नये आपराधिक कानून : अधिक क्रूर-अधिक दमनकारी तंत्र की संहिता

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

मोदी सरकार ने तीन ‘ऐतिहासिक’ कानून बनाकर, इस साल 1 जुलाई से लागू कर दिये हैं। मोदी और संघ परिवार की नजर में यह ‘ऐतिहासिक’ कदम है और इस तरह उन्होंने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का विकास किया है। इसने औपनिवेशिक कानूनों से मुक्ति दिलाई है। गुलामी से मुक्ति दिलाई है। इस तरह ये कानून ‘क्रांतिकारी’ हैं। इस तरह हिन्दू फासीवादी सरकार सोचती है कि उनके माथे पर अंग्रेजी सरकार की भक्ति और आजादी के आंदोलन से गद्दारी का जो दाग है वह फर्जी तरीके से जनता की नजर में धुल गया है। मगर ऐसा कभी नहीं होने वाला। 
    
संघ परिवार और मोदी की नजर में ‘असमानता प्रकृति का नियम है’। इस असमानता के तर्क को ये समाज पर लागू करते हैं और फिर सामाजिक असमानता को बनाए रखने का घोर समर्थन करते हैं। यही इनके विचारों का मूल है। इसलिए जो कोई भी सामाजिक और आर्थिक बराबरी या समानता के पक्ष में बातें करता है, आवाज उठाता है, ये उसके खिलाफ होते हैं। उसे नष्ट कर देना चाहते हैं। इनके हर प्रयास इस असमानता को अत्यधिक बढ़ाते जाने और समानता के लिए उठती आवाज को खामोश करने की दिशा में होते हैं। एकाधिकारी पूंजी की इससे बेहतर सेवा और क्या हो सकती है। 
    
ये बुलडोजर न्याय के पक्षधर हैं। ये अपराध को नहीं बल्कि अपराधी को खत्म कर देना चाहते हैं। वह भी किसी खास किस्म के। यदि अपराधी भाजपा और संघ से है या इन्हीं के दस्ते में शामिल हो जाता है तो फिर उसका फूल मालाओं से स्वागत है। अन्यथा उसे बुलडोजर से रौंदा जाना तय हैं। इस तरह ये अपराधी को सबक सिखाना चाहते हैं, दहशत और आतंक के जरिए ये अपराध को नियंत्रित करना चाहते हैं या रोक देना चाहते हैं। अपने इन्हीं विचारों के अनुरूप हिन्दू फासीवादी सरकार ने पुराने तीन आपराधिक कानूनों को भी ढाल दिया है। 
    
इन कानूनों में सबसे पहला खेल मोदी सरकार ने किया है नाम का। अंग्रेजी और हिन्दी दोनों नाम एक जैसे हैं। भारतीय न्याय संहिता (बी एन एस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बी एन एस एस) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बी एस ए)। इस तरह हिंदीकरण करके मोदी सरकार ने हिन्दी भाषी भक्तों को खुश करने की कोशिश की है। 
     
दूसरा खेल है धाराओं की संख्या बदल देने का। यानी कि पहले जिस सजा के लिए जो धारा थी उसकी संख्या बदल दी गई है। जैसे पहले हत्या के लिए धारा 302 लगती थी अब धारा 103 के तहत मुकदमा दर्ज होगा। इसी तरह धारा 307 को 109, धारा 304 को 105 और धारा 376 को 64 कर दिया गया है। पहले की धारा 144 अब 163 है। इसी तरह अन्य भी। संज्ञेय और गैर संज्ञेय अपराध का पुराना विभाजन बना हुआ है। 
    
तीसरा खेल है राजद्रोह के मामले में। लंबी जिरह के बाद सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह (124 ए) के घोर दुरुपयोग की बात करते हुए इस पर रोक लगा दी थी। सरकार को इस पर पुनर्विचार करने को कहा था। सरकार ने सुपीम कोर्ट की सलाह को मान लिया और इससे ज्यादा दमनकारी कानून ‘देश द्रोह’ (देश के खिलाफ विद्रोह) की धारा (152) ले आई। 
    
