लेनिन को दुनिया से गुजरे हुए सौ वर्ष हो गये हैं। सौ वर्ष का समय कम नहीं होता है। इन सौ वर्षों में दुनिया में बहुत-बहुत बड़े बदलाव हुए। दुनिया कहीं की कहीं पहुंच गयी। लेकिन लेनिन का आकर्षण जितना सौ वर्ष पहले था उतना ही आज भी मौजूद है। उनके विचार, उनके जीवन का महत्व ज्यों का त्यों है। पूरी दुनिया में हजारों-हजार लोग हैं जो लेनिन को अपना आदर्श मानते हैं। लेनिन के विचारों को आधार बनाकर काम करते हैं और लेनिन के दिखाये रास्ते पर अपनी जान न्यौछावर कर देते हैं।
क्या थे लेनिन? क्यों लेनिन आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं? क्यों दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित खासकर मजदूर वर्ग का एक हिस्सा उन्हें बार-बार याद करता है। भारत के क्रांतिकारियों को लेनिन क्यों आकर्षित करते रहे हैं। हम जानते हैं भारत के अमर शहीद भगतसिंह फांसी दिये जाने के ठीक पहले लेनिन की ही जीवनी पढ़ रहे थे।
लेनिन क्रांति के प्रतीक थे। क्रांति की उपज और उसके नायक थे। रूस में हुयी महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति की लेनिन और उनके द्वारा खड़ी की गयी बोल्शेविक पार्टी के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
लेनिन क्रांति के प्रतीक व उसके नायक थे। उनके यहां क्रांति का मतलब न तो बिना वजह की हिंसा, न अराजकता और न ही आतंकवाद था। न ही उनके यहां क्रांति का मतलब मुहिमजोई था और न ही कुछेक बहादुर लोगों की कार्यवाही था।
लेनिन जब महज पन्द्रह वर्ष के थे तब उन्होंने अपने पिता और बड़े भाई को खो दिया था। पिता तो अपनी मौत मरे थे परन्तु बड़े भाई ने क्रांतिकारी आतंकवाद का रास्ता चुनकर रूस के आताताई जार को मारने की कोशिश की थी। और उन्हें इसकी सजा मौत के रूप में चुकानी पड़ी। लेनिन ने अल्पायु में क्रांतिकारी आतंकवाद की निरर्थकता को समझ लिया था। उन्होंने रूस में क्रांति की समस्या के सवाल से जूझते हुए मार्क्सवाद को ग्रहण किया। मार्क्सवाद की बुनियादी बातों में एक बात यह थी क्रांति का कार्य चंद वीरों का नहीं यह स्वयं मजदूर वर्ग का कार्य है। शोषित-उत्पीड़ितों का कार्य है। मजदूरों व उत्पीड़ित किसानों का कार्य है। और लेनिन के महान व्यक्तित्व की खूबसूरती इस बात में है उन्होंने रूस में मार्क्सवाद की इस बात को चरितार्थ करके दिखा दिया था। रूस में चाहे 1917 की ‘‘फरवरी क्रांति’’ हो अथवा ‘‘अक्टूबर क्रांति’’ इन क्रांतियों के सफल होने का मुख्य कारण मजदूरों-मेहनतकशों की पहलकदमी, जुझारूपन और बलिदान की सर्वोच्च भावना थी।
और यही बात अक्टूबर क्रांति के बाद रूस पर चौदह पूंजीवादी देशों के संयुक्त हमले और समाजवाद निर्माण के समय भी लागू होती है। और आगे जाया जाये तो फासीवाद-नाजीवाद की कब्र खोदने में भी सोवियत संघ के मजदूरों-मेहनतकशों की महान व निर्णायक भूमिका थी। रूस, सोवियत संघ की जनता ने बीसवीं सदी में इतने बड़े-बड़े कार्य किये थे। और इसके पीछे जिस व्यक्ति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका थी; वे लेनिन थे।
लेनिन का मतलब जनता का सच्चा दोस्त, सच्चा नेता, सच्चा शिक्षक, सच्चा मार्गदर्शक होना होता है। लेनिन होने का मतलब जनता की क्रांतिकारी आवाज होना है। लेनिन होने का मतलब एक ऐसा मुक्तिकामी है जो मजदूरों, किसानों, उत्पीड़ित स्त्रियों-राष्ट्रीयताओं को बार-बार समझाता है कि उनकी मुक्ति की पहली और आवश्यक शर्त साम्राज्यवाद-पूंजीवाद का सम्पूर्ण अंत है। मुक्ति का रास्ता समाजवाद से होकर जाता है। और समाजवाद भी मानव जाति का कोई अंतिम लक्ष्य या आदर्श नहीं है। समाजवाद तो महज एक मंजिल है। अंततः मानव जाति को उस समाज व्यवस्था में प्रवेश करना होगा जहां वर्गों का अंत हो जाए। शोषण-उत्पीड़न का कोई नामोनिशां भी न बचा हो। राज्य (यानी सेना, पुलिस, जेल, नौकरशाही, बाकी ताम झाम) का अंत हो जाए। युद्धों की जमीन-मशीन का अंत हो जाये। न तो किसी किस्म के पार्टी-संगठन बनाने की आवश्यकता बचे और न ही दुनिया में कोई देश किसी देश के खिलाफ युद्ध करने के या अपनी सुरक्षा के नाम पर सेना रखे। लेनिन का आदर्श साम्यवाद है।
