आम चुनाव, बढ़ता फासीवादी हमला और मीडिया

नागरिक पाक्षिक द्वारा आयोजित का. नगेन्द्र स्मृति वार्षिक सेमिनार 2023 में प्रस्तुत सेमिनार पत्र (अंश)

पिछले लगभग 10 वर्षों से मजदूर-मेहनतकश आबादी पर फासीवादी हमले बढ़ते जा रहे हैं। हिन्दूवादी आपराधिक गिरोह मोदी काल में सरकारी संरक्षण और मदद से अल्पसंख्यकों पर विशेष कर मुस्लिम आबादी पर हमले तेज कर रहे हैं। सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त गिरोहों द्वारा दलित गरीब आबादी की प्रताड़ना, अपमान और भेदभाव नये सिरे से तीव्रता ग्रहण कर रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं, मौजूदा नरेन्द्र मोदी की हुकूमत तमाम संस्थाओं को संघी प्रचारकों से भर रही है। संवैधानिक तौर पर स्वायत्त कही जाने वाली संस्थाओं को वह सीघे अपने अधीन कर रही है। फासीवादी सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर विरोधी पूंजीवादी पार्टियों के नेताओं को भी एकतरफा तौर पर प्रताड़ित कर उन पार्टियों को तोड़ने में जुटी रही है।.......... 
    
केंद्र की सत्ता पर काबिज हिंदू फासीवादियों को मुख्यधारा के मीडिया का सहयोग-समर्थन आज किसी से छिपा नहीं है। यहां मुख्यधारा के मीडिया से हमारा आशय बड़े न्यूज चैनलों और बड़े अखबारों व पत्रिकाओं से है। मुख्यधारा का यह मीडिया असल में पूंजीवादी अथवा कारपोरेट मीडिया है, जिसमें खुद ही करोड़ों-अरबों का निवेश है और जिसके मालिकान बड़े इजारेदार पूंजीपति हैं। उदाहरणस्वरूप TV-18 ब्राडकास्टिंग लिमिटेड एक मीडिया कंपनी है जिसका छोटे-बड़े अनेकों चैनलों में निवेश है। यह नेटवर्क 18 मीडिया एंड इन्वेस्टमेंट लिमिटेड से जुड़ी है, जो कि रिलायंस इंडस्ट्रीज का उपक्रम है और जिसके मालिक मुकेश अम्बानी हैं। इसी तरह एक प्रमुख न्यूज चैनल NDTV अब गौतम अडानी की मिलकियत हो चुका है। इसके अलावा बेनेट कोलेमन एंड कंपनी लिमिटेड का मालिकाना साहू जैन परिवार के पास है, जो कि देश के सबसे पुराने मीडिया मुगल हैं। इनके नियंत्रण में टाइम्स आफ इंडिया, नवभारत टाइम्स, इकोनामिक टाइम्स जैसे अखबार और अंग्रेजी चैनल टाइम्स नाउ इत्यादि हैं जबकि इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता प्रसिद्ध पूंजीपति गोएनका की तो हिंदुस्तान टाइम्स बिड़ला परिवार की संपत्ति है। हिंदी के अन्य बड़े और क्षेत्रीय अखबारों में भी इजारेदार, व्यवसायिक और बड़ी क्षेत्रीय पूंजी का निवेश है।
    
