भारत के संविधान और उसमें संशोधन की बात उठने पर अक्सर ही केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य का जिक्र आ जाता है। इस मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय की एक तेरह सदस्यीय पीठ ने बहुत लम्बी सुनवाई के बाद 24 अप्रैल, 1973 को अपना फैसला सुनाया था। इस तेरह सदस्यीय पीठ में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सीकरी भी थे। इस पीठ ने 6 के मुकाबले सात के बहुमत से यह फैसला दिया था कि संसद के पास संविधान संशोधन के सारे अधिकार होने के बावजूद उसमें ऐसे संशोधन नहीं किये जा सकते जो उसकी मूल भावना को या मूल संरचना को बदल दें। यह देखने या निर्णय करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास होगा कि संशोधन इस दायरे में है या नहीं। तब से आज चालीस साल गुजर जाने के बावजूद संविधान के बारे में यही धारणा पूंजीवादी हलकों में मान्य है।<br />
इस सबका वास्तविक निहितार्थ क्या है उस पर बात करने के पहले केशवानन्द भारती मुकदमे में पहले और बाद की पृष्ठभूमि जान लेना दिलचस्प होगा।<br />
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो कुछ समय बाद कांग्रेस पार्टी के भीतर खींचतान शुरू हो गयी। कांग्रेस पार्टी के सिंडिकेट धड़े ने इंदिरा को इसलिए प्रधानमंत्री बनाया था कि वे उन्हें कमजोर व्यक्तित्व का मानते थे और सोचते थे कि उन्हें अपने मन-मुताबिक चला लेंगे। लेकिन कुछ समय बाद इंदिरा गांधी ने अपने को इन संरक्षकों से मुक्त करने का प्रयास करना शुरू किया। इससे पार्टी के भीतर भीषण संघर्ष शुरू हो गया जिसका अंतिम परिणाम कांग्रेस पार्टी को विभाजन में हुआ।<br />
इस विभाजन के साथ ही इंदिरा गांधी ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अपने को गरीबों की आम जनता की समर्थक दिखाना शुरू किया। उन्होंने यह जताने का प्रयास किया कि विरोधी धड़ा पूंजीपतियों का समर्थक है। खासकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण और राजे-रजवाड़े के प्रिवी पर्स को समाप्त करने को उनके समर्थकों ने इसी रूप में प्रचारित किया। इन दोनों निर्णयों की वैधानिकता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी और दोनों ही मामलों में सरकार के कार्यकारी निर्णय के अधिकारों को स्वीकार करते हुए भी न्यायालय ने संवैधानिक सीमाओं की बातें की।<br />
यह गौरतलब है कि 1966 से 1976 तक का दौर भारत में पूंजीपति वर्ग के लिए संकट का समय था। इस संकटकालीन समय में पूंजीपति वर्ग की सरकार एक के बाद एक ऐसे कदम उठा रही थी जो असामान्य थे और जो सामान्य संवैधानिक दायरों से बाहर जाते दीखते थे। इसलिए स्वतः ही भारतीय संविधान के मूलभूत चरित्र, उसकी सीमा रेखाओं तथा उसमें संशोधन की हदों का मामला बहस के दायरे में आ जाता। इसीलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि चाहे 1967 का गोलकनाथ मुकदमा हो या फिर बैंक राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स खात्मा या केशवानन्द भारती का मुकदमा हो, इन सबमें संविधान का चरित्र और उसकी सीमा रेखाओं का मामला प्रमुख बन गया।<br />
इस संकटपूर्ण समय में स्वभावतः ही यह मुद्दा भी उठ खड़ा हुआ कि संविधान के संदर्भ और न्यायालय का रिश्ता क्या हो? दोनों में से अंततः कौन प्रमुख है? ऊपरी तौर पर यह भारतीय राज्य की दो प्रमुख संस्थाओं के बीच वरीयता की जंग लगती है पर असल में यह भारतीय राज्य के विभिन्न अंगों के बीच क्या संबंध हो, उसे ज्यादा स्पष्ट रूप में परिभाषित करने का संघर्ष था जिससे कि समूची पूंजीवादी व्यवस्था ज्यादा बेहतर ढंग से संचालित की जा सके। यह जरूरी था क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था के सारे अंतर्विरोध इस संकटकालीन समय में ही तीखे ढंग से उजागर हुए थे या यूं कहें कि अंतर्विरोधों के तीखे होने की अभिव्यक्ति यह संकट था। <br />
