एच आर

हल्के पीले रंग में रंगी हुई बिल्डिंग। करीने से बिल्डिंग के सामने कुछ पेड़ लगे हुए हैं जो स्थानीय वनस्पति से मेल नहीं खाते। कुछ गमलों में फूल के पौधे लगे हैं जिनके साथ उन्हें न तोड़ने की चेतावनी आर्थिक दंड के रूप में लिखी हुई है। सुरक्षा से संबंधित कुछ फ्लैक्सी लगी हुई हैं। बिल्डिंग के आफिस के ठीक आगे एक लकड़ी की बेंच रखी हुई है जिस पर फोम वाली गद्दी बिछी हुई है। जिसमें बाहर से आए हुए और इंटरव्यू के लिए आए लोग बैठते हैं। बेंच के ठीक सामने एच आर का बोर्ड दरवाजे के ऊपर लगा हुआ है। ये कम्पनी के एच आर विभाग का आफिस है। जिसके भीतर एक आराम कुर्सी, एक कंप्यूटर, दो अलमारी और ढेर सारी फाइलें रखी हुई हैं। लकड़ी की मेज के ऊपर अजय द्विवेदी, नीचे एच आर की नेम प्लेट रखी हुई है।
    
हिंदी में एच आर का अर्थ मानव संसाधन होता है जिसका काम फैक्टरी के भीतर आदमियों की भर्ती और दूसरे संसाधनों की आपूर्ति करवाना होता है। हालांकि सुनने में ऐसा लगता है कि इसका काम मानव कल्याण करना हो लेकिन फैक्टरी के भीतर शायद ही कभी इसका हिंदी अर्थों में प्रयोग होता हो। क्योंकि फैक्टरी के भीतर यह शब्द अपने भीतर बहुत कुछ समेटे हुए होता है। क्योंकि एच आर केवल एक व्यक्ति नहीं होता वरन डर, याचना, षड्यंत्र, असीमित ताकत, अधिकार समेटे हुए होता है। यह एक ऐसी ढाल है जो मालिकों और मजदूरों के बीच अभेद कवच का काम करती है। जो किसी भी प्रतिरोध, संघर्ष, याचना को मालिकों तक पहुंचने से रोकने का काम करती है। और मजदूर इसे ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने का मुगालता पाले रहते हैं। जबकि मालिकों के प्रति मजदूरों की एक निर्मल भावना रहती है। किसी मजदूर के प्रति दिखाई गई थोड़ी सी तथाकथित उदारता या सम्मान ताउम्र मजदूरों की नजरों में मालिक को सम्मान का पात्र बना देता है। अपने रोजमर्रा के बातचीत के क्रम में वे अक्सर एक मुहावरा दोहराते हैं कि ‘‘मालिक महान है, लेकिन चमचों से परेशान है।’’
    
अजय द्विवेदी बनारस के रहने वाले हैं। गोरा रंग, सिर में लंबी चुटिया, रोजाना तिलक लगाकर फैक्टरी आते हैं। कम्पनी में एच आर का पद सिफारिश से मिला है और कई वर्षों से इस कंपनी को सेवा प्रदान कर रहे हैं। शहर में दो घर खरीद लिए हैं। 4-5 प्लाट हैं। और अभी कुछ दिनों पहले एक चार पहिया वाहन भी खरीद लिया है। अभी वर्तमान में 35,000 रुपए मासिक वेतन है। और इतनी तनख्वाह में कैसे इतनी संपत्ति जुटा ली ये गूढ़ प्रश्न है। ठेकेदार से लेकर कंपनी के सभी मजदूरों का वेतन इन्हीं की देखरेख में होता है। आम तौर पर अधिकारियों की बुराई मजदूरों को बताते हैं, मीठा बोलकर मजदूरों का विश्वासपात्र बनना इनका विशेष गुण है। कंपनी के मजदूरों की बीच की बातों को जानने के लिए चपलता भी फायदेमंद होती है। द्विवेदी जी चपलता में निपुण हैं।
    
द्विवेदी का स्थान खुद में विशिष्ट है जैसा कि सभी एच आर के साथ होता है। वे मालिक के सीधे संपर्क में रहते हैं। मालिक अपनी आरामकुर्सी में अपने केबिन में बैठे हुए हैं। कंपनी खर्चे में कैसे कटौती की जाए इसके लिए द्विवेदी को बुलाया है। द्विवेदी मालिक के सामने बैठे हैं। 
मालिक- 35 साल के हृष्ट पुष्ट व्यक्ति ने दोनों हाथ सर के पीछे लगाकर आराम कुर्सी पर लधार ली। कुछ देर आंखें बंद कीं और प्रश्न किया।’’ कम मजदूरी पर मजदूरों की भर्ती करनी है, कोई योजना है। कैसे होगा?
    
अजय दिवेदी कई दिनों से इसी विषय पर सारी बुद्धिमत्ता खर्च कर रहे थे, और इंतजार में थे कि कब ये प्रश्न पूछा जायेगा। जवाब पहले से तैयार था ‘‘औरतों की भर्ती कर लेते हैं। पास की फैक्टरी वाले 6000 रुपए में काम करवाते हैं। हमारे पास भी रोज काम मांगने आती हैं। आप एग्री करो तो भर्ती कर लेता हूं।
मालिक- काम कर लेंगी?