2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में हिंदू फासीवादियों को पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने में इसी पूंजीवादी अथवा कारपोरेट मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसका कारण 2012 से 2014 के दौरान इजारेदार पूंजीपतियों और हिंदू फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर एस एस) के बीच कायम हुआ गठजोड़ है। इसी गठजोड़ के तहत इजारेदार पूंजीपतियों ने अपना मीडिया हिंदू फासीवादियों की सेवा में अर्पित किया हुआ है और सत्ता पर काबिज हिंदू फासीवादी इजारेदार पूंजीपतियों की इच्छा के अनुरूप उदारीकरण-निजीकरण की जनविरोधी नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाने और उस अनुरूप कानूनों को बनाने व बदलने में लगे हुये हैं।
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    .....जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे ये अपने हिंदुत्व के एजेंडे के साथ आक्रामक होते जा रहे हैं, क्योंकि ये भली-भांति जानते हैं कि एकमात्र यही एजेंडा इनकी चुनावी वैतरणी को पार लगा सकता है। ....अखबारों में हेडलाइन मैनेजमेंट का खेल जोरों पर है तो हिंदी न्यूज चैनलों के एंकर संघ के प्रचारक की भूमिका में उतरकर सीधे-सीधे सांप्रदायिक दंगे भड़काने की कोशिशें कर रहे हैं। और यह सब इसलिये कि देश के इजारेदार पूंजीपति- अडानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला आदि चाहते हैं कि संघी नरेंद्र मोदी पुनः केंद्र की सत्ता पर काबिज हों।
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आजकल हिंदू फासीवादियों द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रायोजित धार्मिक जुलूस लगातार बढ़ते जा रहे हैं। रामनवमी, हनुमान जयंती या फिर किसी जलाभिषेक यात्रा के नाम पर निकल रहे इन बेहद आक्रामक जुलूसों में शामिल नौजवानों द्वारा बेहद तेज आवाज में डी जे बजाना, जुलूस को जान-बूझकर मुस्लिम बहुल इलाकों से निकालना और वहां भड़काऊ नारे लगाना, किसी मस्जिद पर भगवा झंडा फहरा देना, खुलेआम तलवारें ही नहीं तमंचे तक लहराना एकदम आम होता जा रहा है। इन बेहद उकसावेपूर्ण गतिविधियों के परिणामस्वरूप यदि मुस्लिम पक्ष के लोगों के साथ कहीं कोई भिड़न्त हो जाती है या फिर कहीं पथराव की कोई घटना घट जाती है तो ये चौबीसों घंटे बजबजाने वाले न्यूज चैनल तत्काल ही मुस्लिमों को दंगाई और पत्थरबाज घोषित कर देते हैं। इन चैनलों पर अब ‘‘दंगाई और पत्थरबाजों का पाकिस्तान कनेक्शन’’ जैसे शीर्षकों के साथ खबरें चलने लगती हैं। अभी तक खामोश रहने वाला पुलिस-प्रशासन भी अब सक्रिय हो जाता है और गिरफ्तारियां शुरू कर देता है जिसमें इक्का-दुक्का को छोड़कर लगभग सभी मुस्लिम नौजवान ही होते हैं। और इसके बाद सरकार का बुल्डोजर गरजता है और अतिक्रमण के नाम पर मुस्लिमों की दुकानों-मकानों को जमींदोज कर देता है जबकि इसका सीधा प्रसारण करते हुये न्यूज चैनल खुलेआम ‘‘दंगाई और पथरबाजों को मिला सबक’’ जैसे शीर्षकों के साथ खबरें चलाते हैं।
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ये न्यूज चैनल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के भीतर किसी ट्रेन के उद्घाटन से लेकर उनके विदेशी दौरों तक के दौरान उनका भारी महिमामंडन करते हैं। उन्हें देश हित में कड़े फैसले लेने वाला बताते हैं। लेकिन वे यह कभी नहीं बताते कि नोटबंदी और जीएसटी कैसे व्यापक आबादी की तबाही-बर्बादी का सबब बनी। न ही वे यह बताते हैं कि कोरोना महामारी के दौरान अचानक लगाए तुगलकी लॉकडाउन से कैसे व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी को पलायन व अन्य भारी तकलीफें झेलनी पड़ीं। कोरोना की दूसरी लहर में जब लाखों लोग इलाज के अभाव में मौत के शिकार हो रहे थे और लाशें गंगा में तैर रही थीं तब इन मौतों के लिए मोदी सरकार के जनविरोधी चरित्र को दोषी ठहराने के बजाय मीडिया सरकार की वाहवाही कर रहा था। आज देश में बेरोजगारी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है, देश की अर्थव्यवस्था में 45 फीसदी हिस्सा रखने वाला असंगठित क्षेत्र तबाह हाल है, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया जैसी सभी योजनायें अपनी अंतिम सांसे गिन रही हैं, लेकिन ये न्यूज चैनल सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के मनगढंत आंकड़े पेश कर बताते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था तरक्की कर रही है। मानव विकास सूचकांक के ज्यादातर मापदंडों पर भारत दुनिया में सबसे आखिरी पायदानों पर खड़ा है लेकिन ये न्यूज चैनल बताते हैं कि देश विकास कर रहा है। ........ 
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मोदी सरकार और भाजपाई राज्य सरकारों द्वारा न्यूज चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं के लिये समय-समय पर निर्देश जारी होते रहते हैं जिनका साफ मकसद अपने विरोध में हो रही रिपोर्टिंग को रोकना होता है। आज हालत यह है कि हिंदू धर्म की किसी कूपमंडूक बात का भी विरोध अथवा मोदी-शाह-योगी पर कोई छोटा-व्यंग्य अथवा आक्षेप भी किसी पत्रकार को जेल भिजवा सकता है।..........
    
