आम चुनाव अब करीब हैं। एक तरफ भाजपा तो दूसरी तरफ विपक्षी पूंजीवादी पार्टियां अपने-अपने दांव-पेंच आजमाने में लगे हुए हैं। चुनाव के इस मैदान में एक तरफ विपक्ष है जो बिखरा हुआ है, अलग-अलग राज्यों में सीट साझा करने को एक-दूसरे से टकराव में है तो दूसरी तरफ हिंदू फासीवादी भाजपा है जो संगठित है, योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही है। जहां विपक्षी पार्टियां इंडिया गठबंधन बनाने के बावजूद अभी भी एकजुट नहीं हैं वहीं संघी अपने फासीवादी एजेंडे को तेजी से एक-एक करके सामने ला रहे हैं और विपक्ष को इसके ही इर्द-गिर्द प्रतिक्रिया करने को मजबूर कर रहे हैं। विपक्ष करे भी तो क्या करे! नरम हिंदुत्व की राजनीति का यही हश्र होना है। इस खेल में जाहिर है उग्र हिंदुत्व की ही जीत होनी है।
संघी जानते हैं कि उनकी लूट-खसोट की नीति से आम जनता हैरान-परेशान है। भयंकर बेरोजगारी, महंगाई से त्रस्त आम जन विशेषकर हिंदू समुदाय असंतुष्ट है, भ्रमित है। कहां तो वे, हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ते कदमों के साथ बेहतर जिंदगी की उम्मीद में थे, कहां जिंदगी रसातल में चली गई। दो करोड़ रोजगार हर साल मिलने का ख्वाब मिट्टी में मिल गया। इसकी मांग के लिए होते आंदोलन देश विरोधी घोषित होने लगे। बदले में लाठियां मिलीं और मुकदमे हुए।
मोदी-शाह की नई संसद में 5-6 नौजवानों ने अंदर और बाहर प्रदर्शन करके, इसी आक्रोश को व्यक्त किया था। यह घटना ऐतिहासिक बन गई। मणिपुर, महंगाई, बेरोजगारी और तानाशाही की स्थिति को इन नौजवानों ने एक झटके से सामने ला दिया। इन्हें आतंकवाद के मुकदमे में जेल में डाल कर सरकार ने अपने तानाशाह व्यवहार को ही पुष्ट किया। यह घटना आम जन के बीच बढ़ते असंतोष की ही सूचक है।
इस बढ़ते असंतोष को मोदी सरकार जानती है। यह बढ़ता असंतोष यदि इनके खिलाफ नफरत में बदलता है तो इन्हें सत्ता से बाहर भी कर सकता है। हाल के विधान सभा चुनाव को तमाम तिकड़मों से ये जीतने में सफल जरूर हुए हैं। मगर यह जीत किस तरह हासिल की गई है, ये सभी जानते हैं।
ये जानते हैं कि धर्म की जहरीली राजनीति की खुराक का असर अब कुछ कम हो चुका है। आम जन खुद को एक बेरोजगार, एक संविदाकर्मी, एक मजदूर, एक किसान के रूप में देखने लगे हैं। इनका खुद को एक नागरिक और इंसान के रूप में देखना मोदी सरकार और इनकी हिंदू फासीवादी राजनीति के लिए सही नहीं है।
हिंदुओं का बड़ा हिस्सा दलितों और पिछड़ों का है। इसमें से बड़ा हिस्सा मजदूरों-मेहनतकशों का है। सवर्ण हिंदू मानसिकता से ग्रस्त सवर्ण, एक तरफ दलित से घृणा करता है तो दूसरी तरफ मुस्लिम से। यह स्थिति हिंदू फासीवादियों के लिए सही नहीं है। हिंदू धर्म की यह सामाजिक और धार्मिक स्थिति संघ परिवार के एक हिंदू राष्ट्र की राह को कमजोर करती है।
इसलिए ये चुनाव तक माहौल को हिंदू बनाम मुस्लिम बना देने की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। ये हिंदुओं की गोलबंदी पर फिर से जोर देने की ओर बढ़ चुके हैं। इस तरह तत्कालिक तौर पर चुनाव जीतना इनका पहला लक्ष्य है तो दूरगामी तौर पर अंबानी-अडाणी जैसे एकाधिकारी पूंजीपतियों के आतंकी राज को कायम करना इनका अंतिम लक्ष्य है।
ये एक तरफ राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर रहे हैं, इसे पांच सौ साल की गुलामी से मुक्ति के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं तो दूसरी तरफ चुनाव से पहले सांप्रदायिक नागरिकता कानून को फिर से लागू करने की घोषणा कर चुके हैं। कुल मिलाकर इनका पूरा जोर इस बात पर है कि मुस्लिम समुदाय को उकसा कर या उत्तेजित कर ये सड़कों पर धकेल सकें और फिर इसे हिंदू विरोध के नाम पर हिंदुओं की गोलबंदी करें।
