संसद में धुंआ

13 दिसम्बर को देश की संसद में कुछ नौजवान छापामार तरीके से घुस गये। उन्होंने जूते में छिपी सामग्री से संसद में रंगीन धुंआ उड़ाया और नारे लगाने लगे। संसद के बाहर भी कुछ नौजवान नारे लगाते व धुंआ उड़ाते पकड़े गये। संसद पर आतंकी हमले के दिन ही संसद में हुई इस घुसपैठ से सभी सांसद अवाक रह गये। इन नौजवानों को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्होंने बताया कि ये भारत सरकार के कामकाज से नाराज थे; ये पढ़े-लिखे होने के बाद भी बेरोजगारी की मार से पीड़ित थे। कि इनमें से कुछेक किसान आंदोलन में शामिल थे। ये भगतसिंह फैन क्लब नामक फेसबुक पेज के जरिये सम्पर्क में आये थे और भगतसिंह की ही तरह संसद को अपने मुद्दों पर जगाना चाहते थे। इन नौजवानों पर यूएपीए की कड़ी धाराओं में केस दर्ज किया गया है। इन्हें संसद में घुसने का पास भाजपा सांसद ने मुहैय्या कराया था। 
    
ये नौजवान किसी संगठन से जुड़े हैं या नहीं। पास दिलाने वाले भाजपा सांसद इस कर्म में लिप्त थे या नहीं, ये प्रश्न अनुत्तरित हैं। पर संसद में बैठे सत्ता पक्ष-विपक्ष संसद की सुरक्षा में सेंध के मुद्दे पर ही सारी चर्चा केन्द्रित किये हुए हैं। विपक्ष संसद की सुरक्षा में सेंध के मसले पर प्रधानमंत्री के बयान की मांग कर रहा है। सत्ता पक्ष भी घुसपैठ की निन्दा कर रहा है। विपक्ष की मांग का जवाब फासीवादी सत्ता पक्ष ने 14 विपक्षी सांसदों के निलम्बन के रूप में दिया है। सबकी चर्चा इसी पर टिकी है कि अगर ये नौजवान नहीं आतंकी होते तो सांसदों की जान का क्या होता? संसद की सुरक्षा कड़ी कर दी गयी है। 
    
निश्चय ही संसद की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम की चर्चा की जानी चाहिए, पर न तो सत्ता पक्ष और न विपक्ष उन मुद्दों को उठाने की जुर्रत कर रहा है जिन पर ध्यान देने को नौजवानों ने यह कदम उठाया। पढ़े-लिखे नौजवानों की संसद में यह घुसपैठ एक संकेत है जिसे देश की संसद को समझना चाहिए। यह संकेत यह है कि देश के युवा अपने जलालत भरे जीवन से आजिज आ चुके हैं। वे किसी भी हद तक जाकर अपने मुद्दे सत्ता के सामने उठाने को मजबूर हो चुके हैं। सत्ता उनकी मांगें सुनने के बजाय अपनी सुरक्षा चाक चौबंद करने में जुटी है। 
    
बेरोजगारी की मार के साथ सरकार की बढ़ती तानाशाही देश के युवाओं को बेचैन कर रही है। देश के हर कोने में युवा जहां भी सड़कों पर उतर रहे हैं लाठियां खा रहे हैं। पूंजीवादी पार्टियां उनके मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय आपसी जूतमपैजार में जुटी हैं। 
    
आज के संसद में घुसने वाले युवा भले ही क्षुब्ध होकर-तंग आकर संसद में घुसे हों पर परिस्थितियां उस दिशा की ओर तेजी से बढ़ रही हैं जब हालात एक नहीं सैकड़ों भगतसिंह पैदा करेंगे। ऐसे भगत सिंह जो परिस्थितियों से केवल क्षुब्ध ही नहीं होंगे बल्कि उनके पास परिस्थितियां बदलने का क्रांतिकारी सिद्धांत भी होगा। जो भगत सिंह की नकल करने के बजाय भगत सिंह की वैचारिकी पर खड़े होंगे। जो पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को खत्म कर समाजवादी सवेरा लाने के लिए जी जान लगा देंगे। ऐसे भगत सिंहों की फौज के आगे सत्ता केन्द्रों की सारी कड़ी सुरक्षा धरी रह जायेगी। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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