इजराइल ने फिलिस्तीन पर हमला बोला हुआ है। अब तक इस हमले में 1400 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। मारे और घायल बच्चों, महिलाओं की दर्दनाक तस्वीरें सोशल मीडिया में छाई हुई हैं। कई देशों में मानवता को प्यार करने वाले लोग इजराइली हमले के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। वे इजराइल के फिलिस्तीन पर कब्जे के खिलाफ नारेबाजी करते हुए अपना रोष व्यक्त कर रहे हैं और उत्पीड़न झेलने को मजबूर फिलिस्तीनी नागरिकों के साथ एकजुटता प्रदर्शित कर रहे हैं।
भारत में भी तमाम इंसाफपंसद लोग इस हमले से क्षुब्ध और आक्रोशित हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों ने अपना रोष व्यक्त करते हुए कालेज कैम्पस में इजराइली हमले के विरोध में जुलूस निकाला। लेकिन भाजपा सरकार को इतना रोष भी नागवार गुजरा और तुरंत ही छात्रों के ऊपर मुकदमा कायम कर दिया। योगी सरकार ने तो भारत सरकार की नीति के उलट फिलिस्तीन के पक्ष में प्रदर्शन रोकने की पूरी तैयारी कर ली है। मस्जिदों में प्रदर्शनों की आशंका के मद्देनजर वहां भारी पुलिस-बल तैनात कर दिया गया है।
इजराइल का फिलिस्तीन पर हमला भारत में अपने अलग ही रंग में रंगा है। यूं तो भारतीय शासक वर्ग इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष में लम्बे समय तक फिलिस्तीन के पक्ष में रहा है और इजराइल द्वारा फिलिस्तीनी इलाकों पर कब्जे का विरोध करता रहा है। पहले राष्ट्र मुक्ति की लड़ाई लड़ने से पैदा हुई भावना, अरब देशों से व्यापार और आपसी सहयोग के कारण भारत फिलिस्तीन की राष्ट्र मुक्ति का समर्थन करता रहा है। उस समय सोवियत संघ एक ताकत के रूप में मौजूद था और भारत तमाम तकनीकी, सैन्य समझौतों में उसके साथ था जिस कारण भी भारत इजराइल के कब्जे का विरोध और फिलिस्तीन का समर्थन करता था। लेकिन 1990 के बाद वैश्विक परिस्थितियों में बदलाव आया और अमेरिका का एक छत्र प्रभुत्व बना और भारत भी अमेरिका से अधिक सटता चला गया। अमेरिका से उसकी दोस्ती उसे इजराइल के भी करीब ले गयी और आज स्थिति यहां पहुंच चुकी है कि वह औपचारिक तौर पर तो फिलिस्तीन का समर्थन करता है लेकिन ठोस और निर्णायक मामलों में अमेरिका, इजराइल के साथ खड़ा है।
1992 में इजराइल के साथ पहली बार औपचारिक राजनीतिक संबंध बनाये गये। फिर एक के बाद एक राजनेताओं के इजराइल दौरे शुरू हुए और इजराइली राजनेता भी भारत आने लगे। दोनों देशों के बीच आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी समझौते होने लगे। 2003 आते-आते भारत-इजराइल गठजोड़ काफी मजबूती पा गया। 2003 में इजराइली प्रधानमंत्री भारत आये और भारत-इजराइल के बीच कई सारे समझौते परवान चढ़े। आज स्थिति यहां पहुंच गयी है कि भारत इजराइल के साथ कई बंधनों से बंधा है। रूस के बाद इजराइल भारत को सबसे ज्यादा हथियार बेचता है।
भारत-इजराइल सम्बन्ध मोदी काल में और भी प्रगाढ़ हुए हैं। 2017 में पहली बार ऐसा हुआ कि जब भारत के प्रधानमंत्री केवल इजराइल यात्रा पर गये। पहले यदि कोई राजनेता आदि इजराइल यात्रा पर जाता था तो वह फिलिस्तीन भी जाता था। लेकिन 2017 में प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ इजराइल ही गये फिलिस्तीन नहीं। यह स्पष्ट संकेत था कि भारत अब क्रूर इजराइली शासकों के साथ खड़ा है। हालांकि 2018 में मोदी ने फिलिस्तीन की यात्रा भी की और फिलिस्तीन के प्रधानमंत्री से भी मिले। लेकिन भारत की विदेश नीति अब अमेरिका-इजराइल परस्ती की ओर बढ़ चली थी।
भारत ने अब कहना शुरू कर दिया कि फिलिस्तीन पर उनकी औपचारिक नीति वही है लेकिन वे इजराइल के साथ अपने हितों को भी ध्यान में रखेंगे। उन्होंने कहा कि हमारी विदेश नीति में आदर्शवाद भी है और यर्थाथवाद भी। यानी वे मौखिक तौर पर फिलिस्तीन का समर्थन करेंगे लेकिन गंभीर मामलों में इजराइल के साथ खडे़ होंगे।