भारतीय पूंजीवाद की उस संकटपूर्ण अवस्था में सरकार एक के बाद एक ऐसे कदम उठा रही थी जो परंपरागत दायरे का उल्लंघन करते थे। यह स्वभावतः ही शासक वर्गीय हलकों में गंभीर मतभेदों को जन्म दे रहे थे। इसी के साथ यह भी कि संकट की अवस्था में व्यक्तिगत हितों के टकराव भी तीखे हो जाते हैं क्योंकि उनके समायोजित होने की गुंजाइश कम हो जाती है।<br />
गोलकनाथ, बैंक राष्ट्रीयकरण व प्रिवी पर्स के खात्मे के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को देखते हुए सरकार ने एक के बाद एक ऐसे संवैधानिक संशोधन किये जो इन मामलों में न्यायालय द्वारा खींची गयी सीमा रेखाओं से परे जाते थे। ऐसे में केशवानन्द भारती का मामला अति महत्व ग्रहण कर गया। केशवानन्द भारती का मामला अपने मूल में एक मठ से संबंधित था लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचते-पहुंचते इसमें मठ के साथ चीनी मिलें और खनन कंपनियां संबद्ध हो गयी तथा विरोध में केरल सरकार के साथ केन्द्र सरकार भी। सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में मूलभूत अधिकारों के ऐसे नुक्ते उठा दिये गये जिनके निपटारे के लिए 13 सदस्यीय संवैधानिक पीठ का गठन करना पड़ा।<br />
यह ध्यान रखने की बात है कि इन सारे मसलों में मामला निजी सम्पत्ति से संबंधित था पर इसने रूप संविधान द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का तथा अंततः संविधान में संशोधन के संसद के अधिकारों की सीमाओं का ले लिया। हुआ यह कि सरकार के किन्हीं फैसलों को, जो किसी की निजी सम्पत्ति को प्रभावित करते थे, इस आधार पर न्यायालय में चुनौती दी गयी कि वे संविधान में जीवन और स्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन करते थे। जब इन मामलों में न्यायालय के फैसलों के परे जाने के लिए सरकार ने संविधान में संशोधन करने की कोशिश की तो मामला फिर यह बन गया कि क्या संसद को संविधान में संशोधन का असीमित अधिकार है या फिर यह किन्हीं सीमाओं द्वारा बंधा हुआ है। इस तरह निजी सम्पत्ति से संबंधित किन्हीं मामलों में संविधान के संबंध में संसद के अधिकारों की सीमाओं के निर्धारण का रूप धारण कर लिया। मामला संविधान, जनतंत्र और पूंजीवादी व्यवस्था की मूलभूत आंतरिक संरचना तक पहुंच गया। मुहावरे के सही अर्थों में तिल का ताड़ बन गया।<br />
जैसाकि पहले कहा गया है कि 1966 से 1976 के संकट ने भारतीय राज्य के विभिन्न अंगों के संबंधों को बहस के दायरे में ला दिया था। जब भारतीय पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदों ने अपना संविधान बनाया था तब उन्होंने संविधान संशोधन के मामले में धारा-368 में कुछ इस तरह से मामले को रखा था जिससे यह ध्वनित होता था कि संसद को संविधान संशोधन के संबंध में असीमित अधिकार हैं। पूंजीवादी जनतंत्र की सामान्य अवधारणा के अनुसार भी ऐसा ही होना चाहिए। पूंजीवादी जनतंत्र में जनता सर्वाधिकार सम्पन्न मानी जाती है। संविधान भी उसका खुद को दिया गया एक अनुबंध होता है जिसके अनुसार समूचे समाज का संचालन किया जायेगा और प्रत्येक नागरिक उसके हिसाब से चलेगा। स्वयं भारत का संविधान ‘हम भारत के लोग’ से शुरू होता है। संविधान के प्राक्कथन के अनुसार भारत के लोगों ने खुद को यह संविधान दिया है।<br />
लेकिन संविधान सभा में तो (संविधान बनाने के लिए) भारत के सारे लोग बैठे नहीं थे। वहां केवल भारत के लोगों के प्रतिनिधि थे (वह भी 13 प्रतिशत सम्पत्तिवान और शिक्षित लोगों द्वारा चुने हुए)। लेकिन पूंजीवादी जनतंत्र में यह माना जाता है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि संविधान सभा में या विधाई सभा में उसका स्थान ले सकते हैं। इसीलिए संविधान सभा द्वारा बनाये गये संविधान को सारे भारत के लोगों द्वारा बनाया गया संविधान मान लिया गया।<br />
