कांवड़ यात्रा : फासीवादी प्रयोगशाला में चूहा बना बेरोजगार मजदूर-मेहनतकश तबका

कांवड़ियों की यह ज्यादातर आबादी मजदूर-मेहनतकश वर्ग से आती है

कांवड़ यात्रा

जुलाई के महीने के साथ ही उत्तर भारत की सड़कों पर एक विभीषिका शुरू होती है। इस विभीषिका को कांवड़ यात्रा कहा जाता है। भगवा कपड़ों में उत्तर भारत के राजमार्गों पर चल रहे ये कांवड़िए एक तरह से इन राजमार्गों के मालिक दिखते हैं। दिल्ली से हरिद्वार जाने वाले राजमार्ग पर यातायात का जाम, कांवड़ियों द्वारा सड़क चलती गाड़ियों पर हमला, दंगे फसाद, लड़ाई-झगड़े यह अब कोई नई बात नहीं रह गई है। इस देश का आम नागरिक अब इस बात को समझने लगा है कि धर्म के नाम पर की जा रही इस यात्रा में भक्ति के अलावा सब कुछ है। 
    
पिछले कुछ सालों में राज्य के संरक्षण में बढ़ रही धर्मांधता इस यात्रा को और ज्यादा आक्रमक बनाती जा रही है। सड़कों पर अल्पसंख्यक समुदायों पर हमला, महिलाओं के साथ छेड़-छाड़, सार्वजनिक तथा निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने की दर पिछले कुछ सालों में और ज्यादा विकराल रूप धारण करती जा रही है। 
    
सवाल उठता है कि आखिर कांवड़ यात्रा के नाम पर इस आक्रामकता को अंजाम दे रहे यह कांवड़िए आखिर कौन हैं? और क्या वजह है कि यह कांवड़िए इस कदर आक्रामक तथा विध्वंसकारी प्रवृत्ति अख्तियार कर लेते हैं?
    
विभिन्न रिपोर्टों और सर्वेक्षणों के अनुसार कांवड़ यात्रा में हर साल कांवड़ियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। 2011 में कांवड़ियों की संख्या लगभग 1.2 करोड़ थी वहीं 2023 में यह संख्या बढ़कर 2.5 करोड़ हो गई। इस साल सभी सालों का रिकार्ड तोड़ती हुए यह संख्या 3 करोड़ पार कर गई है। 
    
सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानोमी के निदेशक महेश व्यास के अनुसार 3 करोड़ की संख्या भारत की कुल काम करने वाले आयु वर्ग की आबादी का 3 प्रतिशत है। यह मजदूर बल का 7 प्रतिशत है। 
    
महेश व्यास के अऩुसार यदि सिर्फ उत्तर भारत के कांवड़ियों की बात की जाए तो यह संख्या ज्यादातर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा और दिल्ली से आती है। 3 करोड़ की यह आबादी कुल श्रम बल का 40 प्रतिशत बनता है। किसी भी देश के चार राज्यों के लिए इतनी बड़ी संख्या में श्रम बल को एक महीने के लिए मुक्त कर पाना क्या संभव है?
    
निश्चित तौर पर यह आकलन एक ही बात की तरफ इशारा करता है कि यह ज्यादातर आबादी भक्तों की नहीं बल्कि बेरोजगारों की फौज है। कांवड़ियों की बढ़ती संख्या देश में बेरोजगारी की विकराल स्थिति को दिखा रही है। यह आबादी ज्यादातर या तो बेरोजगार है या फिर ठेके पर काम करने वाली आबादी जिसके पास साल के 12 महीने काम नहीं रहता है। अधिकांशतः देश की ग्रामीण आबादी से आने वाली यह आबादी किसानों तथा खेतिहर मजदूरों के परिवारों से आती है। 
    
पिछले कई सालों में देश का आर्थिक संकट कई गुना बढ़ चुका है। इस आर्थिक संकट की सबसे भीषण मार रोजगार पर पड़ी है। साल दर साल बढ़ती बेरोजगारों की यह फौज आर्थिक संकट के साथ-साथ कुंठा तथा मनोविकारों को जन्म दे रही है। ऐसे समय में एक ऐसी यात्रा जो न सिर्फ सरकार द्वारा संरक्षित होती है बल्कि आयोजित की जाती है वह ऐसे बेरोजगार युवकों को उनके अस्तित्व के संकट से उभरने का एक मौका देती है। 
    
