‘‘आम चुनाव, बढ़ता फासीवादी हमला और मीडिया’’ विषय पर सेमिनार का सफल आयोजन

बरनाला, पंजाब/ नागरिक अख़बार द्वारा 8 अक्टूबर के दिन पंजाब के बरनाला में कामरेड नगेंद्र स्मृति सेमिनार का आयोजन किया गया। तर्कशील भवन में आयोजित इस सेमिनार का विषय ‘‘आम चुनाव, बढ़ता फासीवादी हमला और मीडिया’’ था। सेमिनार में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से आये विभिन्न क्रांतिकारी-प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों, लेखकों एवं मजदूर, महिला, नागरिक एवं सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की। सेमिनार में देश भर में पत्रकारों पर बढ़ रहे हमलों, एडिटर्स गिल्ड के पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज किये जाने, हाल ही में न्यूज क्लिक के प्रधान संपादक और एच आर हेड की यू ए पी ए के तहत गिरफ्तारी व अनेकों पत्रकारों के घरों पर छापे मारने और उनके मोबाइल व लैपटाप जब्त किये जाने की कार्यवाही के विरोध में एक प्रस्ताव भी पारित किया गया।
    
सेमिनार की शुरुआत पंजाबी और हिंदी के जोशीले क्रांतिकारी गीतों के साथ हुई; तदुपरान्त सेमिनार का संचालन कर रहे नरभिन्दर ने कामरेड नगेंद्र के क्रांतिकारी जीवन पर प्रकाश डालते हुये बताया कि उन्होंने करीब 47 साल के अपने छोटे से जीवन में 27-28 साल का लम्बा क्रांतिकारी जीवन जिया और अपनी अंतिम सांस तक क्रांति के उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहे। 
    
इसके बाद नागरिक द्वारा जारी सेमिनार पत्र पर संपादक रोहित ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि पिछले एक दशक में देश में हिंदू फासीवादी ताकतों के उभार के परिणामस्वरूप आज फासीवाद का खतरा कहीं अधिक प्रत्यक्ष और आसन्न है, जिसमें मुख्यधारा के मीडिया अर्थात बड़े टेलीविजन न्यूज चैनलों एवं अखबारों व पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मुख्यधारा का यह मीडिया असल में पूंजीवादी अथवा कारपोरेट मीडिया है, जो कि इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा संचालित है।
    
2014 व 2021 के लोकसभा चुनाव की भांति 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनावों में भी कारपोरेट मीडिया इनका बढ़-चढ़कर साथ दे रहा है। उन्होंने कहा कि आज एक ऐसे वैकल्पिक मीडिया की जरूरत है जो कि इजारेदार पूंजीपतियों और हिंदू फासीवादियों के गठजोड़ पर सीधी चोट करे और फासीवादियों के हर पाखंड का भंडाफोड़ करे, जो कि मजदूर-मेहनतकश जनता और छात्रों-नौजवानों व महिलाओं के आंदोलनों को स्वर दे। दलितों-आदिवासियों के उत्पीड़न और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमलों की हर घटना का विरोध करे, जो कि पूंजीवाद के विरुद्ध जारी क्रांतिकारी आंदोलन और समाजवाद के लक्ष्य को सम्बोधित हो।
    
लाल परचम पत्रिका के मुख्तियार सिंह ने सेमिनार में अपनी बात रखते हुये फ़ासीवाद की समझ पर मौजूद भिन्नताओं पर विस्तार से बात की। इसके अलावा इंडिया गठबंधन पर अपनी बात रखते हुये उन्होंने कहा कि इस गठबंधन का उद्देश्य मोदी और भाजपा को सत्ता से हटाकर खुद सत्ता पर काबिज होना भर है। असल में सत्ता में आने पर ये गठबंधन भी जनता पर जुल्म ही ढायेगा। फासीवाद को हराने का मतलब केवल मोदी या भाजपा को सत्ता से बेदखल करना मात्र नहीं है। हमें इनकी फिरकापरस्त और मनुवादी विचारधारा का समाज में जो असर है उसे खत्म करना होगा और इसके लिये आंदोलन को आगे बढ़ाना होगा।
    
मुक्ति संग्राम पत्रिका के संपादक लखविंदर ने कहा कि हमें फासीवाद के खतरे को कम करके नहीं आंकना चाहिए लेकिन हमें इसे बढ़ा-चढ़ाकर भी नहीं देखना चाहिये। केंद्र की सत्ता पर फासीवादियों के काबिज होने से हालात निश्चित रूप से बदले हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि सत्ता पर काबिज होने के बावजूद ये फासीवादी निजाम कायम नहीं कर सके हैं। आर एस एस-भाजपा हिंदू राष्ट्र कायम करना चाहते हैं लेकिन हिंदू कोई कौम नहीं है; खुद हिंदू धर्म अलग-अलग कौमों- बंगाली, पंजाबी, तमिल... में बंटा हुआ है। उन्होंने सवाल खड़ा किया कि ऐसे में हिंदू राष्ट्र कैसे कायम होगा?
    
