अडाणी समूह की निगाहें छत्तीसगढ़ के हसदेव के जंगलों पर लगी हुई हैं। वह यहां से कोयला निकालने की फिराक में है। हसदेव एक प्राचीन घना अछूता जंगल क्षेत्र है जहां सतह से कम गहराई पर कोयला मिल सकता है। अतः कम लागत पर कोयला हासिल करने के लिए अडाणी समूह काफी वक्त से लार टपकाये हुए है। अब जबकि छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार सत्तासीन हो गयी है तो अडाणी को अपनी लालसा पूरी होती दीख रही है।
पर छत्तीसगढ़ के जंगलों के आदिवासी अपने जंगल अडाणी को देने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने हसदेव में खनन की परियोजना के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया है। आदिवासियों का संघर्ष छत्तीसगढ़ के साथ पड़ोसी मध्य प्रदेश तक फैल गया है। 7 जनवरी को आदिवासियों की रैली तमाम गिरफ्तारियों व अन्य रुकावटों के बावजूद सम्पन्न हुई।
हसदेव के जंगलों में खनन को कांग्रेस-भाजपा सरकारें दोनों उतारू रही हैं। पिछली भूपेश बघेल की कांग्रेसी सरकार ने खनन के लिए विधानसभा से प्रस्ताव पास कराया था और केन्द्र सरकार ने भी इसे मंजूरी दे दी थी। इस खनन हेतु अडाणी समूह द्वारा ग्राम सभा व सरपंचों से धोखे से व फर्जी हस्ताक्षरों से सहमति ली गयी थी। हालांकि कांग्रेस सरकार आदिवासियों के संघर्ष के दबाव में इस परियोजना को परवान नहीं चढ़ा पाई। अब अडाणी की चहेती भाजपा सरकार इस परियोजना को किसी भी कीमत पर परवान चढ़ाने को उतारू है।
भारतीय वन्य जीव संस्थान व भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद ने हसदेव में खनन के खिलाफ सिफारिश की थी। इनकी रिपोर्ट बताती है कि खनन से हसदेव नदी प्रभावित होगी, मानव-हाथी संघर्ष बढ़ेगा व जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। साथ ही स्थानीय आदिवासियों की संस्कृति व पहचान को नुकसान होगा। पर सरकारें अडाणी की सेवा में इतनी नतमस्तक हैं कि उन्होंने इन रिपोर्टों की परवाह तक नहीं की।
कुल मिलाकर आदिवासियों ने संघर्ष तेज कर दिया है और वे डबल इंजन सरकार के हथकंडों का बहादुरी से मुकाबला कर रहे हैं।
हसदेव में खनन और अडाणी
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को