समान नागरिक संहिता पर इनकी यही कोशिश थी। मगर ऐसा हुआ नहीं। इस संहिता की जटिलता के चलते बाद में इन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए। अब ये प्राण प्रतिष्ठा के लिए देश के सभी नागरिकों को राम ज्योति जलाने का खुला आह्वान कर रहे हैं। मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि जिनका राम से कोई संबंध नहीं; उनसे भी जबरन राम की प्राण प्रतिष्ठा पर जश्न मनाने का आह्वान कर रहे हैं।
इस तरह व्यवहार में इन्होंने एक तरीके से देश को लगभग हिंदू राष्ट्र बना ही दिया है। धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेने वाला प्रधानमंत्री अब प्राण प्रतिष्ठा में पूजा करेगा। संविधान की आत्मा की दुहाई देने वाला सुप्रीम कोर्ट इस दौरान ‘‘मोदी धुन’’ में नाच रहा होगा। प्रधानमंत्री, एक हफ्ता यानी 16 जनवरी से 22 जनवरी तक इसके लिए जरूरी धार्मिक कर्मकांडों में मुख्य किरदार होंगे। इस प्राण प्रतिष्ठा का केंद्र बिंदु सिर्फ मोदी होंगे जिसके इर्द-गिर्द टीवी चैनलों का कैमरा घूमता रहेगा। यहां पाखंड, अहंकार और आत्ममुग्धता के दर्शन एक साथ होंगे। बस ‘फकीर मोदी’ द्वारा इतनी घोषणा करनी बाकी रह जाती है ‘‘अहं ब्रह्मास्मि’’। अडाणी-अंबानी जैसे एकाधिकारी पूंजी के मालिक अपने इस समर्पित सेवक की अदा पर फिदा होंगे।
एक तरफ यह आयोजन होगा, जिसका हर वक्त पीपली लाइव फिल्म में मीडिया की ही तरह लाइव प्रसारण होगा। दूसरी तरफ देश के कई विशेषकर भाजपाई राज्यों में संघी कार्यकर्ता ‘अक्षत कलश यात्रा’ चलाएंगे। गली-गली, घर-घर जाएंगे। इस अभियान के जरिए वास्तव में मुस्लिमों को उकसाने की कोशिश होगी। मध्य प्रदेश के शाजापुर में पथराव के रूप में घटना हो भी चुकी है। ये हरियाणा के नूंह को दोहराना चाहते हैं।
यही उकसावा ये सांप्रदायिक नागरिकता कानून को लागू करने की घोषणा के जरिए भी करने की कोशिश में हैं। इस कानून के हिसाब से 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भारत आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों एवं ईसाइयों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। यानी केवल मुस्लिमों को ही अवैध प्रवासी माना जाएगा। साल 2019 में संसद में शाह ने इस कानून के बनने के बाद देश में एन आर सी (नागरिक का राष्ट्रीय पंजीकरण) कराने की घोषणा की थी। जिसके बाद असम, मिजोरम से लेकर उत्तर भारत तक इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए। संघी सरकार ने इसे हिंदू बनाम मुस्लिम के रूप में खड़ा कर दिया था।
इस बार गोल-मोल ढंग से ही घोषणा हुई है। तीन देशों से घोषित कथित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने की ही बात अभी सामने आई है। यह काम तो पहले ही जिलाधिकारी को सौंप दिया गया था। एन आर सी पर कोई भी बात नहीं की गई है न ही इस संबंध में नागरिकता के पैमाने को स्पष्ट किया गया है। फिलहाल सी ए ए लागू करने की घोषणा केवल मुस्लिमों में असुरक्षा पैदा करने और इससे उपजने वाले उनके प्रतिरोध को हिंदू-मुस्लिम धुव्रीकरण का औजार बना देने के मकसद से ही की गई है।
जिस तरह का हिंदू-मुस्लिम धुव्रीकरण राम मंदिर आंदोलन के वक्त हुआ था, वैसा ही ध्रुवीकरण हिंदू फासीवादी सरकार आम चुनाव से पहले फिर से खड़ा करना चाहती है ताकि विपक्ष की रणनीति को ध्वस्त करके एक तरफा तौर पर वोट हासिल कर चुनाव जीत लें।
आम चुनाव और फासीवादी भाजपा
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को