मोदी सरकार बनाम उच्चतम न्यायालय

हमारे देश में आजकल एक दिलचस्प मुकदमा चल रहा है। यह मुकदमा देश की संसद से लेकर मीडिया तक में चल रहा है। मुकदमा मोदी सरकार बनाम उच्चतम न्यायालय है। इस मुकदमे की कुछ अनूठी खासियतें हैं। कुछ एकदम वैसी बातें हैं जो हर मुकदमे में होती हैं। पहले सामान्य बातों को लें।

हर मुकदमे में दोनों ही पक्ष सही होने का दावा करते हैं। दोनों ही एक-दूसरे पर अभियोग लगाते हैं। लड़ने वाले वकील कितने काबिल हैं, इसका पता उनकी ऊंची-ऊंची फीस से लगता है। आखिर में उस पक्ष की जीत होती है जो साक्ष्य-गवाह के जरिये, कानून के जरिये, तर्क के जरिये और या फिर किसी अन्य जरिये न्यायाधीश के विवेक को संतुष्ट कर देता है। और न्यायाधीश इन सबके बीच, जो भी न्याय है, उसको अपने कथित विवेक के जरिये फैसला घोषित कर देता है। नीचे के न्यायालय में हारा हुआ पक्ष उच्चतम न्यायालय तक जाता है। और यही कवायद दोहराई जाती है। उच्चतम न्यायालय का फैसला अन्तिम माना जाता है। न्याय या तो संविधान कानून की दृष्टि से हो जाता है या फिर कई मामलों में नया कानून बन जाता है।

उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद भी न्याय-अन्याय, सच-झूठ, सही-गलत आदि के पहलू छूटे रह सकते हैं परन्तु अब क्योंकि कुछ नहीं हो सकता है इसलिए पीड़ित पक्ष को चुप लगाना होता है।

केन्द्र सरकार बनाम उच्चतम न्यायालय के बीच के मुकदमे में भी हर सामान्य मुकदमे की तरह ही ऊपर लिखी हुयी इबारत के अनुसार ही हो रहा है। दोनों ही अपने को सही बता रहे हैं। दोनों ही सर्वोच्च हैं। दोनों ही लोकतंत्र की खातिर लोकतंत्र की कसौटी पर अपने को सही ठहरा रहे हैं। दोनों ही तरफ से नामी-गिरामी लोग मुकदमा लड़ रहे हैं। और मुकदमा लड़ने वाले लोग अपने काम की ऊंची कीमत हासिल करते रहे हैं। और अपने विशेषाधिकार की रक्षा की खातिर किसी भी हद तक गये हैं। मुकदमे की गहराई में जाने से पहले मुकदमे को समझना जरूरी है।

मुकदमा क्या है? मुकदमे का मूल सार यह है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करेगा। मोदी सरकार उच्चतम न्यायालय के हाथ से इस ताकत को छीनना चाहती है। और उच्चतम न्यायालय अपने विशेषाधिकार को बचा कर रखना चाहता है। और वह किसी भी कीमत पर किसी समझौते को तैयार नहीं है। ठीक यही बात मोदी सरकार पर भी लागू होती है। वह किसी भी तरह से उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति को अपने हाथ में लेना चाहती है।

2014 में मोदी सरकार ने ‘राष्ट्रीय न्यायाधीश नियुक्ति आयोग’ के जरिये यह करने का प्रयास किया। सरकार ने संसद में इसे पास करवाया और राष्ट्रपति से मुहर भी लगवाई परन्तु 2015 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले के जरिये इसे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन बताते हुए ‘राष्ट्रीय न्यायाधीश नियुक्ति आयोग’ को रद्द कर दिया। उसके बाद वही व्यवस्था चलती रही जो इस आयोग को बनाने के पहले की थी। इस व्यवस्था को कालोजियम व्यवस्था कहा जाता है। यह व्यवस्था तीन जजों के केस (पहला 1982, दूसरा 1993, तीसरा 1998) के जरिये अस्तित्व में आयी थी। इस व्यवस्था के तहत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बनाने का कार्य मुख्य न्यायाधीश सहित पांच वरिष्ठ न्यायाधीश करते हैं। वे अपनी सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजते हैं। केन्द्र सरकार गुप्तचर ब्यूरो (आई बी) की रिपोर्ट आदि के आधार पर यदि संतुष्ट हो जाती है तो राष्ट्रपति उस सिफारिश को मान लेते हैं। यदि केन्द्र सरकार अपने असंतुष्ट होने पर नियुक्ति को नहीं मानती है तो वह वापस उच्चतम न्यायालय के पास भेजती है। और यदि कालोजियम फिर वही सिफारिश करता है तो केन्द्र सरकार को मानना ही होता है। कालोजियम की सिफारिश को न मानने के लिए केन्द्र सरकार दूसरा रास्ता निकालती है। वह कोई निर्णय ही नहीं लेती है। मुख्य न्यायाधीश के शब्दों में वह फाइल पर बैठ जाती है। जब सरकार फाइल पर बैठ जाये तो उच्चतम न्यायालय के पास कोई तरीका नहीं है कि वह सरकार को उठा सके। इस तरह देश की अदालतों में न्यायाधीशों का टोटा पड़ा रहता है।

मोदी सरकार अपने हिन्दू फासीवादी मंसूबों के तहत हर संस्था को भगवा रंग में रंगना चाहती है। न्यायालयों में एक अच्छी-खासी संख्या में ऐसे ही लोग हैं जो पहले से भगवा रंग में रंग हुए हैं। उच्चतम न्यायालय में रंजन गोगोई जैसे लोगों ने पहले ही साबित किया हुआ है कि वे कैसे हैं।

मोदी सरकार बनाम उच्चतम न्यायालय मुकदमे की खासियत क्या है। इसकी खासियत है कि जिन-जिन पर आरोप हैं, वहीं वकील हैं और अपनी बारी में वे स्वयंभू न्यायाधीश हैं। दोनों ही दावा करते हैं कि वे संविधान के अनुसार चल रहे हैं। और दोनों ही अपनी सर्वोच्चता, विशेषाधिकार बनाकर रखना चाहते हैं। इस मुकदमे का समाधान क्या है। लम्बी लड़ाई के बाद या तो एक पक्ष जीत जाये या फिर समय के साथ कोई चुपचाप समझौता कर ले। फिलवक्त लड़ाई वैसी है जैसे दो शक्तिशाली सांड एक-दूसरे के सींग में सींग डालकर अड़े हों। कोई पीछे हटने को तैयार नहीं।

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को