गाजा नरसंहार और संयुक्त राष्ट्र

7 दिनों के युद्ध विराम के बाद फिलिस्तीन पर इजरायल द्वारा हमला फिर से शुरू हो गया है। जब दोनों पक्षों के बीच युद्ध विराम हुआ तो कुछ लोगों को उम्मीदें जगीं थी कि हो सकता है यह युद्ध विराम स्थायी हो जाये। पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों और जियनवादी इजरायली शासकों के इरादे कुछ और ही थे। वे किसी भी कीमत पर हमास के खात्मे के बहाने समूचे फिलिस्तीन को हड़पने के इरादे से जंग में उतरे थे और इस इरादे को पूरा करने के लिए वे पूरा जोर लगा रहे हैं। 20,000 से अधिक निर्दोष फिलिस्तीनी अवाम का कत्लेआम करने के बाद भी इनकी खून की प्यास बुझी नहीं है। वे हर रोज और खून बहाते जा रहे हैं। 
    
इस नरसंहार का अमेरिका से लेकर बाकी दुनिया की मेहनतकश जनता विरोध कर रही है वह बारम्बार युद्ध विराम की मांग को लेकर सड़कों पर उतर रही है। जनता का यह दबाव ही 7 दिनों के युद्ध विराम की ओर ले गया था पर अमेरिकी-इजरायली शासक अपने एजेण्डे को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए उन्होंने कत्लेआम फिर शुरू कर दिया है। 
    
इस नरसंहार पर दुनिया में शांति कायम करने के नाम पर बना संयुक्त राष्ट्र संघ एक बार फिर महत्वहीन नजर आ रहा है। इसकी बारम्बार आपात बैठकें इस मुद्दे पर हो रही हैं। एक के बाद दूसरे प्रस्ताव पेश हो रहे हैं। कुछ आम सभा में पारित भी हो रहे हैं। पर आम सभा के प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण निकाय सुरक्षा परिषद में अमेरिकी वीटो के चलते कोई प्रस्ताव पास नहीं हो पा रहा है। 8 दिसम्बर को युद्ध विराम के प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद में अमेरिका ने एक बार फिर वीटो कर गिरा दिया। ब्रिटेन मतदान से अनुपस्थित रहा। शेष सभी देश युद्ध विराम के पक्ष में थे। इसके कुछ दिनों बाद 12 दिसम्बर को संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारी बहुमत से युद्ध विराम का प्रस्ताव पास हुआ। 153 देश युद्ध विराम के समर्थन में 10 विरोध में थे व 23 देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। पर महासभा के इस प्रस्ताव का कोई बाध्यकारी असर नहीं होना था। और यही हुआ नरसंहार जारी रहा। इस तरह संयुक्त राष्ट्र ने एक बार फिर दर्शा दिया कि जब मसला स्थायी सदस्य देशों से जुड़ा हो तो यह संस्था किसी निर्णय तक पहुंचने में असमर्थ हो जाती रही है।
    
फिलिस्तीन को हड़प कर इजरायल के जरिये अमेरिकी साम्राज्यवादी पश्चिम एशिया में अपनी कमजोर पड़ती चौधराहट को बचाना चाहते हैं। आज यहां इन्हें रूसी-चीनी साम्राज्यवादियों से तगड़ी टक्कर मिल रही है। अपनी चौधराहट बचाने के लिए ये रक्तपिपासु साम्राज्यवादी किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। साम्राज्यवादी दुनिया में इसके अलावा और कुछ सम्भव भी नहीं है। साम्राज्यवादी लूट खसोट का झगड़ा दुनिया को दो विश्वयुद्ध व ढेरों छोटे युद्ध दिखा चुका है। 
    
आज अमेरिकी शह पर इजरायली शासक फिलिस्तीन के हर कोने में बम बरसा रहे हैं। गाजा को कब्रिस्तान बना देने की उनकी जिद का फिलिस्तीन की अवाम बहादुरी से सामना कर रही है। वह गाजा को खाली करने से इंकार कर मौत को गले लगा रही है पर इजरायल के मंसूबों को यथासंभव चुनौती भी दे रही है। इजरायली शासक बौखलाहट में अस्पताल-स्कूल सब पर बमबारी कर एक बार फिर युद्ध के नियमों को ठेंगा दिखा रहे हैं। पर इतने पर भी वे पूर्ण कब्जे में सफल नहीं हो पा रहे हैं। अस्पतालों में नवजात शिशुओं की हमले के चलते मौतों की बढ़ती तस्वीरें पूरी दुनिया की जनता को इजरायली राष्ट्रपति नेतन्याहू पर थू-थू करने की ओर बढ़ा रही हैं। फिलिस्तीनी अवाम के साथ-साथ फिलिस्तीनी लेखक-कवि- देशी-विदेशी डॉक्टर-नर्स भारी बमबारी के बीच अपने-अपने तरीके से जंग जारी रख बहादुरी-कुर्बानी की मिसाल पेश कर रहे हैं। 
    
हथियारों के घमण्ड में चूर अमेरिकी-इजरायली शासक गाजा पट्टी पर कब्जा कर फिलिस्तीनी प्रतिरोध का खात्मा करना चाहते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि बीते 75 वर्षों से वे हथियारों के दम पर इस प्रतिरोध को खत्म नहीं कर पाये हैं। वे फिलिस्तीनियों को देश से खदेड़ तो सकते हैं पर किसी कौम की मुक्ति की आकांक्षा को दफन नहीं कर सकते। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष फिर मजबूती ग्रहण कर नये इंतिफादा की शक्ल में उनके सामने आ खड़ा होगा। कि अभी भले ही इजरायल-अमेरिका मजबूत नजर आ रहे हों; विजयी नजर आ रहे हों, ऐतिहासिक तौर पर उन्हें ही शिकस्त झेलनी होगी। 
    
इस सबके बीच भारतीय शासकों की इस मसले पर बन्दरकुद्दी जारी है। कभी वे अमेरिकी-इजरायली डाल पर बैठे नजर आते हैं तो कभी फिलिस्तीन की ओर। अभी तक युद्ध विराम के मसले पर तटस्थ रहे भारतीय शासकों ने 12 दिसम्बर को युद्ध विराम के पक्ष में मत दिया। दरअसल भारत के फासीवादी शासक दिल से इजरायल-अमेरिका के साथ हैं। इसीलिए देश के भीतर फिलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों का वे दमन कर रहे हैं। भारतीय पूंजीवादी मीडिया फिलिस्तीनियों का मुस्लिम होने के नाते दानवीकरण कर संघ-भाजपा के साम्प्रदायिक एजेण्डे को आगे बढ़ा रहा है। पर भारतीय शासक खुद को शांति का मसीहा भी दिखाना चाहते हैं इसीलिए युद्ध विराम का समर्थन कर वे गांधी के अनुयायी होने की नौटंकी भी कर रहे हैं। उनकी यह बन्दरकुद्दी इतनी भौंडी है कि इनकी असली अमेरिकापरस्ती को हर कोई समझ रहा है। हर कोई देख सकता है कि फिलिस्तीनी नरसंहार की गाथा जब भी लिखी जायेगी तो उसमें गाजा में बहते खून में मोदी-शाह के ‘नये भारत’ की भूमिका की भी चर्चा होगी।  

आलेख

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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं। 

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कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।