अजय- आदमियों से ज्यादा काम करेंगी, और ज्यादा इधर-उधर भी नहीं घूमेंगी। 10,000 के तीन आदमियों की तनख्वाह में 5 मजदूर मिल जायेंगे। द्विवेदी जानते हैं कि मालिक उसकी बुद्धिमत्ता से कायल हो जायेंगे।

मालिक- मन ही मन अपने होने वाले भावी फायदे से खुश है। ‘‘ठीक है द्विवेदी जी, औरतों की भर्ती शुरू करो’’।

अजय- सर वो सालाना इंक्रीमेंट की फाइल में आपके साइन होने हैं।

मालिक- सामने पड़ी फाइल की तरफ देखता है जो तीन दिन से वहीं पड़ी हैं। साधारण मजदूरों की वेतन वृद्धि के आगे 800 और 1000 रुपए लिखे हैं। और द्विवेदी के नाम के आगे 5000 रुपए लिखे हैं। फाइल पर साइन कर दिए जाते हैं। ‘‘क्या इस साल किसी को परमानेंट नहीं करना है’’? 

अजय- नहीं सर! खर्चे कम करने हैं, अगले साल देखते हैं।’’ 5000 रुपए की मासिक वृद्धि से प्रसन्न केबिन से बाहर चले जाते हैं।
    
क्या मनुष्य की कुटिलता, घाघपने, निकृष्ट स्वार्थों को परिभाषित किया जा सकता है? उत्तर है हां। मनुष्य के मन के भीतर उठने वाली प्रत्येक भावना के कारणों तक पहुंचा जा सकता है और उसे परिभाषित किया जा सकता है। इस बार छठ का त्यौहार 18 तारीख को पड़ रहा है। आज 14 तारीख हो गई है। हर माह का वेतन 10 तारीख को मिल जाता है मगर इस बार अभी तक वेतन नहीं बंटा है। शांत जल अचानक लहर का रूप लेने लगता है। एक सम्मिलित वेग के साथ सभी मजदूर अपने स्वरों को ऊंचा उठाते हैं, एक साझा प्रतिरोध जन्म लेता है। एक स्वर में घोषणा होती है कि जब तक वेतन नहीं मिलता कोई काम पर नहीं जायेगा। और सभी मजदूर काम छोड़कर कंपनी गेट के बाहर चले जाते हैं। 14 और 15 तारीख सीएनसी विभाग पूरी तरह बंद हो जाता है। दो दिन से सीएनसी विभाग में सन्नाटा पसरा हुआ है जिसकी सूचना मालिक को फोन पर मिल जाती है। 16 तारीख की सुबह-सुबह मालिक कंपनी परिसर में मौजूद हैं।
    
पत्थर का एक कमजोर बुत चारों तरफ से मजबूत पत्थरों से घिरा हुआ है। दुनिया की किसी भी ताकत को सबसे पहले इन्हीं ताकतवर पत्थरों से टकराना होता है। अक्सर ही मजबूत जल धाराएं बुत की हिफाजत में खड़े इन पत्थरों से टकराती हैं। तूफानी लहरें बुत की हिफाजत में खड़े पत्थरों को ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझ लेती हैं। उन्हें नहीं मालूम होता कि ये मजबूत पत्थर सिर्फ बुत के स्वार्थों की हिफाजत में खड़े हैं। अक्सर ही वेगमयी धाराएं पत्थरों से टकराती हैं और अपनी दिशा भटक जाती हैं, उनका वेग खत्म हो जाता है। परंतु आज पहली बार इस उफनते हुए वेग में कुछ मजबूत लोहे के टुकड़े चट्टान को लांघकर बुत से टकरा गए हैं। बुत को आज पहली बार जख्म का एहसास होता है। वह तिलमिला उठता है।
    
अजय कहां है? मालिक का चेहरा क्रोध और आवेग से भरा हुआ है। आते ही फैक्टरी गेट पर तैनात सुरक्षा गार्डों को धमकाता है, और अजय को पूछता है। सबसे पहले कोप का भाजन एक ठेकेदार बना है। आज दो ठेकेदार मालिक के हाथों पिट चुके हैं। जिस क्रोध और आवेग को अभी तक सिर्फ बंद केबिन में अधिकारियों ने भोगा था आज वो खुलेआम अपनी हैसियत को सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित कर रहा था। आज गाली-गलौच बहुत आम बात थी। क्रोधित भावना अजय द्विवेदी को ढूंढ रही थी। अजय इस समय सीएनसी विभाग में कुछ अन्य अधिकारियों के साथ खड़े हैं।
    
जंग के मैदान में यदि जीत हो तो वजीर सम्मानित होता है, पुरस्कृत होता है, और यदि हार हो तो उसे अपमानित और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। अजय दिवेदी लताड़े गए। अपमानित किए गए, गरियाये गए। जीवन के सबसे निकृष्ट शब्दों को आज सुना, मालिक के शब्दकोश में जितने भी घृणित शब्द थे, जितना भी अमर्यादित व्यवहार किया जा सकता था, किया गया। एक वफादार पशु की तरह द्विवेदी उन शब्दों को सुनने के लिए अभिशप्त थे।
    
‘‘बधाई हो सर नई गाड़ी’’। ‘‘हां पुरानी गाड़ी में जगह कम थी तो उसे बेच कर ये खरीद ली’’ एच आर ने उत्तर दिया। गाली वाली बात को बीते हुए दो साल हो चुके हैं। द्विवेदी जी अभी भी पूरी निष्ठा के साथ नौकरी कर रहे हैं। फिर से वार्षिक वेतन बढ़ोत्तरी का समय चल रहा है। फाइल सामने रखी हैं, जिसमें मजदूरों के नाम के आगे 800, 1000 की वेतन वृद्धि लिखी हुई है। लेकिन इस बार अजय द्विवेदी के नाम के आगे 7000 रुपए लिखे हैं। पिछली बार से 2000 ज्यादा। मालिक और द्विवेदी जी एक केबिन में बैठे हैं। कम्पनी के खर्चे कैसे कम किए जाएं चर्चा जारी है। -एक पाठक
 

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

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