‘‘मेरे साथ के लोग मुझे पहचानते हैं’’

    यह कविता मैंने लगभग चार वर्ष पूर्व लिखी थी। अक्सर हम जैसे लोग जो समाज में बुनियादी तब्दीली करना चाहते हैं, वे अपने नेताओं को, शिक्षकों को, सिद्धान्तकारों को या रणनीतिकारों, मार्गदर्शकों को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं की तरह एक नये समाज के निर्माण में योगदान करना चाहते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि जो लोग (संगठन के साथी) उपरोक्त सभी आदर्शों को हम तक पहुंचाते हैं उनकी मेहनत को हम कहीं न कहीं दरकिनार कर देते हैं। 
    

उन तमाम कामरेडों को समर्पित मेरे द्वारा रचित एक कविता जो जी जान से नये समाज निर्माण में अपनी भूमिका तय किये हुए हैं-

मेरे साथ के लोग मुझे जानते हैं, मेरे साथ के लोग मुझे पहचानते हैं
मेरे साथ के लोग मुझे जानते हैं, मेरे साथ के लोग मेरे अस्तित्व को पहचानते हैं
मेरे साथ के लोग मुझे टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं बल्कि पूरा का पूरा जानते हैं
मेरे साथ के लोग मेरी देखभाल करते हैं, मेरा ख्याल रखते हैं, मेरी परवरिश करते हैं 
एक छोटे पौधे की भांति
मेरे साथ के लोग मेरा ख्याल केवल इसलिए नहीं रखते हैं कि वो पौधा घर के आस-पास की क्यारियों में या घरों के ऊपर रखे हुए रंग-बिरंगे गमले की शोभा बढ़ाये
मेरे साथ के लोग मेरा ख्याल केवल और केवल इसलिए रखते हैं कि जब वो बड़ा हो 
एक विशाल वृक्ष की तरह, जो हर किसी को उसके हिस्से की छांव दे सके।
मेरे साथ के लोग मुझे जानते हैं, मेरे साथ के लोग मेरे अस्तित्व को पहचानते हैं 
    -पंकज कुमार, किच्छा
 

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