उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाके में मूल निवास व भू कानून का मुद्दा एक बार फिर जोर पकड़ रहा है। इस मसले पर प्रदेश के पहाड़ी व तराई के जिले एक बार फिर से बंटे-बंटे नजर आ रहे हैं। 24 दिसम्बर को सख्त भू कानून व मूल निवास की मांग को लेकर देहरादून में हुए विशाल प्रदर्शन के बाद यह मुद्दा हर ओर चर्चा में आ चुका है।
वर्ष 2000 में जब उत्तराखण्ड राज्य स्थापित हुआ तो तब शुरूआत में बाहर के राज्यों के लोगों को पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि खरीदने व गैर कृषि धंधे करने की छूट थी। उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल (56.72 लाख हेक्टेयर) में कृषि क्षेत्र महज 14 प्रतिशत (7.41 लाख हेक्टेयर) है। 2003 में कांग्रेस की एन डी तिवारी सरकार ने राज्य का पहला भूमि कानून बनाया। इसके तहत प्रावधान किया गया कि राज्य के बाहरी लोग राज्य में अधिकतम 500 वर्ग मीटर ही कृषि भूमि खरीद सकते थे। 2008 में भाजपा की खंडूडी सरकार ने भूमि खरीद की इस सीमा को घटा कर 250 वर्ग मीटर कर दिया।
2018 में भाजपा की त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने कानून में संशोधन कर उद्योग स्थापित करने के उद्देश्य से पहाड़ में जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा समाप्त कर दी। इसके साथ ही कृषि भूमि का भू उपयोग बदलना आसान कर दिया गया। पहले यह प्रावधान पहाड़ी क्षेत्र के लिए किया गया फिर बाद में मैदानी क्षेत्र भी इसमें शामिल कर लिये गये। यह सब सरकार ने राज्य के औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर किया। 2018 के संशोधन में ये प्रावधान था कि अगर खरीदी भूमि का इस्तेमाल निर्धारित उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता या किसी और को बेचा जाता है तो वह भूमि राज्य सरकार के अधीन आ जायेगी। पर वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने सिंगल विंडो कानून पारित कर इस बात का इंतजाम कर दिया कि इसके तहत खरीदी गयी कृषि भूमि को गैर कृषि घोषित करने के बाद राज्य सरकार अपने अधीन नहीं ले सकती।
इस तरह 2018 से ही पहले त्रिवेन्द्र सिंह रावत व फिर धामी सरकार ने भू कानून में ढील देनी शुरू की। साथ ही धामी सरकार ने भू-सुधार के लिए एक समिति भी गठित की जिसने 2022 की अपनी रिपोर्ट में सख्त भू कानून की बात की। सरकार ने कोई कार्यवाही करने के बजाय अब एक नयी समिति इस मसले पर गठित कर दी है।
दरअसल सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की, उसने राज्य गठन के बाद से विकास के नाम पर राज्य के संसाधनों को पूंजीपतियों को लुटाने का ही खेल खेला है। पहले तराई में पंतनगर वि.वि. की 16,000 एकड़ भूमि सिडकुल की फैक्टरियों, रेलवे व अन्य सरकारी संस्थानों को दे दी गयी। उसके पश्चात पहाड़ों में भी सड़क, हैलीपैड से लेकर होटल-रिसोर्ट सेना का कैंटोनमेंट आदि के लिए कृषि भूमि या तो सरकार या पूंजीपतियों को लुटायी जाती रही। चार धाम यात्रा और पर्यटन के बढ़ावे के लिए होटल-रिसार्ट-टूर कंपनियां-भोजनालय आदि जगह-जगह खुलने लगे। कुछ शहरीकरण में भी कृषि भूमि गयी। इसके अतिरिक्त बांध, विद्युत परियोजनाओं आदि में भी पहाड़ के संसाधनों को पूंजीपतियों को लुटाया जाने लगा। अब प्रधानमंत्री मोदी के ‘वेडिंग इन इंडिया’ के नारे के तहत धामी सरकार प्रदेश में ढेरों वेडिंग (शादी) प्वाइंट बढ़ा रही है। ओली में उद्योगपति गुप्ता बंधुओं की शादी में फैला कचरा पहले ही चर्चा पा चुका है। इसके साथ ही धामी सरकार फिल्म शूटिंग से लेकर अन्य कारोबार में निवेश के लिए पूंजीपतियों को उत्तराखण्ड आने की दावत देती ही रहती है।
