायल में गाजा में हो रहे नरसंहार पर जश्न मनाया जा रहा है। इस मामले में इजरायली जियनवादी नाजियों से आगे चले गये हैं। नाजियों ने यहूदियों के नरसंहार को सारी दुनिया से छिपाया था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ही सारी दुनिया को इसके बारे में पता चला। पर इजरायली जियनवादी अपने द्वारा किये जा रहे नरसंहार को छिपा नहीं रहे हैं। न तो सरकार और न ही आम लोग। बल्कि इसके उलट नेट के जरिये सारी दुनिया में प्रसारित किया जा रहा है। भारत में हिन्दू फासीवादी जैसे उतने ही दरिंदे इस जश्न में शामिल हो रहे हैं। 
    
दोनों विश्व युद्धों के दौरान देशों के बीच जीवन मरण का युद्ध था। लेकिन उस दौरान भी युद्ध के दौरान की तबाही का जश्न नहीं मनाया जाता था। सारे युद्धरत देशों के लोग युद्ध द्वारा ढाई जा रही विभीषिका से परिचित थे। इसीलिएअपने द्वारा युद्ध के किसी मोर्चे पर जीत हासिल करने पर लोग खुश तो होते थे पर युद्ध की तबाही पर जश्न नहीं मनाते थे। वे जानते थे कि वे खुद भी कभी भी उस तबाही का शिकार हो सकते थे। 
    
यदि इजरायली जियनवादी गाजा और लेबनान में हो रही तबाही और नरसंहार पर जश्न मना रहे हैं तो इसी आश्वस्ति के कारण कि वे स्वयं इसके शिकार नहीं होंगे। पश्चिमी साम्राज्यवादी उन्हें ऐसा शिकार नहीं बनने देंगे। वे स्वयं खुशी-खुशी नेतन्याहू जैसे खूनी दरिंदे का हौंसला बढ़ा सकते हैं। नेतन्याहू जैसों ने इजरायली समाज के हिस्से का इस तरह अमानवीकरण करने में सफलता पाई है। दूसरा हिस्सा इनके सामने चुप लगाकर बैठ गया है। जैसे जर्मनी में बहुमत नाजियों के तांडव के सामने चुप होकर बैठ गया था। 
    
इस तरह का अमानवीकरण केवल इजरायली जियनवादियों का ही नहीं हुआ है। यह पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों में इजरायली जियनवादियों के समर्थकों का भी हुआ है। दुर्भाग्यवश ऐसे लोगां की तादात बढ़ रही है। इसमें ट्रंप समर्थक भी हैं और बाइडेन समर्थक भी। इसमें मैरी ली पेन समर्थक भी हैं और मैक्रां समर्थक भी। इसमें नव-नाजीवादी, नव-फासीवादी लोग भी हैं और उदारवादी भी। यहां तक कि वाम-उदारवादी भी। इन सबने एंटी-सेमेरिज्म या यहूदी विरोध के हौव्वे को अपना डंडा बना रखा है। वे हमास और हिजबुल्ला विरोध की आड़ में अपना क्रूर वहशी चेहरा छिपा रहे हैं। वे बारह सौ इजरायली नागरिकों की हत्या से पचास हजार फिलिस्तीनियों की हत्या को जायज ठहरा रहे हैं।
    
अपने पूरे समाज का अमानवीकरण करने की साम्राज्यवादियों की इस मुहिम, जिससे वे अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को आसानी से अंजाम दे सकें, के दौर में राहत की बात यही है कि इन देशों की नौजवान पीढ़ी खूनी दरिंदा बनने से इंकार कर रही है। यही नहीं, वह सड़कों पर उतरकर साम्राज्यवादी दरिंदगी का विरोध कर रही है। साम्राज्यवादी इससे हैरान-परेशान हैं। पर जैसा कि कहा गया है, पतित शासक कुछ नहीं सीखते। वे हैरान-परेशान होते हुए भी कुकर्मों में लिप्त रहते हैं और इस तरह एक दिन खुद को नष्ट कर लेते हैं।   

 

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