अपराधी राज्य ने अपराधी को मारा

 अतीक-अशरफ हत्याकांड

 एक सभ्य नागरिक समाज में अपराधी की कोई जगह नहीं हो सकती। और इसलिए अपराधी चाहे जिस रूप, रंग, धर्म, नस्ल व क्षेत्र का हो सभी नागरिकों को ऐसे किसी भी अपराधी का विरोध करना चाहिए। नागरिक राज्य को ऐसे किसी भी अपराधी को अपने द्वारा निर्धारित कानूनों के तहत सजा भी देनी चाहिए जो दूसरे नागरिकों को डराता हो, धमकाता हो या फिर उनके विरुद्ध किसी भी किस्म की हिंसा करता है। इसलिए अतीक जैसे अपराधियों के साथ किसी को भी सहानुभूति नहीं रखनी चाहिए। 
    नागरिक राज्य द्वारा किसी अपराधी को सजा दिया जाना आम तौर पर जिरह का विषय नहीं बनता किंतु अतीक-अशरफ हत्याकांड देश के बड़े हिस्से में चर्चा की विषय वस्तु बना। एक वजह तो यह कि दोनों सामान्य अपराधी नहीं थे। वे सांसद या विधायक रह चुके थे। दूसरा उमेशपाल हत्याकांड के बाद उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा में दिया गया भाषण और धमकी कि अपराधियों को मिट्टी में मिला दूंगा। मुख्यमंत्री के भाषण के बाद भाजपा के मंत्रियों और सांसदों के बयानों जैसे ‘गाड़ी कभी भी पलट सकती है’ आदि ने व दिन-रात की मीडिया कवरेज ने सारे मामले को चर्चा का विषय बना दिया था। 
    अतीक-अशरफ की हत्या और अतीक के बेटे के मुठभेड़ में मारे जाने से उत्तर प्रदेश की सरकार और पुलिस पर कई सवालिया निशान लग गये। वैसे पुलिस ने अतीक के बेटे को ही नहीं मारा कई अन्य कथित शूटर्स को भी मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया। इन सभी हत्याकांडों पर समाज का एक तबका न सिर्फ खुश था वरन् वह इन न्यायेतर हत्याकांडों का सबसे बड़ा समर्थक और इन न्यायेतर हत्याओं को न्यायसंगत ठहराने वाला प्रचारक था। 
    राज्य वैसे तो वर्गीय शोषण का उपकरण होता है पर वह अपने ऊपर भरोसा बनाने के लिए नागरिकों की रक्षा करना अपना कर्तव्य घोषित करता है। वह एक न्याय प्रणाली कायम कर यह पाखण्ड करता है कि उसके यहां सभी वर्गों के लिए समान कानून, न्याय, अधिकार हैं। आम हालातों में राज्य न्याय प्रणाली के जरिये ही दोषियों व अपने विरोधियां को सजा दिलवाता है। पर कभी-कभी इससे अलग भी होने लगता है जब राज्य स्वयं हत्यारा बन जाये, जब वह स्वयं न्यायेतर हत्यायें करने लगे, जब राज्य का मुखिया स्वयं राज्य द्वारा किये जाने वाले हत्याकांडों का मास्टर माइंड बन जाए, जब राज्य का मुखिया न्यायेतर हत्याकांडों को अंजाम देने वालों के मिशन को स्वयं नेतृत्व देने लगे तो इस देश के नागरिकों के सचेत हो जाना चाहिए कि उन्होंने किसी राजनीतिक व्यक्ति को अपना मुखिया नहीं चुना वरन् सत्ता की कुर्सी पर किसी अतीक जैसे को ही बैठा दिया है। 
    मंत्रियों, सांसदों, प्रवक्ताओं और छुटभैय्ये नेताओं के बयानों ने उपरोक्त लिखी गई बातों को ही सही साबित किया है जो असद-अतीक-अशरफ की हत्याओं के बाद बोले गये। असद या अन्य अपराधियों की हत्या मुठभेड़ में हुई या किसी अन्य तरीके से, अतीक-अशरफ की हत्या हुई या हत्या कराई गयी, इसे इस देश का हर नागरिक जानता है। वह इन हत्याकांडों का चाहे समर्थक हो या न हो पर यह बात पूरे देश के जनमानस में मानी हुई है कि वे हत्यायें किसने कराई हैं। अतीक-अशरफ के हत्यारों द्वारा जय श्रीराम का उद्दघोष बोलना इन राजनीतिक हत्याकांडों के पीछे छिपे असली मंतव्य को सामने ले जाता है। 
    इन नारों से ही यह बात समझ में आती है कि अतीक-अहमद-असद हत्याकांड में अपराधी भर नहीं मारे गये वरन् ये हत्यायें एक राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाने वाली राजनैतिक हत्यायें ज्यादा थीं। इन हत्याकांडों का उद्देश्य हत्यारों को सजा देने से कहीं ज्यादा था। और इस मायने में इन हत्याकांडों के रचयिता अपने मिशन में काफी हद तक कामयाब हो गये। हिन्दू आबादी के ध्रुवीकरण और तुष्टीकरण के लिए ये हत्यायें की गईं। प्रचार माध्यमों ने हत्याकांड का सीधा प्रसारण दिखाकर उस समूह को तुष्ट कर दिया जिन्हें उनके नारों और झंडों से कोई भी आसानी से पहचान सकता है। 