सामाजिक कार्यकर्ता जगजीत सिंह चीमा ने सेमिनार में कहा कि आर्थिक संकट का मतलब यह नहीं है कि फासीवाद आयेगा ही, कि राजनीतिक संकट होना भी जरूरी है। उन्होंने कहा कि आज यदि  मुख्यधारा का मीडिया आर एस एस-भाजपा के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है तो इसके पीछे इजारेदार पूंजीपतियों और फासीवादी ताकतों का गठजोड़ काम कर रहा है; ऐसे में फासीवाद का मुकाबला सिर्फ वैकल्पिक मीडिया की बदौलत नहीं किया जा सकता बल्कि उसके पीछे मजबूत क्रांतिकारी संगठन भी होना चाहिये।
    
शहीद भगतसिंह के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह ने भी सेमिनार में भागीदारी की और कहा कि आज फासीवाद का सबसे बड़ा खतरा शिक्षा के क्षेत्र में है। आज शिक्षा को इस तरह ढाला जा रहा है कि आलोचनात्मक मस्तिष्क तैयार होने के बजाय पूंजीपतियों की जरूरतों के मुताबिक औजार मात्र तैयार हों। 1991 से देश में जो नीतियां लागू हैं उनके परिणामस्वरूप स्थायी रोजगार सिमटता जा रहा है और उसका स्थान अनियमित रोजगार ले रहा है, जहां काम के घंटे बहुत ज्यादा हैं। उन्होंने कहा कि मोदी को सत्ता से हटाकर किसी दूसरे को लाने मात्र से ये हालात नहीं बदलेंगे।
    
किसान पत्रिका के संपादक प्रवीण ने सेमिनार को सम्बोधित करते हुये कहा कि जनता इन फासीवादी ताकतों का मुकाबला भी कर रही है। ये मुजफ्फरनगर में दंगे कराकर सत्ता में आये लेकिन किसान आंदोलन के दौरान इनके सांसदों और विधायकों को जनता ने वहां गांवों में घुसने नहीं दिया। आजमगढ़ और डोईवाला में जन संघर्षों के कारण सरकार जमीन अधिग्रहण नहीं कर सकी है। हरियाणा में सूरजमुखी की कीमत तय करने के मामले में सरकार को पीछे हटना पड़ा है। हिंदू-हिंदी-हिंदुस्तान के नारे से इन्हें तमिलनाडु में पीछे हटना पड़ा है। मजदूर विरोधी चार लेबर कोड्स पारित कर देने के बावजूद ये उन्हें लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।
    
जन संघर्ष मंच, हरियाणा के सोमनाथ ने आजादी के आंदोलन के दौरान कांग्रेस और गांधी की धारा, क्रांतिकारियों की धारा और आर एस एस, हिंदू महासभा जैसी ताकतों की धारा के बीच के फर्क को विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया। इसके अलावा उन्होंने पूंजीवादी संसदीय व्यवस्था और फासीवाद में फर्क को स्पष्ट करते हुये कहा कि पूंजीवादी संसदीय व्यवस्था भी पूंजीपति वर्ग की तानाशाही होती है, लेकिन यह लोकतंत्र के आवरण में छिपी तानाशाही होती है जबकि फ़ासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे अंधराष्ट्रवादी और सबसे साम्राज्यवादी तत्वों की खुली-आतंकी तानाशाही होती है।
    
क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के महासचिव भूपाल ने सेमिनार को सम्बोधित करते हुये कहा कि मौजूदा दौर का आर्थिक संकट कोई सामान्य संकट नहीं है और यह पूरी दुनिया में राजनीतिक और सामाजिक संकटों को बढ़ा रहा है। आज पूरी दुनिया में फासीवादी ताकतों का उभार हो रहा है, जो कि हमारे देश में हिंदू फासीवादी ताकतों की बढ़त के रूप में सामने है। यह वैश्विक परिघटना है। उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से चुनावी हार-जीत से हिंदू फासीवाद को परास्त नहीं किया जा सकता लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि फासीवादी निजाम कायम होगा ही होगा। हमें चीजों को नियतिवाद या आर्थिक नियतिवाद के रूप में नहीं देखना चाहिये। उन्होंने कहा कि फासीवाद को पीछे धकेलने और परास्त करने के लिये आवश्यक है कि क्रांतिकारी ताकतें एकजुट हों, मोर्चा बनायें और मजदूर वर्ग की पहल तथा अगुवाई में इसे विस्तारित करें।
    
इसके अलावा प्रगतिशील महिला एकता केंद्र की हेमलता, तर्कशील सोसाइटी, पंजाब के  राजिंदर सिंह, जमहूरी अधिकार सभा, हरियाणा के डा. सुखदेव सिंह, वेलफेयर पार्टी आफ इंडिया के सरफराज इत्यादि के प्रतिनिधियों ने भी सेमिनार को सम्बोधित किया। -विशेष संवाददाता
 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।