2002 के गुजरात दंगों के आयोजन के बाद गुजरात के तब के मुख्यमंत्री रहे मोदी ने 2003 में वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन करवाया था। यह ग्लोबल इन्वेस्टर्स सम्मेलन था जिसमें देशी और विदेशी पूंजी के मालिकों ने शिरकत की थी। इस सम्मेलन के जरिए ही तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के दाग धोने का मौका मिला। उग्र हिंदुत्व या हिंदू फासीवादियों और बड़ी पूंजी का गठजोड़ गुजरात में फिर मजबूती से आगे बढ़ा। इसके बाद तो हर दो-तीन साल में गुजरात में इन्वेस्टर्स सम्मेलन आयोजित होते रहे।
ये सम्मेलन एक बड़े इवेंट की तरह आयोजित होते, मुख्यमंत्री मोदी की अपनी छवि चमकाने का जरिया बनते। ये आयोजन नरेंद्र मोदी के लिए राजनीतिक हथियार बने। इन इवेंट्स को जबरदस्त प्रचार मिलता। सम्मेलनों में लाखों करोड़ के निवेश के दावे होते। कई लाख करोड़ के समझौतेनामे पर दस्तखत होते। लाखों नौजवानों को रोजगार मिलने का ख्वाब दिखाया जाता। मगर हकीकत हर बार यही होती कि जमीन पर वास्तविक निवेश बहुत कम होता। यहां रोजगार के तो कहने ही क्या और इसे कौन पूछे! अलबत्ता जो पूंजीपति निवेश करते, वो कौड़ी के मोल मिलने वाली जमीन और हर तरह के टैक्स से छूट पाते, बेहद सस्ते मजदूर पाते। इस तरह जमकर मुनाफा बटोरते। बाद में घाटा दिखने पर किसी और राज्य में मुनाफे की तलाश में पहुंच जाते।
2011 का गुजरात वाइब्रेंट ग्लोबल इन्वेस्टर्स सम्मेलन तो मुख्यमंत्री मोदी के लिए खुद को प्रधानमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट करने का जरिया ही बन गया। इसकी वजह यह भी थी कि जब 2009 में पूंजीपति टाटा अपनी नैनो परियोजना बंगाल में रद्द होने से निराश थे तब मोदी ने उनके लिए लाल कालीन गुजरात में बिछवा दी। इस पर टाटा ने कहा था कि यहां एक एम बुरा है जबकि दूसरा एम अच्छा है। यहां एम से आशय ममता और मोदी से है।
गुजरात में 2011 के निवेशक सम्मेलन को विशाल सम्मेलन में बदल दिया गया। इस हिंदू फासीवादी नायक ने खुद को महात्मा गांधी का अनुयायी साबित करने के लिए कई एकड़ जमीन पर 6000 लोगों के बैठने लायक हाल वाला एक महात्मा मंदिर भी बनवा दिया। इसकी लागत 215 करोड़ रुपए थी।
इसके बाद गुजराती मोदी स्टाइल में एकाधिकारी देशी और विदेशी पूंजी की सेवा में वैश्विक निवेशक समिट का सिलसिला चलता रहा। इन सम्मेलनों को आयोजित करवाने में मोदी सरकार की पूरी सरकारी मशीनरी, संघी संगठन और मीडिया एकजुट होकर डट जाते। इसे महान ऐतिहासिक उपलब्धि के बतौर प्रचारित किया जाता।
यह कथित महान ऐतिहासिक उपलब्धि ना तो कहीं से महान है ना ही ऐतिहासिक। यह पूंजी की नंगी लूट-खसोट को सुगम बनाने के आयोजन हैं। इस आयोजन के जरिए मोदी और मोदी सरकार तथा भाजपा की राज्य सरकारें अपनी असफलताओं पर भी पर्दा डालती हैं। जनता को भ्रम में डालती हैं।