हालत यह है कि उत्तर प्रदेश के योगी राज में हाथरस की बहुचर्चित घटना को कवर करने की कोशिश करने वाला पत्रकार जेल पहुंच गया तो मणिपुर में राज्य सरकार की मैतई समुदाय के साथ सीधी संलिप्तता की रिपोर्ट करने वाले एडिटर गिल्ड्स के पत्रकारों पर मुकदमा कायम हो गया। और अब तो सरकार नया अखबार पंजीकरण बिल लाकर ‘राष्ट्र विरोधी’ तत्वों से अखबार-पत्रिका प्रकाशन का हक ही छीन लेने पर उतारू है। जाहिर सी बात है कि कौन राष्ट्र विरोधी है और कौन नहीं इसका फैसला सरकार ही करेगी। यह प्रेस की स्वतंत्रता पर बड़ा हमला साबित होगा। इस सारे माहौल में भारत के हिंदू राष्ट्र होने सन्दर्भी बातें क्रमशः अधिक चर्चा पाने लगी हैं। संविधान की ‘धर्म निरपेक्षता’ की बातों को तो यह मीडिया कभी का छोड़ चुका है।
    
समाज में सभी वर्गों में स्मार्ट फोन का इस्तेमाल तेजी से बढ़ने के साथ आज के समय में सोशल मीडिया का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। वैसे तो सोशल मीडिया का नियंत्रण साम्राज्यवादियों और कारपोरेट पूंजीपतियों के ही हाथ में है लेकिन पूंजीवादी शासकों के विरुद्ध संघर्ष में मजदूर-मेहनतकश जनता और आम लोगों के हाथ में भी यह एक हथियार है। इस हथियार के कुशलतापूर्वक इस्तेमाल ने विगत किसान आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और इससे मोदी सरकार काफी परेशान थी। अब प्रस्तावित नये पंजीकरण बिल के जरिये सरकार डिजिटल मीडिया को भी निगरानी के दायरे में लाने का प्रयास कर रही है। 
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मोदी सरकार पिछले काफी समय से सोशल मीडिया के जनपक्षधर इस्तेमाल पर लगाम कसने के लिये हरसंभव कानूनी और गैरकानूनी तरीके अपना रही है। आज दुनिया में सबसे अधिक इंटरनेट शटडाउन भी भारत में ही हो रहा है। लेकिन वहीं दूसरी ओर हिंदू फासीवादी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिये स्वयं द्वारा सीधे और अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित मीडिया सेल का ताना-बाना और पहुंच बढ़ाने के भी अधिकतम संभव प्रयास कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर झूठे तथ्यों पर आधारित उकसावेपूर्ण खबरें और वीडियो प्रचारित करना और विरोधियों को तमाम मनगढंत आरोप मढ़ते हुये बेहद आपत्तिजनक यहां तक कि गाली-गलौच भरी भाषा में ट्रोल करना, लड़कियों-महिलाओं को बलात्कार की धमकी देना इनकी आम कार्यशैली है। हाल ही में अमेरिका की अपनी आधिकारिक यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न चाहते हुये भी प्रेस कांफ्रेंस का सामना करना पड़ा जिसमें एक महिला पत्रकार सबरीना सिद्दकी ने उनसे भारत में अल्पसंख्यकों के हालतों पर जो सवाल पूछा उससे वे असहज हो गये। इस पर संघी ट्रोल आर्मी सबरीना सिद्दकी पर इतनी ज्यादा हमलावर हो गई कि कि खुद व्हाइट हाउस को आधिकारिक तौर पर इसकी निंदा करनी पड़ी।
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मुख्यधारा के मीडिया के एकदम निर्लज्ज तरीके से हिंदू फासीवादियों की सेवा में लग जाने के कारण अब भांति-भांति के उदारवादी और वाम उदारवादी विभिन्न यू ट्यूब चैनलों के जरिये ही अपनी आवाज आगे बढ़ा और मोदी सरकार की आलोचना कर पा रहे हैं। आज सोशल मीडिया पर इनके फालोवर्स भी हजारों-लाखों में हैं और इनमें से किसी-किसी के तो दसियों लाख फालोवर्स हैं। ये यू ट्यूब चैनल मोदी सरकार की तानाशाही की आलोचना करते हैं और अब इन चैनलों पर मोदी सरकार के लिये फासीवाद जैसे शब्द का प्रयोग भी होने लगा है लेकिन पूंजीवादी लोकतंत्र का पक्षधर होने के कारण ये हिंदू फासीवादियों और इजारेदार पूंजीपति वर्ग के गठजोड़ को अपने निशाने पर नहीं लेते हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ये सभी चैनल भी इस समय चुनावी मोड में आ चुके हैं और कुछ सीधे-सीधे तो कुछ अप्रत्यक्ष रूप से विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ का समर्थन कर रहे हैं।
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आज इस कारपोरेट मीडिया में विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों के लिये भी जगह बहुत कम बची है। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी का तो इन न्यूज चैनलों पर हर दिन मखौल उड़ाया जाता है। इस कारण उदारवादी दायरों में इस मीडिया के लिये गोदी मीडिया शब्द प्रचलन में आ चुका है, जो ठीक नहीं है। हमें मीडिया के बारे में उदारवादी दृष्टिकोण से मुक्त रहना होगा। हमें स्पष्ट रहना होगा कि मीडिया मोदी की गोद में नहीं बैठा है बल्कि इजारेदार पूंजीपति वर्ग और हिंदू फासीवादियों के बीच कायम गठजोड़ के परिणामस्वरूप इजारेदार पूंजीपति वर्ग ने अपना मीडिया हिंदू फासीवादियों की सेवा में लगाया हुआ है। कल को परिस्थिति बदलने पर यह गठजोड़ टूट भी सकता है और तब कारपोरेट मीडिया का रुख भी बदल जायेगा। लेकिन अभी यह गठजोड़ कायम है और कारपोरेट मीडिया हिंदू फ़ासीवादियों की सेवा में लगा हुआ है। हिंदू फासीवादी किसी भी कीमत पर आगामी लोकसभा चुनाव जीतना चाहते हैं और मीडिया एकदम समर्पित भाव से उनका साथ दे रहा है।
    