चौथा कारनामा है धाराओं की कुल संख्या को एक कानून में घटा देना और दूसरे में बढ़ा देना। पुरानी दंड संहिता में कुल धाराएं 511 थीं। ‘न्याय’ संहिता में इसे घटाकर 358 कर दिया गया है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता में 478 धाराएं थीं जबकि नई ‘नागरिक सुरक्षा संहिता’ में ये बढ़कर 531 हो चुकी हैं। 
    
हिन्दू फासीवादी सरकार ने न्याय की पुरानी धारणा को व्यवहार में पहले ही खत्म कर दिया है। पुरानी धारणा और सोच थी कि ‘भले ही 10 अपराधी छूट जाएं मगर एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए’; कि ‘जब तक किसी आरोपी पर साक्ष्यों के दम पर अपराध साबित नहीं होता तब तक आरोपी निर्दोष है’। पर मोदी काल में मात्र आरोप लगने पर ही ‘बुलडोजर’ से घर मिट्टी में मिला दिए जा रहे हैं। पुलिस की अवैध गिरफ्तारी से बचाने का कानून ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण’ यानी हिरासत के 24 घंटे के भीतर कोर्ट में पेश करने का प्रावधान भी व्यवहार में खोखला कर दिया गया है। 
    
देशद्रोह (हिन्दी संस्करण में) की धारा जो ‘संप्रभुता, एकता और अखंडता’ के नाम से असल धारा है। इसमें देश की ‘संप्रभुता, एकता और अखंडता’ को खतरे में डालने वाली ‘बात’ और ‘गतिविधि’ पर सात साल तक की जेल से लेकर उम्र कैद तक सजा की बात की गई है। इस धारा को जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ा गया है जिसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। इसमें ‘अलगाव’ या ‘अलगाववादी गतिविधियों की भावना को बढ़ावा देना’ किस व्यवहार, विचार और राजनीति को कहा जाएगा, यह साफ नहीं है। इसी तरह ‘अन्य गतिविधि’ का मामला है। किस प्रकार की ‘ऐसी गतिविधि’ से ‘संप्रभुता, एकता और अखंडता’ को खतरा है और किससे नहीं, यह अस्पष्ट है। इसकी मनमानी व्याख्या के लिए भरपूर गुंजाइश छोड़ दी गई है। ‘राजद्रोह 124 ए’ अब और ज्यादा खतरनाक रूप में देशद्रोह (धारा 150) हो गया है। 
    
देशद्रोह की ‘ऐसी गतिविधियों’ को भड़काने की कोशिश की आड़ में आर्थिक सहयोग करने वाले, सोशल मीडिया या साइट पर लिखने वाले भी सजा के दायरे में शामिल कर लिए गए हैं। जबकि पहले के कानूनों में केवल वही लोग ‘अपराधी’ माने जाते थे जो सशरीर गतिविधियों में शामिल रहते थे। 
     
‘गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून’ कांग्रेस सरकार ने 1960 के दशक में बनाया था। तब कहा गया था कि यह उग्रवाद और आतंकवाद से निपटने के नाम पर है। लेकिन ढेरों जनवादी अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले लोग कांग्रेस के काल में भी इसमें फंसाये गए थे। मोदी सरकार ने इस कानून के एक हिस्से को अब सामान्य बना दिया है। इसके प्रावधान को अब धारा 113 के नाम से न्याय संहिता में डाल दिया गया है। इसके साथ ही ‘आतंकी गतिविधि’ का दायरा व्यापक कर दिया गया है।  
     
इसमें ‘‘भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता की सुरक्षा या आर्थिक सुरक्षा को खतरे में डालने या जनता के किसी हिस्से में आतंक फैलाने की मंशा से की गई कार्रवाई’’ आतंकी गतिविधि हैं इसके व्यापक अर्थ हो सकते हैं। जनता के अलग-अलग हिस्से बेरोजगार छात्र-नौजवान, महिलाएं, किसान, मजदूर आदि के किसी आंदोलन पर संपत्ति के नुकसान (आर्थिक सुरक्षा) या अधिकारियों और नेताओं के घेराव को भी ‘‘आतंकवाद’’ कहने की खुली संभावना मौजूद है । 
    
