इस चुहिया का नाम मोहम्मद यूनुस है। यह सज्जन बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार के मुखिया बने हैं। वे नई अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि मुख्य सलाहकार हैं। नई सरकार के बाकी मंत्री भी सलाहकार के नाम से जाने जाएंगे।
प्रधानमंत्री या मंत्री के बदले मुख्य सलाहकार या सलाहकार का नुस्खा एक खालिस गैर सरकारी संगठन वाला नुस्खा है। गैर सरकारी संगठन स्वयं अपने नाम के अनुरूप नाम बदलकर चीजों के चरित्र बदलने में विश्वास करते हैं। 1880 के दशक तक गैर सरकारी संगठनों को स्वैच्छिक संगठन कहा जाता था फिर इन्हें गैर सरकारी संगठन कहा जाने लगा। आजकल इन्हें सिविल सोसाइटी संगठन भी कहते हैं।
अब बांग्लादेश के एक सबसे प्रमुख और दुनिया भर में जाने पहचाने गैर सरकारी संगठन के मुखिया ने मुख्य सलाहकार के तौर पर बांग्लादेश की सरकार की कमान संभाल ली है। इस व्यक्ति ने कमान संभालने से पहले ही कहा था कि उसे चीजों को ठीक करने के लिए कम से कम 6 साल चाहिए। इस व्यक्ति की उम्र अभी 84 साल है। यानी यह व्यक्ति 90 साल की उम्र तक बांग्लादेश की गर्दन पर सवार होना चाहता है।
मोहम्मद यूनुस का बांग्लादेश की सरकार का मुखिया होने का मतलब है प्रकारांतर से साम्राज्यवादी संस्थाओं और स्वयं साम्राज्यवादियों का सरकार पर नियंत्रण। यदि शेख हसीना भारत सरकार की पहरेदारी में थी तो मोहम्मद यूनुस विश्व बैंक और साम्राज्यवादी सरकारों की निगरानी में होंगे। यह अलग बात है उनके ठीक पीछे बांग्लादेशी सेना खड़ी होकर उन्हें कोंच रही होगी।
मोहम्मद यूनुस एक नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। और उन्हें यह पुरस्कार उनके गैर सरकारी संगठन वाले काम के लिए मिला था। यह काम क्या था? यह था सूक्ष्म वित्त या माइक्रोफाइनेंस का काम।
उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के पिछले चार दशकों में मजदूर-मेहनतकश जनता की तबाही के साथ सूक्ष्म वित्त का कारोबार भी खूब फला-फूला है। इसके जरिए वित्तीय संस्थाओं ने अत्यंत बदहाल लोगों तक अपनी सूदखोरी का जाल फैलाया है। यह जाल इतना महीन है कि लोग इसे देख नहीं पाते और स्वशोषण के जरिए इन सूदखोरों की तिजोरिया भरते रहते हैं।
मोहम्मद यूनुस ने भी बांग्लादेश में अपने ग्रामीण बैंक के जरिए ऐसा ही जाल पूरे देश में फैला लिया था। इससे उन्होंने इतनी दौलत कमाई कि नार्वे की टेलीनार के साथ मिलकर बांग्लादेश की सबसे बड़ी टेलीकाम कंपनी भी खड़ी कर ली। उनके ऊपर वित्तीय धांधली से लेकर श्रम कानूनों के उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं।
मोहम्मद यूनुस जैसे व्यक्ति विश्व बैंक जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं से लेकर नोबेल पुरस्कार संस्था तक के दुलारे रहे हैं। इसीलिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला। शेख हसीना सरकार के जमाने में उन्होंने भाग कर अमेरिका में शरण ले ली थी। अब वे बांग्लादेश की नैया पार लगाने के लिए वापस लौटे हैं।
यह देखना मुश्किल नहीं है कि जिन्होंने बांग्लादेश की मजदूर-मेहनतकश जनता को तबाह किया वही अब मरहम के रूप में अपने कारिंदों को भेज रहे हैं। जिन नीतियों ने जनता की जिंदगी नरक बना दी उन्हीं नीतियों के मुरीद अब जनता की भलाई का बीड़ा उठा रहे हैं। इस सबका क्या परिणाम होगा यह पहले से तय है।
बांग्लादेश का पूरा घटनाक्रम एक बार फिर रेखांकित करता है कि स्वयं स्फूर्त विद्रोह अपने आप कुछ खास हासिल नहीं कर सकता। मजदूर वर्ग की विचारधारा से लैस एक संगठित आंदोलन ही समाज को कोई नई दिशा दे सकता है। हां, जिस हद तक सारे तानाशाहों को इस विद्रोह ने भयभीत किया है, उस हद तक इसकी जयकार की जानी चाहिए। तपते रेगिस्तान में एक गिलास पानी का भी काफी महत्व होता है।
खोदा पहाड़, निकली चुहिया
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
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7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
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