ठीक इसी कारण यह माना गया कि जिन लोगों ने खुद को यह संविधान दिया है वे उसे बदल भी सकते हैं और किसी भी हद तक बदल सकते हैं। यदि जनता ही सर्वाधिकार सम्पन्न है तो किसी अन्य वक्त पर वह अपने संविधान को पूर्णतया बदल सकती है। स्वभावतः ही संविधान सभा की अनुपस्थिति में यह अधिकार विधाई सभा को मिल जाता है। इसी भावना के तहत संविधान संशोधन की धारा- 368 में कोई सीमा नहीं लगाई गयी, केवल उसकी प्रक्रिया निर्धारित की गयी। यह अघोषित तौर पर मान लिया गया कि संसद के पास संविधान संशोधन के असीमित अधिकार हैं।<br />
वास्तव में संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष भीमराव अंबेडकर ने एक अन्य संदर्भ में यह बात कही भी थी। जब कुछ समाजवादी सदस्यों ने मांग की कि यदि हम समाजवाद की बात कर रहे हैं तो हमें संविधान में ही निजी सम्पत्ति के खात्मे का प्रावधान कर देना चाहिए। इस पर अंबेडकर ने कहा कि ऐसा करके हम भावी पीढि़यों के हाथ बांध देंगे। हमें यह उन पर छोड़ देना चाहिए कि वे समाजवाद कैसे लायेंगे। वे उसके अनुरूप संविधान में संशोधन कर लेंगे।<br />
जैसा कि पूंजीवादी समाजों में होता है पूंजीवादी जनतंत्र की यह अवधारणा पूंजीवादी समाज के मूल आधार यानी निजी सम्पत्ति से टकरा गयी। सभी पूंजीवादी जनतंत्रों का यह आम अंतर्विरोध है कि इसमें सारे नागरिक औपचारिक, कानूनी तौर पर बराबर होते हैं। लेकिन वास्तविक तौर पर निजी सम्पत्ति के चलते वे गैर बराबर होते हैं। औपचारिक तौर पर समूची जनता सर्वाधिकार सम्पन्न होती है पर वास्तव में केवल पूंजी के मालिक और उनके चाकर ही अधिकार सम्पन्न होते हैं। औपचारिक तौर पर शासन जनता का होता है पर वास्तव में वह पूंजी का शासन होता है। औपचारिक तौर पर चुने हुए लोग जनता के प्रतिनिधि होते हैं पर वास्तव में वे पूंजीपति वर्ग के सेवक होते हैं।<br />
वक्त के साथ भारतीय संविधान मामले में भी यह अंतर्विरोध खुलकर सामने आया। यदि जनता सर्वाधिकार सम्पन्न है और संसद इस जनता की प्रतिनिधि है तो संसद को संविधान संशोधन का असीमित अधिकार होना चाहिए और चूंकि संविधान में ही निर्देशक सिद्धांतों के तहत एक समतामूलक समाज का लक्ष्य रक्षा गया है इसलिए संसद को इस दिशा में कोई कदम उठाने की छूट होनी चाहिए। स्वभावतः ही इस तरह के कदम निजी सम्पत्ति पर किसी हद तक प्रहार करते।<br />
1966 से 76 के संकटपूर्ण समय में इंदिरा गांधी की सरकार ने कुछ पूंजीवादी विकास की जरूरतों के मद्देनजर और कुछ अपनी सत्ता के मद्देनजर ऐसे कदम उठाये जो कुछ लोगों की निजी सम्पत्ति पर प्रहार करते थे। ऐसे में पूंजीवादी समाज का निजी सम्पत्ति का आधारभूत पहलू खुलकर सामने आ गया और उसने पूंजीवादी जनतंत्र के औपचारिक रूप के सामने झंडा गाड़ दिया। यह उसने भारतीय राज्यसत्ता के एक अन्य अंग न्यायपालिका के माध्यम से किया। इससे यह एक बार फिर रेखाकित हुआ कि पूंजीवादी राज्यसत्ता में चुनी हुए संस्थाओं के मुकाबले उसके स्थाई अंग- पुलिस, सेना, नौकरशाही तथा न्यायपालिका ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।<br />