इसमें ‘सार्वजनिक अधिकारियों को डराने या मारने का प्रयास’, और ‘सरकार या किसी संगठन को किसी खास तरीके से काम करने के लिए मजबूर करना’ आतंकवाद के दायरे में हैं। इस प्रकार देखें तो किसानों का आंदोलन के जरिए सरकार पर दबाव डालकर तीन काले कृषि कानूनों को रद्द करवाना ‘आतंकवादी गतिविधि’ के दायरे में आ जाता है। इसी तरह आंदोलनों से सड़क जाम होने पर, झंडे-तख्तियों, नारे के साथ प्रदर्शन पर जनता के किसी हिस्से में ‘‘आतंक फैलाने की मंशा से’’ का तर्क देकर भी ‘‘आतंकवाद’’ का मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। 
    
‘आवश्यक सेवाओं को बाधित करना’ जैसे पानी, बिजली या स्वास्थ्य आदि में आपूर्ति रोकना या सेवा रोक देना भी आतंकवादी कृत्य होगा। पहले आवश्यक सेवाओं वाले विभाग में हड़ताल होने पर एस्मा (आवश्यक सेवा अनुरक्षण कानून) लगती थी तब अधिकतम सजा 6 माह की जेल थी और यह आतंकवाद नहीं था। मगर अब ‘न्याय संहिता’ में यह ‘आतंकवाद’ कहलाएगा। इसी रूप में मजदूर वर्ग की हड़ताल को देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरे में डालने वाला कहा जा सकता है और इसे आतंकवादी गतिविधि कहा जा सकता है। सरकार के बहरे कानों को सुनाने के लिए और दबाव बनाने के लिए ‘रेल रोको’ ‘काम रोको’ ‘सड़क जाम’ ‘चक्का जाम’ ‘भारत बंद’ या ‘राज्य बंद’ ‘बाजार बंद’ की अपील संगठनों द्वारा की जाती है। इन्हें अब आसानी से ‘आतंकवादी गतिविधि’ ठहराया जा सकता है। इसकी सजा 5 साल से लेकर आजीवन जेल और कुछ मामलों में मृत्यु दंड हो सकती है। 
    
मजदूर वर्ग की हड़तालों को रोकने और आपराधिक घोषित करने के लिए तो वैसे 4 नयी श्रम संहिताएं (कोड) पहले ही बन चुकी हैं। 
    
भारतीय पुलिस दमन और फर्जी मुकदमे लादने आदि के लिए तो वैसे ही कुख्यात थी मगर अब पुलिस अधिकारियों को ‘सार्वजनिक अनुशासन’ और ‘शांति’ के नाम पर नागरिकों के ‘नागरिक और जनवादी अधिकार’ को रौंदने की भरपूर छूट दी गई है। इस तरह से नागरिक ‘सुरक्षित’ होंगे और ‘शांति व्यवस्था’ कायम रहेगी। ‘शांति’ और ‘सुरक्षा’ के नाम पर पहले जो धारा 144 लगती थी अब वह 163 है। 163 के तहत स्थानीय स्तर पर तानाशाही या निरंकुशता थोप दी जाती है अब इस तानाशाही को 6 महीने तक बनाए रखने की छूट दे दी गई है।   
    
नए कानून में धारा 148 और 149 के तहत मजिस्ट्रेट से लेकर सब इंस्पेक्टर रैंक तक के अधिकारी को किसी भी ‘अवैध सभा’ को जहां 5 या 5 से ज्यादा लोग शामिल हों, को तितर-बितर करने का अधिकार दिया है। वह तितर-बितर करने में किसी भी व्यक्ति की मदद ले सकता है। इस तरह भाड़े के गुंडों, बाउंसरों, लंपट तत्वों का इस्तेमाल नागरिकों की कथित अवैध सभाओं, धरना-प्रदर्शनों को कुचलने में किया जा सकता है। यदि सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा महसूस होता है तब मजिस्ट्रेट को सूचित कर सशस्त्र बलों का इस्तेमाल किया जा सकता है। 
     
