श्रीलंका एक बार फिर कर्ज संकट के मुहाने पर

श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधिमंडल की दो सप्ताह की यात्रा के बाद प्रतिनिधिमंडल के अध्यक्ष पीटर ब्रेयूर ने कहा कि श्रीलंका को कर्ज के रूप में दी जाने वाली कुल 3 अरब डालर कर्ज की दूसरी किश्त अभी नहीं दी जाएगी। यह किश्त लगभग 33.3 करोड़ डालर की होनी थी। पीटर ब्रेयूर के इस बयान के बाद श्रीलंका एक बार फिर से कर्ज़ संकट के मुहाने पर पहुँच गया है। हालांकि श्रीलंका ने चीन के एक्सिस बैंक से कर्ज पुनर्गठन समझौता होने की बात कही है। श्रीलंका पर 2022 के अंत में कुल देशी-विदेशी कर्ज 42 अरब डालर था।  
    
ज्ञात हो कि अप्रैल 2022 में श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भण्डार कम होने पर वह न तो विदेशी कर्ज़ चुकाने की स्थिति में रहा और न ही विदेशों से आवश्यक सामान की आपूर्ति लायक उसके पास पैसा था। इसके बाद लम्बे समय तक श्रीलंका में अराजकता की स्थिति रही और इस साल मार्च में काफी मशक्कत के बाद अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 3 अरब डालर कर्ज मंजूर किया था जिसकी पहली किश्त 33 करोड़ डालर के आस-पास दी। लेकिन इसके बदले में अपनी शर्तें भी थोपीं। इन्हीं शर्तों के पूरा न हो पाने की स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधिमंडल के अध्यक्ष पीटर ब्रेयूर ने पहले रिव्यू के बाद कर्ज की दूसरी किस्त देने से मना किया है। पेरिस क्लब की बैठक में भी ऐसा ही कहा गया है।
    
इन शर्तों में ऐसा क्या था जो श्रीलंका पूरी नहीं कर पाया। दरअसल इस बीच श्रीलंका का खर्चा कुल बजट का 19 प्रतिशत था और राजस्व मात्र 9 प्रतिशत रहा। प्रतिनिधिमंडल के अनुसार ख़र्च और राजस्व में यह अंतर बहुत ज्यादा था और इसे कम होना चाहिए था। राजस्व कम से कम 12 प्रतिशत होना चाहिए था। और राजस्व कैसे बढ़ेगा? इसके लिए आई एम एफ चाहता था कि जनता की आवश्यक उपयोग की सेवाओं जैसे बिजली और पानी पर भी टैक्स लगाया जाना चाहिए। इसके अलावा सरकार को जनता को दी जाने वाली सब्सिडी में कमी करनी चाहिए और सरकारी संस्थानों का निजीकरण करना चाहिए। लोगों को दी जाने वाली तनख्वाह में कमी की जाए और टैक्स बढ़ाया जाये।
    
ऐसा नहीं है कि विक्रमसिंघे की सरकार ने ऐसा नहीं किया है। उसने ऐसा किया है लेकिन जनता के प्रतिरोध के परिणामस्वरूप वह अपनी करनी में उतना सफल नहीं हो पाया है जितना अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष चाहता है। विक्रमसिंघे के द्वारा लागू कटौती कार्यक्रमों के जरिए ही आज श्रीलंका की एक चौथाई आबादी निर्धनता की स्थिति में पहुंच चुकी है और इस साल इसके 28 प्रतिशत तक पहुंच जाने की संभावना है।
    
इस निर्धन होती जनता के आक्रोश का सामना करने के लिए विक्रमसिंघे ने एक तरफ आनलाइन सेफ्टी एंड एंटी टेरर बिल बनाकर उसका दमन करने की तैयारी की है तो दूसरी तरफ कई क्षेत्रों में हड़ताल रोकने के लिए उन्हें आवश्यक वस्तुओं में शामिल कर लिया है ताकि इन क्षेत्रों में हड़ताल होने पर कर्मचारियों का दमन कर हड़ताल करने से रोका जा सके। इन क्षेत्रों में स्वास्थ्य, पेट्रोलियम, बिजली, बंदरगाह, सामानों का परिवहन, सड़क-रेल-हवाई यातायात आदि शामिल हैं।
    
आई एम एफ के प्रतिनिधिमंडल द्वारा यात्रा के बाद कर्ज देने से मना करने के बाद विक्रमसिंघे ने 3 अक्टूबर को बर्लिन ग्लोबल डायलाग की बैठक में कहा कि वे एक तनी हुई रस्सी पर चल रहे हैं। अब वे उस स्थिति पर पहुंच चुके हैं कि जनता पर और बोझ नहीं डाला जा सकता है। दरअसल विक्रमसिंघे को चिंता जनता की नहीं है उन्हें चिंता अपनी कुर्सी की है कि कहीं ऐसा न हो कि जनता फिर एक बार राष्ट्रपति भवन में घुस जाये। इस तरह वे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आगे अपनी विवशता प्रकट कर रहे थे।
    
राज्य संस्थाओं के पुनर्गठन के निदेशक सुरेश शाह का कहना है कि कम से कम 80 संस्थान ऐसे हैं जिन्हें सरकारी नहीं होना चाहिए और 15 निष्क्रिय संस्थानों को वे बंद करने की बात कह रहे हैं। स्टेट इंजीनियरिंग कारपोरेशन को बंद कर वे पहले ही 1400 लोगों को बेरोजगार कर चुके हैं। इसी तरह कोआपरेशन होलसेल इस्टेबलिस्मेंट से वे 300 लोगों को काम से निकाल चुके हैं।
    
जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधि श्रीलंका में थे तो विपक्षी पार्टियों के तमाम नेता उनसे मिले। और उसके बाद जनता के सामने ऐसे प्रदर्शित किया कि उनकी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधियों से बात हो चुकी है और भविष्य में अगर वे सत्ता में आते हैं तो सब कुछ सही कर देंगे। जबकि ये वही पार्टियां हैं जो श्रीलंका को इस हालत में पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं।
    
ट्रेड यूनियन नेता भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रतिनिधियों से मिले। 47 पेशों से जुड़े कर्मचारियों और मज़दूरों की यूनियन के नेताओं ने उनसे अपील की कि कर्मचारियों के हितों को ध्यान में रखा जाए। ये वही नेता हैं जो मज़दूरों और कर्मचारियों के संघर्षों पर लगाम कस रहे हैं, उनकी हड़तालों को अकेलेपन का शिकार होने दे रहे हैं और संगठित मजदूर वर्ग का विरोध कर रहे हैं। और दूसरी तरफ लुटेरे साम्राज्यवादियों से दया की भीख मांग रहे हैं।
    
नवंबर मध्य में श्रीलंका का नये साल का बजट पेश होना है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के माध्यम से अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवादी पूरी कोशिश करेंगे कि श्रीलंका पर उनका शिकंजा मज़बूत हो ताकि श्रीलंका की मेहनतकश आवाम को और लूटा जा सके। श्रीलंका की मेहनतकश जनता देशी-विदेशी पूंजी के हमले का कैसे जवाब देती है यह भविष्य के गर्त में है।
 

आलेख

/ceasefire-kaisa-kisake-beech-aur-kab-tak

भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

/terrosim-ki-raajniti-aur-rajniti-ka-terror

आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

/modi-government-fake-war-aur-ceasefire

युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

/fasism-ke-against-yuddha-ke-vijay-ke-80-years-aur-fasism-ubhaar

हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

/jamiya-jnu-se-harward-tak

अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।