यही सब इस हमले में भी दिखाई दिया। विदेश मंत्रालय ने कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया लेकिन मोदी ने खुलकर एकतरफा तौर पर इजराइल के पक्ष में बयान दिया।
भाजपा-आरएसएस का इजराइली प्रेम कोई छिपी हुई चीज नहीं है। यह हमेशा इजराइल की क्रूरता के मुरीद रहे हैं। इजराइल द्वारा मुसलमानों के उत्पीड़न-कत्लेआम से यह अपने लम्पट कार्यकर्ताओं को उत्साहित करते रहे हैं और सपना देखते रहे कि काश हम भी भारत में इजराइल सरीखे होते। इजराइल की तरह ही कश्मीर को कब्जाते, अखंड भारत बना पाते। इजराइल की तरह ही देश के मुसलमानों को हासिये पर धकेल पाते।
मौजूदा इजराइल द्वारा फिलिस्तीन पर हमले में भी यही हो रहा है। मोदी द्वारा इजराइल का समर्थन करने के बाद भाजपा-आरएसएस की सोशल मीडिया आर्मी भी जैसे युद्ध (सोशल वार) के मैदान में कूद गयी। इजराइल के समर्थन में कई हैशटेग चलाये जा रहे हैं। फिलिस्तीन में मारे जा रहे मासूम बच्चों, महिलाओं की बात करने वालों पर भाजपा की ट्रोल आर्मी हमला कर रही है। उन्हें फिलिस्तीन भेजने जैसी ओछी बातें कर रहे है।
मौकों को अपने पक्ष में भुनाने में माहिर मोदी सरकार इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष को मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने में इस्तेमाल कर रही है। कुछ समय बाद 5 राज्यों में चुनाव हैं। चुनाव के मद्देनजर भाजपा इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध के बहाने भारत में वोटों का ध्रुवीकरण करने में लगी हुई है। इजराइल पर भाजपा के खुले समर्थन की नीति ने विपक्ष को थोड़ा मुश्किल में डाल दिया है। प्रमुख विपक्ष कांग्रेस अपनी मध्यमार्गी सोच के कारण ना खुल कर विरोध कर पा रही है ना समर्थन।
भाजपा जैसी शातिर फासीवादी पार्टी ही है जो किसी दूसरे देश में मारे जा रहे लोगों पर अपने देश में वोटों की राजनीति कर सकती है। फिलिस्तीन में मारे जा रहे बच्चों, महिलाओं, नागरिकों और तबाह हो रहे घरों पर भी राजनीति कोई फासीवादी पार्टी ही कर सकती है। यह समाज को एक बर्बर सोच पर खड़ा करने जैसा ही है।
इससे पहले रूस-यूक्रेन युद्ध में भी मोदी सरकार द्वारा इस युद्ध का चुनावी लाभ लेने की भरपूर कोशिश की गयी थी। चूंकि रूस-यूक्रेन युद्ध में मुसलमान नहीं थे अतः वहां के समीकरण भाजपा-आरएसएस के किसी आम ध्रुवीकरण के समीकरण से मेल नहीं खाते थे। इसलिए इस युद्ध में मोदी को एक महानायक के तौर पर मीडिया, सोशल मीडिया आर्मी द्वारा पेश किया गया। ‘मोदी ने एक सप्ताह युद्ध रुकवाया’, ‘शांति में मोदी की अहम भूमिका पूरी दुनिया मान रही है’, आदि आदि बातें प्रचारित कर मोदी की महानायक की छवि गढ़ी गई क्योंकि उस समय उ.प्र. चुनाव का जोर चल रहा था इसलिए सब कुछ इसके मद्देनजर ही किया गया। यूक्रेन से भारतीय छात्रों को भारत वापस लाने की घटना को किसी थ्रिलर फिल्म की तरह प्रसारित किया गया, जिसके नायक-निर्देशक मोदी थे। फिर इन छात्रों को लखनऊ बुलाकर ’धन्यवाद मोदी जी’ इवेन्ट करवाया गया। ये छात्र अपने भविष्य की अनिश्चितता को लेकर कई बार प्रदर्शन करते रहे हैं लेकिन इन मेडिकल छात्रों की आगे पढ़ाई का क्या होगा इसकी सुध लेना कोई आवश्यक कार्य नहीं था।
रूस-यूक्रेन युद्ध से अलग इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध भाजपा के लिए काफी मुफीद है क्योंकि इसमें उसका प्रिय एजेण्डा मुसलमान कार्ड है और भाजपा इस मौके का पूरा चुनावी लाभ लेने के प्रयास में है।
इजराइल का फिलिस्तीन पर हमला और भाजपा
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।