सशस्त्र बलों का इस तरह इस्तेमाल पहली बार देशव्यापी तौर पर होगा। यहां व्यवहार में सशस्त्र बलों द्वारा निरंकुश शासन की ओर कदम बढ़ाने से इंकार नहीं किया जा सकता। ‘धारा 150’ तो सीधे सशस्त्र बल के राजपत्रित अधिकारी को भी, ‘अवैध सभाओं’ को खतरा बताकर ध्वस्त कर देने की छूट देता है। ये कदम दुनिया भर में बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी और अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ फूट रहे जन आक्रोश के यहां भी फूट पड़ने के डर से उठाया गया है। लेकिन इस तरह के कदमों से न कभी जनसैलाब रुके हैं, न ही क्रांतियां। 
    
प्रशासन आम तौर पर ही जनता को सभा, जुलूस, प्रदर्शन की इजाजत तो देता नहीं है जबकि संविधान में आम नागरिकों को संगठित होकर विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार है। इसलिए सरकार या प्रशासन की नजर में ये सभाएं और धरना तो ‘अवैध’ ही होंगी। फिर ‘अवैध सभा’ घोषित करके दमन करना बेहद आसान होगा। इस तरह सरकार और इनके आका एकाधिकारी पूंजीपतियों का ‘शांतिपूर्ण स्वर्ग’ का राज चलेगा।  
    
इसी तरह ‘नागरिक सुरक्षा संहिता (बी.एन.एस.)’ में धारा 172 में पुलिस को एकतरफा तौर पर या तानाशाह पूर्ण तरीके से दिशा-निर्देश जारी करने का अधिकार है। इस निर्देश के उल्लंघन पर पुलिस को व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार है। यह धारा भ्रष्टाचार के लिए या वसूली का खुलेआम रास्ता बनाती है। 
    
मोदी सरकार ने आम नागरिकों को किसी मामले में गिरफ्तार होने पर निर्दोष होने के बावजूद अपराधियों की श्रेणी में रखने का भी कानून बना  डाला है। बी.एन.एस. की धारा-37 के तहत पुलिस को ये अधिकार दिया गया है कि वह अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार सभी नागरिकों की निजी जानकारी को नोटिस बोर्ड पर चस्पा करेगी और थाने के डिजिटल रिकार्ड में रखेगी। भले ही अभी दोष साबित ना हुआ हो। साथ ही इनके उंगुलियों के निशान और आवाज के नमूने भी लेगी। 
    
भीड़ हिंसा की कई घटनाएं हुईं, आम तौर पर इसके शिकार मुसलमान हुए हैं। गौवंश की रक्षा के नाम हिन्दू फासीवादी गिरोह आम तौर पर ही मुसलमानों को इसके निशाने पर लेते हैं। यहां चालाकी की गई है। धर्म या धर्म के आधार पर खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, विवाह आदि के नाम पर हत्या की बात कानून में नहीं है। भीड़ हिंसा में हत्या पर 10 साल की जेल का प्रावधान है। 
    
मोदी सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि अब उसने आनलाइन एफ आई आर, शून्य एफ आई आर का प्रावधान कर दिया है मगर आम नागरिकों के लिए विशेषकर महिलाओं, दलितों और मुसलमानों के लिए शिकायत दर्ज कराना जितना मुश्किल रहा है, वह सभी महसूस करते हैं। हर तरह के पीड़ित की एफ आई आर तत्काल दर्ज करने और इसकी प्रति पीड़ित को दिए जाने का प्रावधान होना चाहिए था। 
    