इसी साल फरवरी माह में उ.प्र. में भी निवेशकों का सम्मेलन हुआ। पूंजी के निवेश की भीख मांगने विदेश जाने वालों में प्रधानमंत्री के अलावा अब मुख्यमंत्री भी शुमार हैं। साल 2022 में योगी समेत योगी सरकार के 16 मंत्री विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए कई देशों के चक्कर लगाने गए थे। ये अमेरिका, ब्राजील, कनाडा समेत 20 देशों में गए। फिर फरवरी माह में तीन दिन का सम्मेलन हुआ। जिसका उद्घाटन फिर से ‘‘महान’’ और ‘‘फकीर मोदी’’ ने किया।
सम्मेलन के बाद फिर से दावे किए गए कि उ.प्र. में 33.5 लाख करोड़ के निवेश का प्रस्ताव हुआ है। योगी ने निवेशकों को हर तरह की सुरक्षा और सुविधा का वायदा भी किया। वास्ताविक निवेश और समझौता ज्ञापन में घोषित निवेश में कई गुने का फर्क होता है। मगर इस समझौते में घोषित निवेश के प्रचार के जरिए मोदी एंड कंपनी जनता को बताती हैं कि अब उनके जीवन का कायाकल्प होने वाला है।
इससे पहले 2018 में भी योगी महाराज ने दावा किया कि 4.28 लाख करोड़ के निवेश पर सहमति बनी है। मगर दो साल बाद पाया गया कि इस निवेश का एम ओ यू पूरी तरह असफल हो गया था।
वास्तव में आंकड़ों के अनुसार, वास्तविक रूप से, 2022 में नवंबर तक, मध्य प्रदेश में 46 परियोजनाओं में केवल 6,137 करोड़ रुपये का निवेश किया गया था, कर्नाटक में 53 परियोजनाओं में 7,873 करोड़ रुपये का निवेश किया गया था, और राजस्थान में 41 परियोजनाओं में 16,712 करोड़ रुपये का निवेश किया गया। जबकि यहां गाजे-बाजे के साथ कई लाख करोड़ के निवेश का दावा किया जाता था। यह ‘‘एमओयू औद्योगीकरण’’ के प्रचार और वास्तविकता के बीच विरोधाभास को सामने लाता है!
यही स्थिति उत्तराखंड के मामले पर भी है। 2018 में इन्वेस्टर्स समिट उत्तराखंड में हुआ था तब डेढ़ लाख करोड़ के निवेश के समझौते होने के दावे किए गए। तब भी भाजपा की ही सरकार उत्तराखंड में थी। त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री थे।
इस डेढ़ लाख करोड़ के निवेश के समझौते का क्या हुआ! वही जो उ.प्र. में हुआ था। पांच साल बाद उत्तराखंड में केवल 26 हजार करोड़ का निवेश हो पाया था। इससे भिन्न स्थिति उत्तराखंड के इस मौजूदा वैश्विक निवेशक सम्मेलन में घोषित निवेश की भी नहीं होनी है।
यह निवेशक सम्मेलन उत्तराखंड में ढोल-नगाड़े के साथ 8-9 दिसम्बर को देहरादून में आयोजित किया गया। इसमें देशी-विदेशी लगभग कुल 1000 धन्नासेठ और उनके कारिंदे पहुंचे। मुकेश अंबानी, गौतम अडानी, संजीव पुरी, सज्जन जिंदल, बाबा रामदेव, चरणजीत बनर्जी जैसे उद्योगपति या कारोबारी यहां मौजूद थे। इस आयोजन के लिए लगभग 68 करोड़ रुपए खर्च किए गए। पिछली बार 80 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे।
समिट के आयोजन के लिए शहर के यातायात को पूरी तरह डायवर्ट कर दिया गया। इस बात की कोई परवाह नहीं की गई कि इसके चलते शहर की जनता और बाहर से आने वाले लोगों के लिए कितनी मुश्किल खड़ी होगी। 2 दिन के लिए स्कूलों की छुट्टी घोषित कर दी गई। पूरे शहर में जिन सड़कों में दो दिन पहले तक गड्डे ही गड्डे थे उन्हें बहुत तेजी से ऊपरी रूप में पाटकर कोलतार की सड़क बना दी गई। शहर की दुकानों में भगवा रंग की नेम प्लेट लगवाए गए। दीवारों का रंग रोगन कर दिया गया।
