उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के मरचूला में एक बस के खाई में गिर जाने के कारण ड्राइवर समेत 36 लोगों की मौत हो गई जबकि 27 लोग घायल हो गये। इस भीषण दुर्घटना से कितने ही परिवारों में कोहराम मच गया; धूमाकोट तहसील के मोहन सिंह खुद को संभाल नहीं पा रहे हैं क्योंकि उनका एक बेटा और एक बेटी दोनों ही इस दुर्घटना में मारे गये हैं जबकि रामनगर की 4 साल की मासूम शिवानी के माता-पिता दोनों को इस दुर्घटना ने लील लिया है; अल्मोड़ा के बराथ गांव के तीन परिवारों के 6 लोगों की मौत इस दुर्घटना में हुई है और इस समय पूरे ही गांव में मातम पसरा हुआ है; बराथ गांव के निकट किराथ निवासी भजन सिंह बुरी तरह टूट गये हैं क्योंकि उनके बेटे और बहू दोनों की ही इस हादसे में मौत हो गई है। इसी तरह और भी कई परिवार उजड़ गये हैं।
दुर्घटना के बाद नेता-मंत्री अपनी शोक संवेदना व्यक्त कर चुके हैं। प्रधानमंत्री राहत कोष से मृतकों के परिजनों को 2-2 लाख एवं घायलों को 50-50 हजार रु. जबकि मुख्यमंत्री राहत कोष से इससे ठीक दो गुनी धनराशि दिये जाने की घोषणा भी हो चुकी है; हालांकि बस के बजाय यही दुर्घटना यदि किसी यात्री विमान की हुई होती तो मुआवजे की राशि इससे 20-25 गुना तक अधिक होती!
हमेशा की तरह इस दुर्घटना की भी मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश हो चुके हैं और तत्काल कार्यवाही के नाम पर दो अधिकारियों को निलंबित भी किया जा चुका है। लेकिन मुख्य सवाल अनुत्तरित ही है कि आखिर पहाड़ में कब तक लोग इस तरह की दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते रहेंगे?गौरतलब है कि राज्य बनने से अब तक यहां 20 हजार से भी अधिक लोग दुर्घटनाओं में अपनी मारे जा चुके हैं।
ताजा मामले में, पौड़ी के किनाथ से रामनगर के लिये चली इस 42 सीट वाली बस में 63 यात्री सवार थे, अर्थात बस ओवर लोडेड थी। इसका कारण यह है कि इस रूट पर यात्रियों की संख्या की तुलना में बसें बहुत सीमित हैं और वे भी प्राइवेट! दूसरे, रास्ता भी बेहद खराब है, जगह-जगह सड़क टूटी हुई है और उसमें गड्डे हैं। यही वजहें थीं कि एक मोड़ काटते समय बस की कमानी टूट गई और बस सीधे खाई में गिर गई।
यदि इसी रूट पर आवश्यकता के अनुरूप रोडवेज की सरकारी बसें होतीं और सड़क की हालत दुरुस्त होती तो यह दुर्घटना भी नहीं होती और इतने परिवार उजड़ने से बच जाते। इसी तरह यदि पूरे पहाड़ में आवश्यकता के अनुरूप रोडवेज की सरकारी बसें चलें और सभी जगह सड़कों को हर समय चाक-चौबंद रखा जाये; साथ ही, सड़क किनारे अवरोध (पैरापिट) खड़े हों तो ज्यादातर दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
लेकिन जब पूरे देश और इसीलिये उत्तराखंड में भी निजीकरण की नीतियां जोर-शोर से आगे बढ़ाई जा रही हों तब सभी जगहों पर जो हाल सरकारी स्कूलों और अस्पतालों का हो चुका है वही हाल सरकारी परिवहन व्यवस्था का भी होना तय है, और वही हो भी रहा है। पूरे देश की तरह उत्तराखंड में भी रोडवेज की सरकारी बसों का अनुपात बढ़ने के बजाय घट रहा है; परिवहन और संबंधित विभागों में अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों तक के अनेकों पद रिक्त पड़े हैं। इस कारण बसों खासकर निजी आपरेटरों द्वारा संचालित बसों की फिटनेस की भली-भांति जांच भी नहीं हो पाती है। दूसरे, निजी बस आपरेटर ज्यादा कमाने के लालच में आम तौर पर ही बस की क्षमता से अधिक सवारियों को लेकर चलते हैं।
ऐसे में दुर्घटनाओं से बचने का सीधा समाधान है कि परिवहन की सार्वजनिक व्यवस्था को दुरुस्त किया जाये। लेकिन हमारी सरकारें और आज मोदी-धामी की डबल इंजन की सरकार ठीक इसी सार्वजनिक व्यवस्था को ध्वस्त करने पर तुली हुई है। दूसरे, सरकारी धनराशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रही है इसलिये पहाड़ों में न टूटी हुई सड़कों की मरम्मत हो पा रही है और न ही सड़क किनारे पैरापिट की व्यवस्था को दुरुस्त किया जा रहा है।
मरचूला की इस दुर्घटना में तो लोगों को समय रहते सरकारी सहायता भी नहीं मिल पाई; वो तो पास के ग्रामीण और नौजवान तत्काल ही लोगों को बचाने में जुट गये अन्यथा मृतकों की संख्या और भी अधिक हो सकती थी। इसके अलावा मरचूला जहां दुर्घटना हुई वहां घायलों को इलाज नहीं मिल सका और उसके सबसे नजदीक जो रामनगर का सरकारी अस्पताल है वह निजीकरण की नीतियों के परिणामस्वरूप एकदम जर्जर अवस्था में चलायमान है, जिसे लोग रेफरल सेंटर कहते हैं। यदि चिकित्सा की सार्वजनिक व्यवस्था दुरुस्त होती तब भी कई घायल लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता था।
इसलिये इन दुर्घटनाओं के लिये ये सरकारें, इनकी पूंजीपरस्त नीतियां, आम जनता के प्रति इनकी संवेदनहीनता और भ्रष्टाचार सीधे तौर जिम्मेदार हैं; इस दुर्घटना में जो 36 लोग मरे हैं और अनेकों परिवार उजड़े हैं उसकी गुनहगार मोदी-धामी की डबल इंजन की सरकार है।