जातीय जनगणना

भारतीय राजनीति खासकर चुनावी राजनीति में जाति हमेशा से महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व रही है। जैसे भारतीय समाज में जाति किसी भी व्यक्ति के सामाजिक जीवन को निर्धारित करती रही है ठीक उसी तरह से जाति प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से भारतीय राजनीति को निर्धारित व संचालित करती रही है। 
    
बिहार सरकार ने जातीय जनगणना करवाकर और फिर इसकी रिपोर्ट को प्रकाशित कर पूरे देश की राजनीति खासकर चुनावी राजनीति के तापमान को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। जातीय जनगणना जहां इण्डिया गठबंधन को ऐसा मुद्दा लगने लगा जो उनकी नैया को आगामी आम चुनाव में पार लगा सकता है तो भाजपा को लगने लगा कि कहीं यह उसका सारा बना-बनाया खेल न बिगाड़ दे। उसका धार्मिक ध्रुवीकरण कर चुनाव जीतने, जीतते जाने का अचूक राजनैतिक समीकरण जातीय जनगणना के कारण गड़बड़ा न जाये। 
    
भाजपा की स्थिति सांप-छछूंदर की सी है। मोदी बता रहे हैं कि जातीय जनगणना के जरिये विपक्षी पार्टियों ने ‘पाप’ कर दिया है तो बिहार भाजपा के नेता कभी जातीय जनगणना का ‘श्रेय’ तो कभी उसकी ‘नुक्ताचीनी’ तो कभी उसकी निंदा करते हैं। साफ है कि बिहार में जातीय जनगणना की रिपोर्ट ने भाजपा-संघ को असहज कर दिया है। 
    
राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जातीय जनगणना के मुद्दे को जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया। बसपा के संस्थापक कांशीराम का नारा ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी उतनी उसकी भागीदारी’ अब राहुल गांधी एण्ड कम्पनी का नारा बन गया। जाति आधारित पार्टियों के लिए तो जातीय जनगणना एक तरह से संजीवनी साबित हो गई। लालू, नीतिश, अखिलेश जैसे जाति आधारित नेताओं का समाजवाद तब ही फल-फूल सकता है जब भारतीय चुनावी राजनीति में जाति केन्द्रीय धुरी की भूमिका निभाती रहे। जातीय जनगणना उनकी राजनीति के मुताबिक है।     
    
इस तरह से देखा जाए तो भारतीय राजनीति में ‘मण्डल बनाम कमण्डल’ की बहस की एक नये दौर में पुनर्वापसी हुई। कमण्डल ‘मण्डल’ के नये संस्करण से एक बार फिर हक्का-बक्का है। पर हर कोई जानता है कि कमण्डल राजनीति में एक बार फिर ऐसा कुछ कर सकता है कि अपनी धूर्त चालों से मण्डल को पीछे धकेल दे। मोदी-शाह-भागवत जैसे हिन्दू फासीवादी नेता कितने दिन तक विपक्षियों को जश्न मनाने का मौका देंगे यह आने वाला समय बतायेगा। 
    
जातीय जनगणना की मांग लम्बे समय से रही है। आजाद भारत में जातीय जनगणना का ‘जोखिम’ उठाने का ‘साहस’ नेहरू-इंदिरा-राजीव भी नहीं उठा सके। पहले-पहल जहां इसे ‘भानुमती का पिटारा’ समझा जाता था तो बाद-बाद के समय में इसे ‘राजनीतिक प्रतिक्रियावाद’ की तरह भी देखा जाने लगा। कुछ-कुछ मामला ऐसा था कि भारत के दो प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा खुले-छिपे तौर पर इस मामले में एक साथ थे और ‘लोहियावादी-समाजवादी’ पृष्ठभूमि वाले दल तथा ‘अम्बेडकरवादी’ दल कुछ-कुछ साथ-साथ व कुछ-कुछ अलग-अलग थे। मण्डल कमीशन की रिपोर्ट तभी लागू हुयी जब कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर थी और भाजपा सत्ता में काबिज नहीं थी। कांग्रेस या भाजपा सत्ता में होते तो इसकी संभावना अत्यन्त न्यून ही थी कि कभी मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू हो पाती। जो बात मण्डल कमीशन की रिपोर्ट पर लागू होती है वही किंचित बदले रूप में जातीय जनगणना के ऊपर भी लागू हो जाती है।
    
जातीय जनगणना की शुरूवात अंग्रेजों के जमाने में जनगणना के साथ ही शुरू हो गयी थी। जातीय जनगणना ने भारत के समाज में जिस उथल-पुथल को जन्म दिया था उसको थामने के एक प्रयास के रूप में अंग्रेजों ने 1931 के बाद जातीय जनगणना को बंद कर दिया। आजादी के बाद बनी सरकारें एक तरफ तो ब्रिटिश विरासत को ढोती रही थीं तो दूसरी तरफ वह हमेशा से ब्रिटिश शासकों की ‘बुद्धिमानी’ की कायल रही हैं तो उन्होंने फिर कभी जातीय जनगणना करवाने का साहस नहीं किया। 
    