जैसा कि पहले कहा गया है कि असल में मामला निजी सम्पत्ति की रक्षा का था। गोलकनाथ मामले में गोलकनाथ बंधुओं की उस जमीन का मसला था जो पंजाब लैंड सीलिंग एक्ट के हिसाब से सीलिंग सीमा से ज्यादा थी। इस मामले में संविधान द्वारा प्रदत्त बुनियादी अधिकारों का हवाला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय सुनाया था कि संसद को बुनियादी अधिकारों में कोई भी परिवर्तन का अधिकार नहीं है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवी पर्स के मामले में भी निजी सम्पत्ति ही मुद्दा थी। और केशवानन्द भारती मामले में भी मठ की जमीन का ही मुद्दा था। केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 सदस्यीय पीठ के सात सदस्यों ने यह फैसला दिया कि संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार तो है बुनियाद अधिकारों में फेरबदल सहित पर यह अधिकार इतना नहीं है कि संविधान का मूल ढांचा बदल जाये या उसके मूलभूत तत्व बदल जायें। यानी अपनी मूल भावना में या मूलभूत चरित्र में संविधान को वही बने रहना चाहिए।<br />
तो फिर संविधान का मूलभूत ढांचा या संविधान के मूलभूत तत्व क्या हैं? वे किससे संबंध रखते हैं? स्वभावतः ही वे निजी सम्पत्ति से संबंध रखते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था निजी सम्पत्ति की व्यवस्था है और पूंजीपति वर्ग की इस निजी सम्पत्ति की रक्षा होनी ही चाहिए। यदि कोई पूंजीवादी संविधान पूंजीपति वर्ग की निजी सम्पत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करता तो वह पूंजीवादी संविधान नहीं है। भारत के संविधान के बारे में भी यही बात सच है। संविधान सभा और उसके द्वारा निर्मित संविधान के लिए यह मानी हुई बात थी कि पूंजीपति वर्ग के निजी सम्पत्ति की रक्षा होने ही चाहिए। इस संबंध में नेहरू जितने दृढ़ थे उतने ही अंबेडकर भी। लेकिन भारतीय संविधान में यह उतना घोषित नहीं है जितनी मानी हुई बात है। घोषित-अघोषित की इस अस्पष्टता के कारण ही 1966-76 के संकटकालीन समय में इस पर इतना विवाद उठा खड़ा हुआ और तक सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि निजी सम्पत्ति ही भारतीय पूंजीवादी संविधान की मूल आत्मा है। जो बात स्पष्ट थी वह अब स्पष्ट कर दी गयी। संविधान प्रदत्त सभी बुनियादी अधिकारों में कटौती की जा सकती थी पर सम्पत्तिवानों, खासकर पूंजीपति वर्ग की निजी सम्पत्ति पर आंच नहीं आने दी जा सकती थी।<br />
इस तरह केशवानन्द भारत मामले ने दो चीजों को तय कर दिया। एक तो यह कि संविधान के संबंध में जनता या उसकी नुमाइंदगी करने वाली संसद सर्वाधिकार सम्पन्न नहीं है। सर्वाधिकार सम्पन्न है पूंजीपति वर्ग। उसकी निजी सम्पत्ति की रक्षा संविधान का मूल तत्व है। दूसरे यह कि ऐसा ही हो, इसकी देख-रेख की जिम्मेदारी राज्यसत्ता के स्थाई अंग न्यायपालिका, सर्वोच्च न्यायालय की है क्योंकि संसद तो किन्ही स्थितियों में जनता की भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए पूंजीवादी निजी सम्पत्ति पर हमले की ओर जा सकती है। 1966-76 के संकटपूर्ण समय तथा उस दौरान हुई खींचतान के बाद पूंजीवादी शासक हलकों में यह बात तय हो गयी तब से उनमें इस पर मोटामोटी सहमति हैं लेकिन तब बात यह भी है कि उतना तीखा संकट उसके बाद भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था ने देखा ही नहीं। एक और भीषण संकट इस सवाल को नये सिरे से खोल सकता है।<br />
उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी या माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी जैसे मजदूर वर्ग के गद्दार यह कहते हैं कि वे भारतीय संविधान के हिसाब से चल रही संसद के जरिये समाजवाद लायेंगे तो वे किस कदर मजदूर वर्ग को धोखा दे रहे हैं। यदि भारतीय पूंजीवादी संविधान का मकसद ही पूंजीवादी निजी सम्पत्ति की रक्षा है तो उसके जरिये इस सम्पत्ति को खत्म नहीं किया जा सकता। यह संविधान विरोधी कदम होगा और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। पूंजीवादी संविधान की रक्षा में न केवल समूचा पूंजीपति वर्ग बल्कि पूरी राज्य मशीनरी आ खड़ी होगी। और वह बिल्कुल संवैधानिक काम कर रही होगी। तब संविधान का उल्लंघन करने वाले लोग या तो फांसी पर लटका दिये जायेंगे या फिर जेल में डाल दिये जायेंगे।<br />
