हालिया विधान सभा चुनावों के परिणामों ने देश के उदारवादियों और वाम-उदारवादियों का दिल तोड़ दिया। वे उम्मीद कर रहे थे कि इन चुनावों में भाजपा की हार फिर 2024 के लोकसभा चुनावों में मोदी-शाही की हार का रास्ता साफ करेगी। वे निराश हुए हैं और निराशा में उन्होंने कांग्रेस पार्टी को कोसना शुरू कर दिया है।
मासूमियत के शिकार राजनीति के इन दुधमुंहों को अचानक दीखने लगा है कि कांग्रेस पार्टी तो तीनों प्रदेशों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) में नरम हिन्दुत्व पर चल रही थी। कि बघेल और कमलनाथ दोनों गाय और राम की माला जप रहे थे। अब वे सीख दे रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी को नरम हिन्दुत्व से दूरी बनाकर वास्तविक धर्म निरपेक्षता पर चलना पड़ेगा तभी वह कठोर हिन्दुत्व वाली भाजपा का मुकाबला कर सकती है।
ये सारे मासूम लोग कांग्रेस पार्टी से वह मांग कर रहे हैं जिस पर कांग्रेस पार्टी कभी नहीं चली। खासकर पिछले चार दशक से तो वह बिल्कुल भी इस पर नहीं चल रही है। असल में इंदिरा गांधी के दुबारा सत्ता में आने के बाद से ही कांग्रेस पार्टी नरम हिन्दुत्व की नीति पर ही चलती रही है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने, राम मंदिर का शिलान्यास करवाने तथा अंत में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने के सारे काम कांग्रेस सरकार के दौरान ही हुए। इन सबमें कांग्रेस पार्टी की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका रही है।
जब तक संघ परिवार के साम्प्रदायिक जहर का असर समाज में कम फैला था तब तक कांग्रेस पार्टी की नरम हिन्दुत्व की नीति उसके लिए फायदेमंद रही। पर अब हिन्दू फासीवादियों ने हिन्दू जनमानस में, खासकर सवर्ण हिन्दू जनमानस में एक मजबूत आधार बना लिया है। इसके ऊपर थोड़ा सा ही और समर्थन उन्हें चुनावों में जीत दिला देता है। हिन्दू फासीवादियों का यह मजबूत आधार कांग्रेसियों के नरम हिन्दुत्व से नहीं खिसकने वाला।
असल में कांग्रेसी डरे हुए हैं कि हिन्दुओं के बाकी हिस्से भी कहीं कांग्रेस पार्टी को हिन्दू विरोधी मानकर भाजपा की ओर न चले जायें। उनका नरम हिन्दुत्व इन्हीं को अपने साथ बनाए रखने की कोशिश है। उन्हें विश्वास नहीं है कि बाकी हिन्दू धर्म निरपेक्षता की नीति को स्वीकार करेंगे। उन्होंने मान लिया है कि सारे हिन्दुओं के लिए धर्म महत्वपूर्ण है और कांग्रेस पार्टी को हिन्दू विरोधी नहीं दीखना है जैसा कि हिन्दू फासीवादी उन्हें दिखाना चाहते हैं। रही मुसलमानों की बात तो उनके सामने कांग्रेस के साथ आने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वे भी कांग्रेस पार्टी के नरम हिन्दुत्व के अवसरवादी खेल की मजबूरी को समझते हैं।
कांग्रेस पार्टी का यह रुख असल में हिन्दू फासीवादियों के सामने पूर्ण समर्पण है। यदि दो दशक पहले नरम हिन्दुत्व कांग्रेसियों की चाल थी तो आज यह उनकी मजबूरी है। पहले वे इसके जरिये हिन्दू फासीवादियों की चालों को विफल करने की कोशिश करते थे, आज यह उनकी अनिवार्यता बन गई है। नरेन्द्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में जीत के बाद अपने पहले भाषण में यूं ही नहीं कहा था कि अब देश में कोई धर्म निरपेक्षता की बात नहीं करेगा। वे सही साबित हुए। आज मोदी-शाह समेत सारे हिन्दू फासीवादी दिन-रात तुष्टीकरण की बात करते हैं पर कांग्रेसियों की हिम्मत नहीं होती कि वे धर्म निरपेक्षता की बात करें।
कांग्रेस पार्टी की यहां तक की यात्रा लम्बी है। इसकी उलटी यात्रा इक्का-दुक्का बयानों या कसमों-वादों से नहीं हो सकती। ऐसा करने का नैतिक साहस भी इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं में नहीं है। उनसे इस तरह की उम्मीद करना उम्मीद करने वालों की मासूमियत या धूर्तता का ही परिणाम हो सकता है।
ठीक इन्हीं कारणों से आने वाले लोकसभा चुनावों में किन्हीं चुनावी समीकरणों से भाजपा की हार समाज में हिन्दू फासीवाद के जहर को कम नहीं करेगी। बल्कि हारे हुए संघी लंपट और खूंखार हो जायेंगे। इनको टक्कर केवल मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकशों की क्रांतिकारी लामबंदी ही दे सकती है, धर्म निरपेक्षता जिसके लिए हवा-पानी की तरह होगी। उदारवादियों या वाम उदारवादियों से इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचने की उम्मीद बेमानी है।
कांग्रेस पार्टी और धर्मनिरपेक्षता
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।