अंग्रेजों के जमाने में जातीय जनगणना के साथ समाज के विभिन्न जातियों-उप जातियों के ‘समाज’ (दूसरे अर्थों में संगठन) अस्तित्व में आने लगे थे। ये ‘समाज’ क्षेत्रीय स्तर से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर एकजुट होने लगे थे। और उस जमाने में जो प्रमुख मांग होती थी तो वह यह कि कई-कई उत्पीड़ित जातियां अपने को ऊपर के वर्ण में शामिल करने पर जोर देती थीं। वे अपने ‘द्विज’ होने का प्रमाण ब्रिटिश शासकों से दिलवाने के लिए कई-कई उपाय निकालती थीं। ‘कौन-कौन जाति किस वर्ण की है’ यह ब्रिटिश शासकों को ऐसा झमेला लगा कि आखिर में उन्होंने जातीय जनगणना को चुपचाप बंद कर दिया। 
    
‘संस्कृतिकरण’ अथवा ‘हिन्दू-ब्राह्मणीकरण’ की जो प्रक्रिया मूलतः ब्रिटिश काल में शुरू हुयी थी वह प्रक्रिया उसके बाद भी जारी रही। परन्तु सरकारी नौकरी व शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था या जातीय व्यवस्था के एक तरह के ‘स्थिरीकरण’ में योगदान भी दिया था। अब ब्रिटिश काल के मुकाबले यह प्रक्रिया ज्यादा जोर पकड़ने लगी कि जो जातियां पहले अपने को ‘ऊंची’ जातियों (क्षत्रिय या ब्राह्मण) होने के लिए जोर लगाती थीं अब कई-कई ऊंची जातियां अपने को ‘पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) या फिर कई जातियां अपने को अनुसूचित जाति (एस सी) या अनुसूचित जनजाति (एस टी) में शामिल करवाने के लिए आकाश-पाताल एक करने लगीं। ‘आरक्षण’ से मिलने वाले लाभ को हासिल करने के लिए ही मणिपुर के मैतेई अपने आपको एस टी वर्ग में शामिल करवाना चाहते थे। इस मांग ने मणिपुर के वर्तमान संकट में एक उत्प्रेरक का काम किया है। ऐसी ही ध्वनि ‘मराठा’, ‘जाट’, ‘गुर्जर’ आदि के लिए आरक्षण को केन्द्र में रखकर चले आंदोलनों में दिखायी देती है। जमाना बदल गया तो हवा भी बदल गयी। 
    
हवा कितनी बदल गयी है इसका एक अंदाजा राहुल गांधी की वर्तमान नारेबाजी से तो मोहन भागवत की आरक्षण के समर्थन वाली बातों से भी लगाया जा सकता है। 
    
जातीय जनगणना को ‘राजनीतिक प्रतिक्रियावाद’ घोषित करने वाले जो लोग हैं वे मूलतः ‘बाजार अर्थव्यवस्था’ ‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’ की नीतियों के पक्षधर हैं। इससे उन्हें लगता है कि वर्तमान आर्थिक नीतियों की दिशा बदल जायेगी और जो बात उन्हें सबसे खतरनाक और घोर प्रतिक्रियावादी लगती है वह यह कि जातीय जनगणना के समर्थक राजनेता निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागू करने की बात कर रहे हैं। 
    
जातीय जनगणना से निश्चित ही भारतीय समाज का यथार्थ प्रतिबिम्बन होगा या बिहार में यह हो रहा है। भारत के राजनीतिक दल जो रात-दिन चुनावी जीत-हार के समीकरणों में उलझे रहते हैं उनकी फिक्रमंदी दमित-उत्पीड़ित जातियों के उत्थान, ‘सामाजिक न्याय’ आदि को लेकर नाम मात्र की भी नहीं है। यह बात जातीय जनगणना की समर्थक सभी पार्टियों पर लागू होती है। जहां तक भाजपा-संघ जैसे हिन्दू फासीवादियों का सवाल है वे घोर जातिवादी-वर्णवादी और पाखण्डी-प्रपंची ब्राह्मणवादी मध्ययुगीन मूल्यों-संस्कृति के पोषक व प्रस्तोता हैं उन्हें जातीय जनगणना अपने फासीवादी मंसूबों में अवरोधक की तरह लगती है। विपक्षी पार्टियां इनकी आंखों में कांटे की तरह चुभती हैं। इनकी कोशिश शीघ्र अति शीघ्र भारत को हिन्दू फासीवादी राष्ट्र में तब्दील करने की है। लोकतंत्र को खत्म कर फासीवादी राज्य कायम करने की है। 
    
इस मोड़ पर भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के सामने एक साथ दो कार्यभार हैं। पहला कि वर्ण-जाति व्यवस्था के कारण मजदूरों-मेहनतकशों के जीवन में पैदा होने वाले हर कष्ट-पीड़ा, अपमान-उत्पीड़न का डटकर मुकाबला करे और दूसरा एक ऐसे समाज का क्रांति कर निर्माण करें जहां जाति व्यवस्था का सम्पूर्ण उन्मूलन हो जाये। शोषण-उत्पीड़न का नामोनिशान मिट जाये। ‘सामाजिक न्याय’ हवा हवाई नहीं बल्कि वास्तविक बन जाये। 

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