इसके उलट धारा 173(3) के तहत पुलिस को ऐसे अपराधों में एफ आई आर नहीं लिखने की छूट दे दी गई है जिसमें 3 से लेकर 7 साल की सजा होती है। पहले पुलिस अधिकारी 14 दिन तक जांच करेगा कि मामला एफ आई आर दर्ज करने लायक है या नहीं। एक तरफ इस तरह के मामलों में संभावना यही है कि अपराधी या रसूख वाले पुलिस अधिकारी से सांठ-गांठ करके मामला निपटा लेंगे। तो दूसरी तरफ आंकड़ों में अपराध की दर बेहद कम हो जाएगी। संघी सरकार का ‘अपराध मुक्त भारत’ का सपना, आंकड़ों में उसी तरह साकार हो जाएगा जिस तरह ‘बेरोजगारी के आंकड़ों’ के हिसाब से बेरोजगारी नहीं है। 
    
पीड़ित पक्ष यदि न्याय के लिए धरना प्रदर्शन करता है तब उससे निपटने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि इसको ‘अवैध सभा’ कहकर लाठियों और गुंडों से सबक सिखाया जाए। यदि बड़े पैमाने पर लोग आक्रोशित हैं तब ‘सशस्त्र बल’ हाजिर हो जाएगा। साथ ही इसे ‘आतंकवादी गतिविधि’ कहने के पर्याप्त तर्क भी सामने आ जाएंगे।   
    
साक्ष्य जुटाने के नाम पर मोदी सरकार ने ‘निजता के अधिकार’ पर खुलकर हमला बोला है। पहले ही आधार परियोजना के जरिए नागरिकों की आखों की पुतलियों और उंगुलियों के निशान जनविरोधी सरकार के पास हैं अब नए कानून के तहत लोगों के डी एन ए (जैवीय नमूने), लिखावट, आदि इकट्ठा करने का अधिकार भी सरकारी  एजेंसियों को देती है। नागरिक के मोबाईल या अन्य डिवाइस को भी जब्त करके आडिओ, वीडियो आदि भी साक्ष्य के बतौर प्रस्तुत करने का अधिकार होगा। 
    
पुलिस हिरासत में टार्चर और मौतों को देखते हुए हिरासत में लेने के प्रावधान को खत्म कर देने या न्यूनतम करने की जरूरत थी। पहले किसी को हिरासत में 15 दिन ही रख सकने का प्रावधान था अब इसे ‘लोकतान्त्रिक मोदी’ और उनकी सरकार ने बढ़ाकर 60 से 90 दिन कर दिया है। एक तरह से किसी राजनीतिक कार्यकर्ता को फर्जी केस में फंसाकर फिर पूछताछ के नाम पर तीन महीने तक हिरासत में रखा जा सकता है। जमानत मिलना अब काफी मुश्किल बना दिया गया है। जबकि ‘जेल अपवाद और बेल नियम’ के सुप्रीम कोर्ट बार-बार दिशा-निर्देश दे रहा है। 
    
हिट एण्ड रन कानून का इतना विरोध हुआ मगर इसे अंततः फिर से लागू कर ही दिया गया है। इसी तरह जबरन अप्राकृतिक यौन संबंध के खिलाफ कोई कानून नहीं है। पुलिस की जवाबदेही शून्य है। यह स्थिति ब्रिटिशकाल से बनी हुई है।   
    
जिन सुधारों को लेकर इन कानूनों को ‘क्रांतिकारी’ बताया जा रहा है वह भी खोखले हैं। पुलिस थानों और चौकियों में सीसीटीवी की व्यवस्था करने और इसे अनिवार्य करने की कोई चर्चा नहीं है केवल घटना स्थल की वीडियोग्राफी करने की बात की गई है वह भी मोबाईल में। गिरफ्तार व्यक्तियों की सूची पुलिस थाने में लगाने की बात की गई है मगर पुलिस तो गिरफ्तारी ही नहीं दिखाती ऐसे में क्या होगा, कुछ भी नहीं। 
    
इस तरह साफ है कि ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं। इसलिए इनके दमनकारी प्रावधानों को रद्द करवाने की मांग करना और इसके लिए संघर्ष करना हर सचेत नागरिक के लिए बेहद जरूरी है। 

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