इजरायल-हमास जंग की चर्चा में 7 अक्टूबर को अफगानिस्तान में आये भयावह भूकम्प की चर्चा गायब सी कर दी गयी है। 6.3 तीव्रता का यह भूकम्प अफगानिस्तान में पिछले कुछ दशकों में आया सबसे भीषण भूकम्प है। अनुमानतः ढाई हजार मौतें, करीब दस हजार घायल, हजारों क्षतिग्रस्त घरों के आंकड़े आ चुके हैं और वक्त के साथ इन आंकड़ों के बढ़ने की संभावना है।
हेरात प्रांत भूकम्प का सर्वाधिक शिकार हुआ है। राहत और बचाव कार्य दशकों के युद्ध के चलते जर्जर हालत में हैं। स्वास्थ्य सेवायें काफी कम हैं। अंतर्राष्ट्रीय मदद देने वाला तालिबानी शासन के चलते कोई नहीं है। भूकम्प से ज्यादा लोगों के इलाज व बुनियादी सुविधाओं के अभाव में मरने का अनुमान है।
अफगानिस्तान में भूकम्प आना लगातार लगा रहता है। यह देश ही भूकम्पों के मामले में अग्रणी रहा है। पर चूंकि देश बीते 4 दशक से पश्चिमी साम्राज्यवादियों व कट्टरपंथी ताकतों की जंग का शिकार रहा है। इसलिए यहां सारा ‘विकास’ ठहर ही नहीं चौपट हो गया है। इन चौपट हालातों के चलते भूकम्परोधी इमारतों की बात यहां सोची भी नहीं जा सकती। पर इतना तय है कि अगर भूकम्परोधी इंतजामात होते तो नुकसान काफी कम किया जा सकता था।
अफगानिस्तान की इस दुर्दशा से अमेरिकी साम्राज्यवादी मुंह नहीं मोड़ सकते। बीते 4 दशकों में यहां की धरती रौंदने में उन्हीं की सर्वप्रमुख भूमिका रही है। उन्हीं के बम यहां सबसे ज्यादा बरसे हैं। पर तबाही के सौदागर को भला भूकम्प की तबाही से क्या लेना-देना। वो तो जगह-जगह अपनी मिसाइलें-युद्धपोत आजमा मानो भूकम्प व अन्य आपदा की विनाशकारी शक्ति से मुकाबला कर रहा है। अब वो फिलिस्तीन को नेस्तनाबूद करने में अपने हथियारों समेत इजरायल की मदद को जा पहुंचा है।
जाहिर है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी अफगानिस्तान के मौजूदा हालातों के, भूकम्प से मारे गये लोगों के, इलाज के अभाव में मर रहे लोगों के सबसे बड़े जिम्मेदार है। लुटेरी साम्राज्यवादी व्यवस्था आज दुनिया को कभी अफगानिस्तान तो कभी फिलिस्तीन-इराक-लीबिया सरीखी तबाही-बर्बादी ही दे सकती है।
अफगानिस्तान में भूकम्प : ढाई हजार मौतें
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को