बीते दिनों पूंजीवादी मीडिया में माफिया अतीक अहमद छाया रहा। एक मायने में अतीक अहमद ने फिल्मी हीरो-हीरोईन से लेकर प्रधानमंत्री मोदी तक को मात दे दी। अतीक अहमद को गुजरात से उ.प्र. लाने की दो दो बार कवरेज टीवी चैनलों ने की। इस निरंतर कवरेज से ही यह आशंका पनपने लगी थी कि योगी सरकार कुछ बड़ा कर अपनी वाहवाही करवाना चाहती है। यह आशंका अतीक अहमद को भी हुई जिसने खुलेआम अपने फर्जी एनकाउंटर की आशंका जाहिर कर दी। पर जब अतीक के बेटे असद अहमद व उसके सहयोगी की एनकाउंटर में हत्या की खबर आयी तो समझ में आया कि योगी सरकार किस चीज की तैयारी कर रही थी। हालांकि 2 दिन बाद 15 अप्रैल को अतीक व अशरफ की पुलिस कस्टडी में हमला कर की गयी हत्या ने अतीक की आशंका को भी सच साबित कर दिया।
असद के एनकाउंटर के बाद टीवी चैनल व भाजपा नेता पुलिस की वाहवाही में जुट गये। अभी उमेश पाल की हत्या के मामले में पुलिस की निष्क्रियता पर जो चैनल सवाल उठा रहे थे वे सभी सवाल गायब हो गये। चारों ओर योगी राज में एनकाउंटर के जरिये त्वरित न्याय की तारीफ होने लगी।
अभी यह तारीफ शांत भी नहीं हुई थी कि इस एनकाउंटर पर प्रश्न उठने शुरू हो गये। विपक्षी दलों सपा-बसपा के नेताओं ने इस एनकाउंटर को फर्जी करार देते हुए इसकी जांच की मांग करनी शुरू कर दी। वैसे यह बात किसी को गले नहीं उतर रही थी कि आधुनिक हथियारों से लैस असद से एनकाउंटर में किसी पुलिस वाले को एक भी गोली नहीं लगी।
योगी सरकार में अपराधियों को ‘ठोक देने’ की प्रक्रिया में एनकाउंटर लगातार बढ़ते गये हैं। ज्यादातर अपराधी जिन्हें ठोका जाता है वे मुस्लिम समुदाय से सम्बद्ध रहे हैं। इस तरह योगी सरकार दिखाना चाहती रही है कि अपराध मुस्लिम समुदाय के लोगों की वजह से बढ़ रहे हैं। संघ-भाजपा से जुड़े अपराधी योगी राज में न केवल खुलेआम पनप रहे हैं बल्कि थानों-दफ्तरों में वे ही पुलिस का सहयोग भी कर रहे हैं।
ऐसे में त्वरित न्याय के नाम पर एनकाउंटर और फर्जी एनकाउंटर तक को संघी लॉबी जायज ठहराने में जुटी है। 2017 में सत्तासीन होने के बाद योगी सरकार में 183 एनकाउंटर हो चुके हैं। न्याय के नाम पर कोई कार्यवाही देखकर उ.प्र. की मध्यम वर्ग की एक आबादी भी इस त्वरित न्याय पर ताली पीट रही है।
क्या समाज में बढ़ते एनकाउंटरों पर खुशी मनाना ठीक है? जाहिर है कि इन एनकाउंटरों में अपराधी अपराध साबित होने से पहले ही ठोक दिया जाता है। उसे न्यायालय से अपराधी घोषित होने से पूर्व ही पुलिस निपटा देती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि मारे जाने वाले लोगों के बेगुनाह होने की भी संभावना होती है।
इसीलिए इन एनकाउंटरों का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि एनकाउंटर बेगुनाहों को भी बगैर मुकदमा चलाये मार डालने की छूट पुलिस को दे देते हैं। जो कोई भी एनकाउंटर की वकालत करता है वह पुलिस को इस बात का अधिकार दे रहा होता है कि उसे या उसके बेगुनाह परिजनों को किसी भी मामले में पुलिस ठोक दे।
अतः एनकाउंटर पर ताली पीट अपनी आजादी, कानूनी हक कुर्बान करने के बजाय जरूरी है कि हर फर्जी एनकाउंटर पर प्रश्न खड़े किये जाये, उनकी जांच की मांग की जाय, दोषी पुलिस वालों को सजा में मांग की जाए। ऐसा करते हुए ही हम अदालत की भूमिका पुलिस के हाथों में जाने से रोक सकते हैं और अपने जनवादी हकों की रक्षा भी कर सकते हैं।