पाठ्यक्रम से डार्विन की छुट्टी

    मोदी सरकार का फासीवादी अभियान तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसी अभियान की कड़ी में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बहाने पाठ्यक्रमों में परिवर्तन किया जा रहा है। कहने को तो छात्रों पर कई पाठों का बोझ घटाया जा रहा है पर थोड़ा ही ध्यान से देखने पर पता चलता है कि जिन पाठों को हटाया जा रहा है वे सभी भाजपा-संघ के लिए दिक्कततलब मुद्दे रहे हैं। इस रूप में समूचे पाठ्यक्रम को ही संघी एजेण्डे के अनुरूप ढाला जा रहा है। 
    सबसे ज्यादा चर्चित मुद्दा 10वीं के विज्ञान विषय में डार्विन व उनके विकासवाद (म्अवसनजपवद) के सिद्धान्त को हटाया जाना रहा है। हटायी सामग्री के तहत डार्विन, पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति, जैव विकासवाद के सिद्धांत आदि हैं। इस हटायी सामग्री पर सहज ही प्रश्न उठने लगे कि संघी मानसिकता के लेखकों ने इन्हें ही निशाना क्यों बनाया। प्रश्न तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब पता चलता है कि पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी व फासीवादी ताकतें डार्विन व उसके विकासवाद के खिलाफ खड़ी रही हैं। 
    आखिर फासीवादी व दक्षिणपंथी ताकतों को डार्विन से इतनी चिढ़ क्यों है? दरअसल डार्विन जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने ईश्वर द्वारा दुनिया के जीवों के बनाये जाने के मत को वैज्ञानिक ढंग से चुनौती दी। जिन्होंने एक जीव से दूसरे जीव के विकास की प्रक्रिया की व्याख्या की। उनके इस विकासवाद के सिद्धान्त ने उस जमाने के धर्मानुयायियों, यथास्थितिवादियों, पोंगापंथियों को एक झटके में उनके खिलाफ खड़ा कर दिया। परम्परावादियों का डार्विन से द्वेष इस कदर तीखा था कि आज तक अमेरिका जैसे देश में कई प्रांतों में डार्विन के विकासवाद को पाठ्यक्रमों में उचित स्थान प्राप्त नहीं है। 
    स्पष्ट है कि दुनिया भर की धार्मिक रूढ़िवादी, पोंगापंथी ताकतें डार्विन को कोसती हैं। इस मामले में कैथोलिक ईसाई धर्म, मुस्लिम कट्टरपंथी व भारत के संघी फासीवादी सभी एकमत हैं। दरअसल डार्विन के वैज्ञानिक सिद्धांत उनके धार्मिक कूपमण्डूकता पर आधारित सारे धंधे को ही चौपट कर डालते हैं। इसीलिए भारत के संघी शासकों ने पाठ्यक्रम कटौती के बहाने डार्विन को छुट्टी पर भेजने में जरा भी संकोच नहीं किया। 
    डार्विन की पाठ्यक्रम से छुट्टी के खिलाफ देश भर के 1800 से अधिक वैज्ञानिकों-शिक्षाविदों ने सरकार को पत्र लिख कर विरोध दर्ज कराया है। उन्होंने पत्र में कहा कि बच्चों को विकास की प्रक्रिया को समझाना, उनमें वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करने के लिए जरूरी है। जिसका अभाव बच्चों को मौजूदा दुनिया की समस्याओं पर स्वस्थ चिंतन से दूर करेगा आदि। 
    दरअसल संघी फासीवादी चाहते ही यही हैं कि विज्ञान पढ़ने वाला छात्र भी वैज्ञानिक स्वभाव व चिंतन वाला न बने। वह राकेट के आगे नारियल फोड़ने वाला व आपरेशन से पूर्व ईश्वर को याद करने वाला बने। ऐसा गैर वैज्ञानिक व्यक्ति संघी एजेण्डे के लिए काफी मददगार होगा। वह समाज में धार्मिक वैमनस्य, दंगों, हिन्दू-मुस्लिम धर्म आदि मसलों पर वैज्ञानिक तर्कों की जगह संघी कूपमण्डूकता फैलाने वाला बनेगा। वह हिंदू धर्म के खतरे में होने, हिंदू आस्था के महिमामण्डन, मुस्लिम धर्म के खिलाफ कुत्सा प्रचार वाला बनेगा। ऐसी ही गैर वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति डूबती अर्थव्यवस्था, बढ़ती भुखमरी-कंगाली, बढ़ती बेकारी आदि के बीच देश को तेजी से विकसित होता, विश्व गुरू बनता घोषित करेगा। 
    पाठ्यक्रम में किये जाने वाले बाकी बदलावों में मुगल काल हटाना, मौलाना अबुल कलाम आजाद हटाना, जनान्दोलनों को हटाना, साम्प्रदायिक हिंसा व जातीय उत्पीड़न को हटाना, गुजरात दंगों में ‘मुस्लिम विरोधी’ शब्द हटाना, हिन्दी में चेखोव को हटाना आदि काम संघी सरकार ने किये हैं। इतिहास में अपने लिए आपत्तिजनक तथ्य हटा कर और अवैज्ञानिक कूपमण्डूक मानव तैयार कर हिन्दू फासीवादी ‘हिन्दू राष्ट्र’ कायम करने की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।