हिंदू फासीवादी पूंजीवादी लोकतंत्र को खोखला करते हुये फासीवादी निजाम कायम करने की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में आगामी चुनावों में बहुमत से जीत निश्चित ही इनके हौंसलों को बहुत अधिक बढ़ा देगी। फासीवाद का खतरा आज एकदम प्रत्यक्ष और आसन्न है। ऐसे में हिंदू फासीवादियों को पीछे धकेलने हेतु वैकल्पिक मीडिया की जरूरत पहले के किसी भी समय से आज कहीं ज्यादा है। भांति-भांति के उदारवादियों और वाम उदारवादियों द्वारा संचालित यू ट्यूब चैनल आज इस वैकल्पिक मीडिया की जरूरत को एक तरीके से पूरा कर रहे हैं। लेकिन अपनी वैचारिक सीमाओं और पक्षधरता के कारण ये महज चुनावों में हार को हिंदू फासीवादियों की हार के रूप में देखते हैं, जो कि गलत है।
    
असल में फासीवाद का खतरा पूंजीवाद के संकट से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। इसी पूंजीवादी संकट के कारण पिछले तीन-चार दशकों में हिंदू फासीवादियों का जनाधार व्यापक हुआ है, इनकी जड़ें गहरी हुई हैं। ऐसे में महज किसी चुनाव में हार-जीत से फासीवाद का खतरा नहीं टल जाता। इनके जनाधार से इनको वंचित करने और इनकी जड़ों को काटने के लिये जरूरी है कि पूंजीवाद के विरुद्ध समाजवाद को लक्षित मजदूर वर्ग का क्रांतिकारी आंदोलन आगे बढ़े और मीडिया इस आंदोलन को सम्बोधित करे और इसे आगे बढ़ाये। ऐसा वैकल्पिक मीडिया जो कि पूंजीवादी लोकतंत्र की सीमाओं में कैद होने के बजाय आज के कठिन, चुनौतीपूर्ण लेकिन साथ ही संभावनाशील दौर की जरूरतों को पूरा करे। ..........   ***  

आलेख

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को