प्रधानमंत्री आवास योजना में रामलला

देश के स्वनामधन्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बताया है कि उन्होंने रामलला को रहने के लिए एक मकान दे दिया है। एक भाषण में उन्होंने कहा कि पहले रामलला एक टेन्ट में रहते थे। अब जब देश के चार करोड़ लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकान मिला तो रामलला को भी मिल गया। रामलला भी संघी प्रधानमंत्री की निगाह में ‘लाभार्थी’ हो गये। बस वे चुनाव में वोट नहीं दे सकते। पर इससे क्या? वे वोट दिलवा तो सकते ही हैं। राम मंदिर उद्घाटन का यह आयोजन आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों की फसल काटने के लिए ही तो हो रहा है। 
    
कुछ लोगों को यह बुरा लग रहा है कि संघी प्रधानमंत्री रामलला को लाभार्थी बता रहे हैं, कि वे उन्हें देश की बाकी मजदूर-मेहनतकश जनता की तरह ही प्रजा समझ रहे हैं। पर यह आपत्ति नाजायज है। भगवान के संदर्भ में इस तरह की आपत्ति उन्हीं लोगों पर लागू होती है जो भगवान में विश्वास करते हैं। पर जो भगवान में विश्वास नहीं करते वे भगवान के साथ कुछ भी कर सकते हैं। 
    
और संघी भगवान में विश्वास नहीं करते। वे नास्तिक होते हैं। वे आर्य समाजियों की तरह वेदों में भी विश्वास नहीं करते। वे अपने आदि गुरू सावरकर की तरह होते हैं। सावरकर घोषित तौर पर नास्तिक थे, बिलकुल उसी तरह जैसे जिन्ना नास्तिक थे। एक ने हिन्दू राष्ट्र की बात की और दूसरे ने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की हालांकि जिन्ना सावरकर से इस मामले में बेहतर थे कि उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र पाकिस्तान को इस्लामी राष्ट्र के रूप में नहीं देखा। वे पाकिस्तान को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाना चाहते थे। 
    
संघी हिन्दू फासीवादी नास्तिक होते हैं। उनका धर्म या भगवान में विश्वास नहीं होता। यदि वे हिन्दू धर्म में विश्वास करते भी हैं तो वर्ण व्यवस्था वाली एक समाज व्यवस्था के रूप में। प्राचीन और मध्यकालीन भारत में धर्म का यही मतलब भी था यानी वर्ण-जाति वाली समाज व्यवस्था के नियमों का पालन। संघ के हिन्दू फासीवादी नास्तिक होते हैं। ठीक इसी कारण वे बिना किसी हिचक के धर्म और भगवान को अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। धर्म और ईश्वर में विश्वास एक आत्मिक चीज है। वह इस ‘हृदयहीन दुनिया का हृदय है’। इसीलिए इसमें सचमुच विश्वास करने वाला इसका राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता क्योंकि राजनीति सबसे ज्यादा हृदयहीन काम है। इसे और नहीं तो स्वयं नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक जीवन में बखूबी देखा जा सकता है। जिस आडवाणी ने राम मंदिर आंदोलन को एक समय नेतृत्व दिया और जो मोदी के संरक्षक थे, उन्हें आज मोदी वृद्धाश्रम में डालकर राम मंदिर उद््घाटन के मुख्य यजमान बन बैठे हैं। 
    
भारत में मंदिरों की कमी नहीं है। गली-मुहल्ले हर जगह मंदिरों की इफरात है। यहां तक कि सरकारी कालोनियों, थानों और अस्पतालों तक में मंदिर बने हुए हैं। एक आस्थावान हिन्दू को किसी मंदिर तक पहुंचने के लिए सौ कदम भी पैदल चलने की जरूरत नहीं। यहां तक कि अपनी पसंद के भगवान के मंदिर तक भी दस-पंद्रह मिनट में पहुंचा जा सकता है। बनारस जैसे शहर में तो हर कदम सावधानी से रखना पड़ता है कि कहीं वह किसी मंदिर में न पड़ जाये। 
    
पर देश में मंदिरों की इस इफरात के बावजूद संघी हिन्दू फासीवादी चार हजार और मंदिर बनाना चाहते हैं। ये पूजा-पाठ के लिए नहीं बनेंगे। बल्कि ये हिन्दू गौरव की पुनर्स्थापना के लिए बनेंगे। हिन्दू फासीवादियों की नजर में इन चार हजार मंदिरों को मध्यकाल में मुसलमान शासकों ने तोड़कर उनकी जगह मस्जिदें बनवाईं। यह हिन्दुओं का मान मर्दन करने के लिए किया गया जिससे उन्हें गुलाम बनाया जा सके। अब हिन्दू जाग गया है। हिन्दू राष्ट्र बस अब बनने ही वाला है। अब हिन्दुओं का पुराना गौरव स्थापित होकर रहेगा। 
    
इस तरह की उन्मादी अवस्था में जीने वाले और सत्ता के लिए कुछ भी करने से गुरेज न करने वाले हिन्दू फासीवादियों के सामने भला रामलला क्या चीज है? वे बस लाभार्थी हैं!  

आलेख

/kumbh-dhaarmikataa-aur-saampradayikataa

असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

/trump-putin-samajhauta-vartaa-jelensiki-aur-europe-adhar-mein

इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

/kendriy-budget-kaa-raajnitik-arthashaashtra-1

आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

/gazapatti-mein-phauri-yudha-viraam-aur-philistin-ki-ajaadi-kaa-sawal

ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

/apane-desh-ko-phir-mahan-banaao

आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।