तमिलनाडु : 12 घंटे काम का बिल पास, फिलहाल लागू होने पर रोक

    तमिलनाडु की सरकार द्वारा 21 अप्रैल को विधानसभा में तमिलनाडु (तमिलनाडु संशोधन) 2023 विधेयक पेश किया गया था। इस विधेयक के द्वारा कारखाना अधिनियम 1948 में संशोधन होगा और 12 घंटे के कार्यदिवस का नियम लागू हो जायेगा। बाद में इस बिल का विरोध तेज़ होने पर सरकार ने इसे लागू करने का विचार फिलहाल छोड़ दिया है। 
    जब ये विधेयक विधानसभा में पेश किया गया था तब द्रमुक के सहयोगी दल कांग्रेस, सी पी आई, सी पी एम, आदि इस बिल से सहमत नहीं थे और भाजपा सहित विपक्ष ने विरोध करते हुए बहिर्गमन किया था। लेकिन यह बिल जबरदस्ती पास करवा लिया गया।
    इस बिल को पास करवाने के पीछे श्रम मंत्री गणेशन ने तर्क दिया कि 12 घंटे का यह नियम केवल उसी फैक्टरी में लागू होगा जहां के श्रमिक इसे लागू करवाना चाहेंगे। साथ ही सप्ताह में 48 घंटे ही काम करवाया जायेगा। छुट्टी, सप्ताहिक छुट्टी और अन्य सुविधाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इसके अलावा उन्होंने कहा कि 12 घंटे काम करवाने पर 4 दिन के बाद तीन दिन छुट्टी श्रमिकों को देनी होगी। यदि श्रमिक 12 घंटे काम नहीं करना चाहें तो उन से जबरदस्ती काम नहीं करवाया जा सकेगा। श्रम मंत्री ने इस बिल को महिलाओं के लिए भी अच्छा बताया।
    अभी हाल में फ़रवरी माह में कर्नाटक सरकार ने 12 घंटे काम और महिलाओं से रात्रि की पाली में काम करने का कानून बनाया था। इसके बाद एप्पल और आई फोन बनाने वाली कंपनी फाक्सकान ने कर्नाटक में 8000 करोड़ रुपये निवेश की घोषणा की थी। इसी की तर्ज़ पर तमिलनाडु सरकार ने भी 12 घंटे का कार्यदिवस लागू करने के लिए बिल पेश किया। सरकार को उम्मीद थी कि इसके बाद फाक्सकान सरीखी कंपनियां तमिलनाडु में भी निवेश करेंगी। 
    लेकिन तमिलनाडु सरकार द्वारा बिल पास करने पर विरोधी राजनीतिक पार्टियों और श्रम संगठनों के विरोध के बाद इसे लागू करने का फैसला फिलहाल टाल दिया गया है। 
    जब से केंद्र सरकार ने 4 श्रम कोड पास किये हैं तब से हर राज्य किसी न किसी तरह इन श्रम कोड़ों को अपने यहां लागू करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2020 में कोरोना का बहाना बनाकर 12 घंटे कार्यदिवस लागू किया था लेकिन मई 2020 में उसने इसे वापिस ले लिया था। राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्य लगातार मजदूरों के श्रम अधिकारों पर हमला कर रहे हैं। भाजपा हो या कांग्रेस इनमें इस मुद्दे पर कोई मतभेद नहीं है। 
    तमिलनाडु सरकार द्वारा 12 घंटे का कार्यदिवस लागू करने के पीछे जो तर्क पेश किये जा रहे हैं वे बहुत ही हास्यास्पद हैं। श्रमिक अगर चाहेंगे तो 12 घंटे का कार्यदिवस लागू होगा, इस बात को कहने का क्या आशय है। क्या आज मज़दूर फैक्टरी में संगठित हैं? नहीं, वे संगठित नहीं हैं। और जहां आज मज़दूर संगठित हैं और यूनियनबद्ध भी, वहां वे अपनी मांगों को नहीं मनवा पा रहे हैं। मालिक आज यूनियनों को कुचलने पर आमादा हैं। श्रम विभाग और सरकारें उनके साथ हैं। फैक्टरियों में मजदूरों को जब चाहे तब रखा और निकाला जा रहा है। 12-12 घंटे मजदूर काम कर रहे हैं। उनकी साप्ताहिक छुट्टी खत्म की जा रही है। तब ऐसे माहौल में जब सरकार 12 घंटे का कार्यदिवस लागू कर देगी तो क्या मजदूर इससे इंकार कर पाएंगे। समाज में फैली बेरोजगारी ने मजदूरों के अंदर काम खोने और भूखों मरने का डर कायम कर रखा है। वे 12 घंटे काम करने को बाध्य होंगे। 
    दूसरी तरफ जो चुनावबाज पार्टियां इस बिल का विरोध कर रही हैं उनका विरोध इस वजह से नहीं है कि वे मज़दूरों का भला चाहती हैं। बल्कि उनके विरोध की वजहें दूसरी हैं। सी पी आई और सी पी एम जैसी वाम पार्टियां मजदूरों के बीच अपने आधार को बनाये रखना चाहती हैं। कांग्रेस और भाजपा आने वाले लोक सभा चुनाव के मद्देनज़र इसका विरोध कर रही हैं। वरना तो कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियों के तहत मजदूरों के श्रम अधिकारों पर हमला बोला था और भाजपा इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ा रही है। 
    आज मजदूर संगठित नहीं हैं अतः पूंजीपति वर्ग व उसकी सरकारें नए-नए कानूनों से मजदूरों पर हमले बोल रही हैं। सभी पूंजीवादी राजनीतिक दल मजदूरों को लूटने में एकमत है। इन सब में सिर्फ झंडे-डंडे का फर्क है।
 

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।