ऐसे में पहाड़ी इलाकों के शहरी व देहाती क्षेत्रों से भूमि क्रमशः स्थानीय लोगों के हाथ से निकल पूंजीपतियों के धंधों में लगने लगी। कई जगह तो पूंजीपतियों और स्थानीय आबादी में टकराव भी हुआ। सरकार पूंजी के पक्ष में स्थानीय लोगों का उत्पीड़न करने लगी। कई बार स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद सरकारी भूमि पूंजीपतियों को सौंप दी गयी। बिड़ला के आवासीय स्कूल से लेकर कई मामले जनता के आक्रोश का कारण भी बनते रहे।
पूंजीपतियों के इन धंधों के साथ-साथ उत्तराखण्ड की तराई व अन्य राज्यों से मजदूर-मेहनतकश आबादी भी पहाड़ पहुंचने लगी तो पर्यटन बढ़ने पर मध्यमवर्गीय लोग भी पहाड़ में दिखने लगे। इनमें से कुछ पहाड़ पर थोड़ी-बहुत जमीन ले बसने भी लगे। यह वैसे ही हुआ जैसे पहाड़ के ढेरों युवा तराई की फैक्टरियों से लेकर काम-धंधे के लिए दिल्ली व अन्य राज्यों में जाते हैं और वहीं बस जाते हैं।
पहाड़ी जिलों में रहने वाले स्थानीय लोगों को यह लगने लगा कि बाहरी लोगों के आने से उनकी भूमि ही उनके हाथ से नहीं निकल रही है बल्कि उनकी संस्कृति व रहन-सहन भी प्रभावित हो रहा है। उन्हें यह भी लगने लगा कि बाहरी लोग यहां आकर उनके हिस्से की नौकरियां-रोजगार खा जा रहे हैं। इन्हीं परिस्थितियों में कठोर भू कानून व मूल निवास की मांग वर्तमान में जोर पकड़ रही है। मांग करने वालों का मत है कि शहरी क्षेत्र में 250 वर्ग मी. भूमि खरीद की अधिकतम सीमा बाहरी व्यक्ति की हो व ग्रामीण क्षेत्र की भूमि बाहरी लोगों की खरीद के लिए पूर्ण प्रतिबंधित हो। इसके साथ ही वे राज्य में मूल निवास के लिए 26 जनवरी 1950 से पहले रह रहे लोगों को मूल निवासी घोषित करने की मांग कर रहे हैं।
दरअसल वैसे तो भारत में ज्यादातर जगह मूल निवास के लिए 26 जनवरी 1950 की तारीख ही तय है पर उत्तराखण्ड में राज्य बनते ही भाजपा की नित्यानंद स्वामी सरकार ने मूल निवास व स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट 1985 तय कर दी। यानी राज्य बनने के 15 वर्ष पूर्व से जो लोग राज्य में रह रहे होंगे वे स्थायी निवासी माने जायेंगे। 2012 में हाई कोर्ट ने नया निर्णय देते हुए कहा कि जो भी लोग राज्य गठन के वक्त (यानी 9 नवम्बर 2000) राज्य में रह रहे थे वे राज्य के मूल निवासी माने जायेंगे। उस समय की कांग्रेस सरकार ने इसे स्वीकार लिया।
दरअसल उत्तराखण्ड कुछ पहाड़ी व कुछ तराई के जिलों को लेकर बना है। जहां पहाड़ी जिलों में लम्बे समय से लोग बसे हैं। वहीं तराई में ज्यादातर बसावट आजादी के बाद से विभिन्न समुदायों के आने से बढ़ी। कुछ जनजातियां ही आजादी के वक्त यहां बसी थीं बाद में सिक्ख, बंगाली समुदाय के लोगों के साथ अन्य लोग भी यहां आकर बसे। इसीलिए जब मूल निवास के मामले में पहाड़ के लोग आजादी की तारीख निर्धारित करने की मांग करते हैं तो वे तराई में रह रहे लोगों को प्रकारांतर से इससे वंचित कर देते हैं व तराई में उलट मांग उठने लगती है।