लेनिन होने का मतलब है कि एक ऐसा क्रांतिकारी जो अपने देश की क्रांति को विश्व क्रांति का एक हिस्सा भर मानता हो। इन अर्थों में क्रांति कोई राष्ट्रीय कार्य नहीं है। राष्ट्रवाद की झूठी बातों का लेनिन के यहां कोई स्थान नहीं है। इसीलिए लेनिन महज रूसी क्रांति के नायक या प्रतीक या आदर्श नहीं हैं बल्कि वे विश्व क्रांति के नायक, प्रतीक व आदर्श हैं। इसीलिए वे जितने रूसियों, उक्रेनियों को अपने लगते हैं उतने ही अपने वे भारत, चीन, वियतनाम, अफ्रीका या लैटिन अमेरिका के देशों के लोगों को भी लगते हैं। इसी रूप में लेनिन के विचार और शिक्षाएं पूरी दुनिया में लागू होती हैं। ये दीगर बात है कि हर देश की क्रांति अपने आप में अनूठी और विशिष्ट होती है। वह किसी देश की क्रांति की नकल या फोटो कापी नहीं हो सकती है। यह भी लेनिन के ही विचार थे कि हर देश के क्रांतिकारी अपने देश की परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करें। किसी देश की क्रांति की नकल न करें।
लेनिन ने इस बात को अच्छे ढंग से स्थापित किया था कि मजदूर वर्ग की मुक्ति की एक आवश्यक व प्रारम्भिक शर्त यह है कि वह अपने आपको संगठित करे। एक ऐसी सुगठित पार्टी का निर्माण करे जो उसके पूरे वर्ग को, शोषित-उत्पीड़ित जनों को क्रांति के पहले दिनों से लेकर उसके परम लक्ष्य साम्यवाद तक नेतृत्व दे सके। वह एक ऐसी पार्टी बने जो अंत में ऐसी परिस्थितियां तैयार कर दे जहां अंत में पार्टी की आवश्यकता ही खत्म हो जाये। लेनिन के नेतृत्व में बनी बोल्शेविक पार्टी एक ऐसी ही पार्टी थी। लेनिन के बिना बोल्शेविक पार्टी और बोल्शेविक पार्टी के बिना रूस की क्रांति की कल्पना नहीं की जा सकती है। बोल्शेविक पार्टी के बिना न तो समाजवाद के निर्माण और न ही फासीवाद-नाजीवाद के पतन की कल्पना की जा सकती है।
लेनिन की विश्व इतिहास में भूमिका देखें तो पूरी बीसवीं सदी लेनिन के विचारों और कार्यों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव की गवाह बनी है। जैसे कार्ल मार्क्स-एंगेल्स ने उन्नीसवीं सदी के ऊपर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा है। ठीक वही बात लेनिन के संदर्भ में बीसवीं सदी पर भी लागू होती है। बीसवीं सदी की लेनिन के बिना कल्पना नहीं की जा सकती है।
हम भारतीयों के ऊपर लेनिन का प्रभाव अनेकोनेक रूप में रहा है। भगतसिंह यदि भगतसिंह बने तो इसीलिए कि वे लेनिन के विचारों से ओत-प्रोत थे। भारत की आजादी की लड़ाई में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की एक विशेष भूमिका थी। भारत के कम्युनिस्ट लेनिन व स्टालिन के विचारों से प्रेरित थे। लेनिन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत के मजदूर वर्ग के सामर्थ्य को पहचाना था। लेनिन ने तिलक की गिरफ्तारी के बाद हुयी मजदूरों की हड़ताल को पहली ‘राजनीतिक हड़ताल’ की संज्ञा दी थी। लेनिन क्या थे इसे भारत के एक ‘राष्ट्रकवि’ रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में भी समझा जा सकता है। दिनकर कहते हैं,
‘‘आप तो तूफान और आंधी थे।
पहाड़ों से आपने झुकने को भी
नहीं कहा।
धक्का मारा और सीधे-
उन्हें जड़ से उखाड़ दिया।
सांप और सांप के बच्चे,
दोनों को
जमीन के नीचे गाड़ दिया।’’
‘‘आप तो आंधी और तूफान थे’’
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।