‘‘काशी का अविनाशी’’ और मुजरा

जैसे-जैसे राजनीति अपने पतन की ओर बढ़ती है वैसे-वैसे उसकी भाषा ज्यादा सड़कछाप, ज्यादा गाली-गलौच वाली हो जाती है। प्रपंच उसका गहना होता है और उत्तेजना फैलाना मुख्य कारोबार बन जाता है। 
    
जेल से छूटे केजरीवाल ने मोदी की एक्सपायरी जैसे ही बतायी वैसे ही मोदी काशी के अविनाशी हो गये। कहने लगे ‘‘मैं काशी का अविनाशी, मेरी एक्सपायरी नहीं है’’। असल में मोदी ने 75 साल की उम्र को एक्सपायरी घोषित कर कईयों को खासकर अपने गुरू आडवाणी को राजनीति से रिटायर होने को मजबूर किया था। केजरीवाल ने मियां के सिर मियां की जूती रखी तो मामला यह निकल कर आया कि जब तक मोदी जी जिंदा हैं तब तक वे सत्ता को किसी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे। और सत्ता हासिल करने के लिए वे अपने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के हथियार का बार-बार इस्तेमाल करेंगे। 
    
मुस्लिमों के खिलाफ पूरी भाजपा घृणित से घृणित ढंग से बात करती है। और मोदी गंदी से गंदी भाषा में अपनी भाषण कला का प्रदर्शन करते हैं। इनका बस चले तो भारत के मुस्लिमों से मत देने का अधिकार ही छीन लें। भाजपा के नेताओं और इनको पालने वाले मीडिया को मुस्लिमों का कतारबद्ध होकर मत देना खलता है। मुस्लिम महिलाओं के रहनुमा (तीन तलाक वाले मामले में) बनने वालों को उनका बुरका आक्रोश व घृणा से भर देता है। भारत के मुस्लिम हर भारतीय की तरह स्वतंत्र हैं कि वे किसे वोट दें। लेकिन मोदी एण्ड कम्पनी को लगता है कि उनका वोट विपक्षी गठबंधन को जायेगा। ऐसी सूरत देख मोदी जी की भाषा घोर साम्प्रदायिक व स्त्री विरोधी हो गयी। अपनी चुनावी सभा में काशी का अविनाशी कहने लगे कि विपक्षी गठबंधन अपने मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए उनके सामने ‘‘मुजरा’’ कर रहा है।
    
क्या मतलब निकलता है इस बात का। मुस्लिम स्त्री-पुरुष मुजरा पसंद करने वाले और विपक्षी नेता मुजरा करने वाले हैं। मुजरा के पीछे आम धारणा यह है कि यह वेश्याओं द्वारा किया जाने वाला कामुक नृत्य व गायन है। मोदी विपक्षी नेताओं को वेश्या और मुस्लिम मतदाताओं को वेश्याओं के नाच-गाने का शौकीन घोषित कर रहे हैं। 
    
मुजरा भारत के सामंती काल में राजा-महाराजाओं के दरबार में भारतीय संगीत व नृत्य शैली कत्थक में प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय शास्त्रीय संगीत व नृत्य मूलतः सामंती काल में राजाओं द्वारा पोषित घरानों में ही पैदा हुआ है। आज इसका सामंती आवरण तो खत्म हो गया है और अपने बदनाम धब्बों से उभर कर एक सम्मानित कला का रूप धारण कर चुका है। कत्थक को शास्त्रीय नृत्यों में शामिल कर भारत सरकार के कार्यक्रमों से लेकर फिल्मों में मुजरा लोकप्रियता हासिल कर चुका है। हिन्दी फिल्मों में मुजरा करने वाली अभिनेत्रियों को कोई मोदी वाली निगाह से नहीं देखता है। 

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।