दरअसल यह समझने की आवश्यकता है कि पहाड़ के संसाधनों को, पहाड़ के लोगों की अस्मिता, पहाड़ के पर्यावरण को चौपट करने का काम देश व राज्य के पूंजीपति कर रहे हैं व सरकारें संसाधन इन पूंजीपतियों पर लुटा रही हैं। ऐसे में संघर्ष पूंजीपतियों व सरकार के गठजोड़ के खिलाफ केन्द्रित किया जाना चाहिए। पूंजीपतियों को पहाड़ी संसाधनों के मनमाने दोहन से रोका जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि 2018 से पूर्व के भूमि कानून को बहाल किया जाए व त्रिवेन्द्र सिंह रावत-धामी सरकार के पूंजीपरस्त संशोधनों को रद्द किया जाए।
हां, इसी के साथ यह भी समझ जाना चाहिए कि बाहर से या तराई से मेहनत-मजदूरी करने पहाड़ आने वाले लोग पहाड़ के लोगों के दुश्मन नहीं हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे पहाड़ से अन्य जगहों पर रोजी-रोटी कमाने जाते लोग वहां की जनता के दुश्मन नहीं हो जाते। इसीलिए इस संघर्ष को पहाड़ी बनाम बाहरी की क्षेत्रवादी राजनीति के चंगुल में जाने से रोकना होगा। जहां तक प्रश्न मूल निवास का है तो इसकी समय सीमा 1950 करने या बढ़ाने की मांग दरअसल उत्तराखण्ड के ही आम जनों को आपस में बांटने की मांग होगी। इसीलिए जरूरी है कि इस बात को समझा जाए कि उत्तराखण्ड के आम मजदूरों-मेहनतकशों की बेरोजगारी से लेकर पर्यावरण बिगड़ने, कृषि के फायदेमंद न रहने की जो समस्यायें हैं उसके लिए सरकार की पूंजीपरस्त कृषि विरोधी नीतियां जिम्मेवार हैं। इसके साथ ही उनके दुःख तकलीफों का कारण पूंजीवादी व्यवस्था है। पूंजीपति चाहे वे राज्य के हों या बाहरी, तराई के हों या पहाड़ी वही आम जन की मेहनत को लूट रहे हैं। उन्हें कंगाल बना रहे हैं। ऐसे में इस लूट का खात्मा कर ही जीवन खुशहाल बनाया जा सकता है। जरूरत है कि समूचे राज्य के मेहनतकश एकजुट हो रोजगार से लेकर घटती कृषि सब्सिडी सरीखे मुद्दों पर लड़ते हुए पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करें।
वैसे भी राज्य स्थापना के 23 वर्षों में यह स्पष्ट ही है कि मुख्यमंत्री पहाड़़ के बनने के बाद भी उन्होंने पूंजीपतियों को ही पहाड़ के संसाधन लुटाये। उन्होंने उत्तराखण्ड के आम जन की दुःख-तकलीफ बढ़ाने का काम किया। उनके ही शासन में जंगलों से चारा-जलावन जुटाने पर तरह-तरह से रोक लगायी गयी। उनके ही शासन में जंगली जानवरों के आतंक के साये जनता जीने को मजबूर है। इनके ही द्वारा सड़कें-सुरंग-बांध बनाने से पहाड़ियां दरकने लगी हैं। अंकिता भण्डारी हत्याकाण्ड रचने वालों से लेकर भू माफिया-शराब माफिया तक पहाड़ के व बाहर के अमीरजादे बन रहे हैं जो यहां के आम जन को लूट रहे हैं। ऐसे में पहाड़ के आम मेहनतकशों-महिलाओं की दुःख-तकलीफ के लिए बाहरी आम जन नहीं बल्कि पहाड़ी-बाहरी पूंजीपति व इनके लिए काम कर रही सरकारें जिम्मेदार हैं। मोदी-धामी जिम्मेदार हैं। पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है। इस व्यवस्था को बदल कर ही बेहतर जीवन हासिल किया जा सकता है।
उत्तराखण्ड : मूल निवास व भू कानून का मुद्दा
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
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