वास्तव में कोई भी संविधान विद्यमान सम्पत्ति संबंधों और उस पर खड़े पूरे सामाजिक ताने-बाने को कानूनी वैधता प्रदान करता है और उसकी रक्षा करता है। इसका सुचारू ढंग से संचालन उसका उद्देश्य होता है। सारे पूंजीवादी समाजों के संविधान और इसी कारण भारतीय संविधान के बारे में भी यह सच है।<br />
ठीक इसी कारण विद्यमान सम्पत्ति संबंधों तथा उस पर खड़े सामाजिक ताने-बाने को मूलभूत ढंग से बदलना है तो वह विद्यमान संविधान के जरिये नहीं हो सकता। वह संविधान के बाहर और उसके खिलाफ ही हो सकता है। इसलिए वह शुरू से ही एक असंवैधानिक कार्यवाही होगी जिसका लक्ष्य होगा वर्तमान संविधान को किनारे लगाकर एक नये संविधान का निर्माण। स्वभावतः ही यह विद्यमान राज्यसत्ता के जरिये अस्तित्व में आयेगा और उसे वैधानिकता प्रदान करेगा। वह नये सम्पत्ति संबंधों और उस पर खड़े नये सामाजिक ताने-बाने को अभिव्यक्त करेगा और उनके आगे के विकास में सहायक होगा। पूंजीवादी राज्य सत्ता के बदले मजदूरों की राज्यसत्ता के बारे में भी यही सच है।<br />
केशवानन्द भारती मामले का मजदूर वर्ग और उसके क्रांतिकारियों के लिए यही वास्तविक निहितार्थ है।
संविधान की मूल भावना: निजी सम्पत्ति की रक्षा
राष्ट्रीय
आलेख
सीरिया में अभी तक विभिन्न धार्मिक समुदायों, विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों के लोग मिलजुल कर रहते रहे हैं। बशर अल असद के शासन काल में उसकी तानाशाही के विरोध में तथा बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोगों का गुस्सा था और वे इसके विरुद्ध संघर्षरत थे। लेकिन इन विभिन्न समुदायों और संस्कृतियों के मानने वालों के बीच कोई कटुता या टकराहट नहीं थी। लेकिन जब से बशर अल असद की हुकूमत के विरुद्ध ये आतंकवादी संगठन साम्राज्यवादियों द्वारा खड़े किये गये तब से विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के विरुद्ध वैमनस्य की दीवार खड़ी हो गयी है।
समाज के क्रांतिकारी बदलाव की मुहिम ही समाज को और बदतर होने से रोक सकती है। क्रांतिकारी संघर्षों के उप-उत्पाद के तौर पर सुधार हासिल किये जा सकते हैं। और यह क्रांतिकारी संघर्ष संविधान बचाने के झंडे तले नहीं बल्कि ‘मजदूरों-किसानों के राज का नया संविधान’ बनाने के झंडे तले ही लड़ा जा सकता है जिसकी मूल भावना निजी सम्पत्ति का उन्मूलन और सामूहिक समाज की स्थापना होगी।
फिलहाल सीरिया में तख्तापलट से अमेरिकी साम्राज्यवादियों व इजरायली शासकों को पश्चिम एशिया में तात्कालिक बढ़त हासिल होती दिख रही है। रूसी-ईरानी शासक तात्कालिक तौर पर कमजोर हुए हैं। हालांकि सीरिया में कार्यरत विभिन्न आतंकी संगठनों की तनातनी में गृहयुद्ध आसानी से समाप्त होने के आसार नहीं हैं। लेबनान, सीरिया के बाद और इलाके भी युद्ध की चपेट में आ सकते हैं। साम्राज्यवादी लुटेरों और विस्तारवादी स्थानीय शासकों की रस्साकसी में पश्चिमी एशिया में निर्दोष जनता का खून खराबा बंद होता नहीं दिख रहा है।
यहां याद रखना होगा कि बड़े पूंजीपतियों को अर्थव्यवस्था के वास्तविक हालात को लेकर कोई भ्रम नहीं है। वे इसकी दुर्गति को लेकर अच्छी तरह वाकिफ हैं। पर चूंकि उनका मुनाफा लगातार बढ़ रहा है तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं है। उन्हें यदि परेशानी है तो बस यही कि समूची अर्थव्यवस्था यकायक बैठ ना जाए। यही आशंका यदा-कदा उन्हें कुछ ऐसा बोलने की ओर ले जाती है जो इस फासीवादी सरकार को नागवार गुजरती है और फिर उन्हें अपने बोल वापस लेने पड़ते हैं।