देशी-विदेशी आकाओं की मौज और ऐश में कोई खलल नहीं हो, इसके लिए सड़कें खाली रखीं और इनके लिए लग्जरी गाड़ियों और होटलों की व्यवस्था की गई।
इनकी सुरक्षा और सुविधा की जबर्दस्त व्यवस्था थी। सुरक्षा को तीन श्रेणियों में बांटा गया -डायमंड, प्लेटिनम वन और प्लेटिनम-2। डायमंड श्रेणी के उद्योगपतियों के लिए 25 लग्जरी कार यानी मर्सिडीज एस क्लास, आडी ए 8 और बीएमडब्ल्यू 7 सीरीज की कारों की व्यवस्था हुई। प्लेटिनम वन श्रेणी के उद्योगपतियों के लिए 25 मर्सिडीज ई क्लास, बीएमडब्ल्यू 5 सीरीज और आडी 6 सीरीज कारों की व्यवस्था हुई। प्लेटिनम-2 श्रेणी के उद्योगपतियों के लिए फार्च्यूनर टाप माडल की गाड़ियां शामिल हैं इनके एस्कार्ट के लिए 200 वीआईपी कारों का काफिला रहना था।
एक तरफ यह अय्याशी है दूसरी तरफ हर सुविधाओं और सुरक्षा से वंचित जनता। किसी तरह मामूली राशन पर जिंदा रहते करोड़ों लोगों; गरीबी, बेरोजगारी और कर्ज ना चुकता कर पाने के चलते आत्महत्या करते हजारों हजार लोगों की कीमत पर शासकों की यह बेशर्म अय्याशी भी शर्मनाक थी।
आखिर फकीर के बिना तो सब कुछ सूना रह जाता! इसलिए फकीर की अगुवाई में एक रोड शो भी हुआ। उद्घाटन भी आत्ममुग्ध मोदी के ही हाथों होना था। मोदी को अपने इन आकाओं को इस पूरे आचरण से यह दिखाना ही था कि वह जिस तरह चाहें जनता के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं। ताकि उन्हें यह सुनिश्चित हो सके कि उनकी पूंजी किसी भी कीमत पर सुरक्षित रहेगी।
इस समिट के बाद फिर से 3.50 लाख करोड़ के एम ओ यू साइन करने के दावे किए गए। कहा जा रहा है कि इससे 2.50 लाख रोजगार सृजित होंगे। उत्तराखंड का कायाकल्प होगा। श्रीमान मोदी ने अब मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया के बाद वेड इन इंडिया का नया नारा भी दे दिया है। आत्मनिर्भर भारत का नारा तरह-तरह के रूप बदलकर वेड इन इण्डिया (भारत में शादी करो) में भी परिवर्तित हो गया है। जो भी हो यह सम्मेलन, उत्तर भारत के तीन राज्यों में जीत के बाद मोदी द्वारा खुद को अगले आम चुनाव के लिए अजेय दिखाने का जरिया भी बना है।
बस अब उत्तराखंड के कायाकल्प होने के लिए धन्नासेठों को 5000 शादियां उत्तराखंड में करने की जरूरत है। फकीर का यह अद्भुत विजन है। बस मोदी जी इस मामले में यह बताना या कहना भूल गए कि धन्नासेठों को उत्तराखंड की वादियों में गुप्ता बंधुओं के शादी के आयोजन और स्थानीय पर्यावरण की जो बर्बादी उस वक्त हुई थी उससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। आखिरकार गुप्ता बंधु इनकी विरासत जो हुए!
वैश्विक निवेशक समिट और मोदी
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को