कांवड़ियों की यह ज्यादातर आबादी मजदूर-मेहनतकश वर्ग से आती है। हालांकि यह यात्रा पारम्परिक ब्राह्मणवादी मान्यताओं को दर्शाती है, लेकिन अधिकांश भक्त दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के हैं। (कुमार, 2018ए, 2018बी; पंवार, 2019)। कांवड़ यात्रा में भागीदारी कर रहा यह समूह दलितों और वंचित समुदायों का वह हिस्सा है जो समाज में सबसे दमित तथा उत्पीड़ित रहा है। ऐसी दमित तथा उत्पीड़ित जनता को जब कांवड़ यात्रा के नाम पर जगह-जगह लगे टेंट में अच्छा भोजन तथा पुष्प वर्षा जैसा सत्कार मिलता है तो वह अपनी दयनीय स्थिति को भूल इस एक महीने के लिए खुद को एक श्रेष्ठ स्थिति में पाते हैं जिसे ना सिर्फ प्रशासन बल्कि सरकार का भी संरक्षण प्राप्त होता है। 
    
एक बेरोजगार मजदूर जिस पुलिस के डंडे से खौफ खाता है वह मजदूर उस एक महीने में उस डंडे को अपने सत्कार में लगा देख कर एक झूठे गर्व की भावना से भर जाता है। और साल के ग्यारह महीनों में इस व्यवस्था के द्वारा वह जिस उपेक्षा, शोषण तथा उत्पीड़न को झेलता है इस एक महीने में मिला यह झूठा सत्कार उसके लिए एक अंहकार बन जाता है जो उसके द्वारा मचाए गए उत्पात में अभिव्यक्त होता है। 
    
हर साल कांवड़ यात्रा के नाम पर अपनी सार्थकता ढूंढती यह बेरोजगारों की भीड़ फासीवादी ताकतों के हाथ में एक हथियार का काम करती है। बेरोजगारी से उपजी कुंठा के विषाद को राष्ट्रीयता और धर्मांधता के नाम पर और भड़काया जाता है। तमाम फासीवादी संगठनों के नेताओं द्वारा इन कांवड़ियों की तारीफ में दिए गए बयान उन्हें एक झूठी शान से भर देते हैं और उसके बदले वह अल्पसंख्यकों पर हमले तथा देश में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के उनके मंसूबों को अंजाम देते हैं।  
    
हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि इस कांवड़ यात्रा में भागीदारी कर रहे यह वही बेरोजगार नौजवान हैं जिनका 2022 में उत्तर प्रदेश में चले बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन के दौरान निर्मम दमन किया गया था। यही कांवड़िए जब अग्निवीर योजना के खिलाफ आंदोलन के दौरान स्थाई रोजगार के लिए आवाज उठा रहे थे तो शासन-प्रशासन ने इनके आंदोलन का निर्मम दमन किया था। लेकिन यही नौजवान जब कांवड़ यात्रा में शामिल होकर राष्ट्रीय राजमार्गों पर उत्पात मचाते हैं तो उन पर पुष्प वर्षा होती है। वजह साफ है कि कांवड़ यात्रा न सिर्फ केंद्र में बैठी सरकार के फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाती है बल्कि देश के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई जैसे मूल मुद्दों को ढंककर रखती है। 
    
किसी भी धर्मनिरपेक्ष समाज में धर्म व्यक्ति का निजी मसला होता है। और राज्य का कभी भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। बल्कि प्रत्येक नागरिक को उसके धर्म, जाति, सम्प्रदाय के इतर राज्य के समक्ष समान होना चाहिए। लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार देश में धर्मांधता को पोषित कर देश में फासीवादी माहौल तैयार कर रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा कांवड़ यात्रा के संबंध में दिया गया फैसला कि कांवड़ यात्रा के रास्ते में आने वाले ढाबों के मालिकों को अपने ढाबों पर अपने नाम दिखाने होंगे जिससे कि हिंदू कांवड़िए किसी मुस्लिम ढाबे पर ना जा पाएं- इसी फासीवादी एजेंडे को दर्शाता है। योगी आदित्यनाथ का यह फैसला ना सिर्फ मुस्लिम ढाबों-रेहड़ी-खोमचे वालों के पेट पर लात मारता है बल्कि वह उन्हें चिन्हित भी कर देता है जिससे यदि दंगे की स्थिति बनती है तो उन पर और उनके रोजगार के साधनों पर हमला करना और भी आसान हो जाता है। 
    
पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा मुनाफे और एकाधिकार को बनाए रखने के लिए शासन सत्ता के जरिए देश में फैलाए जा रहे फासीवादी उन्माद को इतिहास में भी मजदूर वर्ग की एकता ने परास्त किया था और आज भी इस फासीवादी लहर को मजदूर वर्ग की एकता ही परास्त करेगी। जिस दिन आम मजदूर मेहनतकश आबादी इनके इन मंसूबों की असलियत समझ एक न्याय और बराबरी आधारित व्यवस्था कायम करेगी।

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