    राज्य की शीर्ष कुर्सी पर न्यायेतर हत्याकाण्ड रचने वाले फासीवादियों का पहुंच जाना नागरिक राज्य और नागरिकों के लिए खतरा तो है क्योंकि ऐसे में वह राज्य मशीनरी के अंगों विशेषकर पुलिस बलों का संचालन अपराधी गैंगों की तरह करने लगता है लेकिन उससे भी खतरनाक स्थिति तब हो जाती है जब सत्ता के शीर्ष पर काबिज आपराधिक प्रवृत्ति के फासीवादी लोग उन्हीं नागरिकों के बड़े हिस्से से अपने आपराधिक कृत्यों या हत्याओं के लिए वैधता हासिल कर लेते हैं। वैधता देने वाला नागरिकों का यह हिस्सा शायद यह भूल जाता है कि राज्य इस प्रकार से हासिल वैद्यता का स्वयं उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। 
    ऐसा नहीं है कि भारतीय राज्य या राज्य की सरकारें पूर्व में न्यायेतर हत्यायें नहीं करते रही हैं लेकिन पिछले 8-9 वर्षों से और विशेषकर उ.प्र. में भगवाधारियों की सरकार में जो नयी चीज है वह है कुछ सामाजिक समूहों के अपराधियों की हत्या करके उसको ध्रुवीकरण का औजार बनाना और दूसरी ओर नागरिकों के एक हिस्से का इन हत्याओं पर जश्न मनाना। हत्याओं का न सिर्फ ढंग फासीवादी है वरन फासीवादी ढंग से ही उनको वैध भी कराया जा रहा है। 
    ‘ठोंक दो’ की नीति के प्रस्तोता यद्यपि स्वयं भी अपराधी ही रहे हैं जिन पर दो दर्जन से ऊपर हत्या और हत्या के प्रयास जैसी संगीन घाराओं में मुकदमे दर्ज थे। यहां तक कि जो संसद में इसी ठोंक दो की नीति से डरकर जार-जार रोये वे लाख दावा कर लें कि उ.प्र. अपराध मुक्त है और ऐसा उनकी ‘ठोंक दो’ की नीति का परिणाम है, परन्तु सच यह है कि यह ‘ठोंक दो’ और ‘बुलडोजर नीति’ उनकी अपनी जाति के आगे फेल हो जाती है। ब्रजेश सिंह, राजा भैया, धनजंय सिंह, ब्रजभूषण सिंह जैसे कुछ बानगी भर है। यही नहीं उनकी अपनी पार्टी के लगभग 50 प्रतिशत विधायकों पर गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं जिसमें उनके उपमुख्यमंत्री भी शामिल हैं। अगर ‘ठोंक दो’ और बुलडोजर नीति उनकी पार्टी पर लागू कर दी जाये तो भगवा पार्टी और उनकी मातृ संस्था के 90 प्रतिशत नेता और कार्यकर्ताओं के ‘पाप और पुण्य का हिसाब’ इसी जन्म में जो जाएगा या ‘आसमानी न्याय’ हो जायेगा या इनमें से सभी को ‘गाड़ी पलट जायेगी’। एक अपराधी ही यह सोच सकता है या गैंगवार करने वाला व्यक्ति ही यह सोच सकता है कि दूसरे समूह के सारे अपराधियों की हत्या कर वह शांति व्यवस्था कायम कर सकता है। 
    मध्यम वर्ग की और विशेषरूप से सवर्ण मध्यम वर्ग की आत्मा ही इस प्रकार की हत्याओं से संतुष्टि हो सकती है। जो इस प्रश्न से मुंह फेर लेता है कि पूंजीवादी राज्य स्वयं अपराधियों की जननी है कि अपराधियों के पैदा होने की उर्वर शक्ति को समाज से खत्म किये बिना अपराधी व अपराध दोनों खत्म नहीं हो सकते। कि किसी अतीक की हत्या का सीधा प्रसारण सैकड़ों अतीकों-अशरफों के पैदा होने का मार्ग प्रशस्त करता है। अतीक-अशरफ हत्याकांड को अंजाम देने वाले भी तो अपराधी ही हैं। और इस प्रकार दो के खात्मे ने पांच अपराधियों को जन्म दिया। (ऐसा कहा जा रहा है कि अतीक-अशरफ हत्याकांड को अंजाम देने वाले पांच लोग थे)।
    अपराधी के खात्मे का धार्मिक-फासीवादी चश्मा स्वयं उस धर्म में लाखों अपराधियों को रोज पैदा कर रहा है जिसकी रक्षा की दुहाई देकर वे सत्ता के शीर्ष तक पहुंचते हैं। रामनवमी और हनुमान जयंती के जुलूसों में तलवार कट्टा तमंचा लहराने वाले क्या अतीक से कम हैं? सच तो यह है कि संघी फासीवादी स्वयं फासीवादी राजनीति के प्रभाव में आये करोड़ों हिन्दुओं की वर्तमान ही नहीं भावी पीढ़ियों को भी अपराधी और हिंसा का समर्थक बना रहे हैं और उन्हें बर्बाद कर रहे हैं जिनके उत्थान की वे घोषणा करते हैं। 

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